महापंचायत शब्द भिवानी में 2014 में बिजली के बढ़े रेटों के विरोध में हुई पंचायत से आया, अब होने वाली पंचायतें टिकट के मुद्दे पर होती है ईश्वर धामु हरियाणा विधानसभा केे चुनाव का समय चल रहा है। राजनैतिक दल टिकट वितरण में उलझे हुए हैं। प्रदेश के दो प्रमुख दल कांग्रेस और भाजपा की है पहली सूची जारी होते ही पार्टी में बगावत हो गई। सामान्य नेता तो क्या जनाधार वाले नेता भी अपनी पार्टी छोड़ कर दूसरे दलों में जा रहे हैं। सिटिंग विधायक भी टिकट न मिलने से नाराज होकर दूसरे दलों मेंं जा रहे हैं। इस बार मजेदार बात यह है कि जो जनाधार वाले नेता अपनी पार्टी छोड़ कर दूसरे दलों में जाते हैं तो उनको अगले ही दिन सम्मानपूर्वक टिकट थमा दी जाती है। पार्टी के ऐसा नेता देखते रह जाते हैं, जो पार्टी के साथ समर्पित भावना से जुड़े हुए हैं। तीन दशकों से पार्टी को अपनी मां मान कर सेवा करने वाले समर्थकों को अपना राजनैतिक भविष्य अंधकारमय दिखाई देने लगता है। तो वें अपने समर्थकों को इकट्ठा कर तेवर दिखाते हैं। इस बार नई बात उभर यह सामने आई है कि टिकट न मिलने वाले नेता पहले तो जी भर कर रोते हैं और फिर महापंचायत बुलाने का ऐलान कर देते हैं। हरियाणा में ऐेसी कई पंचायत हो चुकी है। गजब यह है कि कोई पंचायत नहीं बुलाता, महापंचायत ही बुलाते हैं। इन महापंचायतों में लोग कितने आते हैं, इसका कोई असर नहीं है। भिवानी क्षेत्र मेंं बिजली के बढ़े रेट को लेकर 2014 में पहली महापंचायत भिवानी में हुई थी। इस महापंचायत में रिकार्ड भीड़ इकट्ठी हुई थी। यह पहली ऐसी महापंचायत थी, जिसमें सभी राजनैतिक पार्टियों के नेता शामिल हुए थे। महापंचायत को राव इंदरजीत सिंह, धर्मबीर सिंह, सतपाल सांगवान, सीपीआई, सीपीएम, भाजपा, किसान संघर्ष समिति और विभिन्न सामाजिक संगठनों का समर्थन प्राप्त था। छात्र नेता सम्पूर्ण सिंह के नेतृत्व में गठित महापंचायत के संयोजक बृजलाल सर्राफ और संरक्षक सेवानिवृत आईएएस अधिकारी आरपी सिंह थे। पंचायत की ओर से बढ़े बिजली के रेटों पर बंद का ऐलान किया गया। यह बंद भी ऐतिहासिक था। इस मुद्दे पर महापंचायत को सफलता मिली ओर 1.06 पैसे प्रति यूनिट बिजली दर कम कर दी गई। इसके बाद भिवानी क्षेत्र में महापंचायत शब्द प्रचलन में आ गया। अब चुनावी समय में टिकट न मिलने से नाराज नेता महापंचायत करने लगा है। परन्तु 2014 की महापंचायत की तुलना में आज की महापंचायत कहीं भी नहीं ठहरती है। इसका एक बड़ा कारण यह भी है कि आज जो मुद्दे हैं, वें व्यक्तिगत हैं और उस समय का मुद्दा आम आदमी से जुड़ा गैर-राजनैतिक मुद्दा था। पर आज की पंचायतों का मुद्दा राजनैतिक और टिकटों से जुड़ा हुआ होता है। इन राजनैतिक पंंचायतों के माध्यम से टिकट न मिलने वाले नेता अपना जनाधार दिखा कर पार्टी को प्रभावित करना चाहते हैं। इन पंचायतों से पहले नेता तय कर लेता है कि समर्थकों को किस मौड़ तक लेकर जाना है। इन पंचायतों का दौर समाप्त होने को जा रहा है, क्योकि नामांकन भरने की अंतिम तारीख 12 सितम्बर है। देखना होगा कि पंचायत करने वाले नेता राजनैतिक रूप से क्या हासिल कर पाते हैं? Post navigation 200 साल पुरानी भोलाराम डालमिया धर्मार्थ ट्रस्ट मंदिर व कुएं की संपत्ति की रजिस्ट्री पर लगी रोक हिन्दी: कब बनेगी हमारी राष्ट्रभाषा ?