उस जुल्फ पे फबती है बड़ी शब ए दिजूर की सूझी।
अंधे को अंधेरे में बड़ी दूर की सूझी।।

डॉ महेन्द्र शर्मा “महेश”

भारतीय फिल्मों में अक्सर हम देखते हैं कि किसी भी अप्रिय घटनाक्रम को रोकने के फिल्म का नायक न जाने कहां से टपक पड़ता है और वह अप्रिय घटना टल जाती है, हमारे देश के आम चुनाव में भी धर्म ने आकर सत्य प्रकट कर दिया। हमारे देश पर यह तो ईश्वर की थोड़ी सी कृपा है कि जनता ने 2024 के आम चुनाव के परिणामों से देश मे दुर्योधनी राजनीति पर कुछ अंकुश लगाया है अन्यथा देश में अघोषित आपात काल तो गत दस वर्षों से चल ही रहा है।

देश की लोक सभा चुनावों की 543 सीटों में केवल चार सीटों के वोटों की गिनती एक समान है कि जितने वोट पोल हुए उतने वोटों की गिनती हुई। शेष 538 सीटों पर कहीं वोट घटे कहीं बढ़ गए। जब सब कुछ कंप्यूटर के अधीन है तो फिर वोटों के टोटल में अंतर क्यों? मामला उच्चतम न्यायालय में चला गया है कि कुछ सामाजिक प्रजातांत्रिक संस्थाओं और राष्ट्रवादी महानुभाव और वकीलों के अनुसार 5.10 करोड़ वोटों का अंतर आया है जिससे 79 सीटें प्रभावित हुई हैं। प्रबुद्ध राष्ट्रवादियों के संग वकीलों की दलीलों का काम तो अदालतों में है बाकी यह तो अब प्रमाणित होता ही जा रहा है कि अब दाल में काला नहीं बल्कि सारी दाल ही काली है।

पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त श्री एम एस कुरैशी भी चुनाव आयोग को कटघरे में खड़ा कर रहे हैं और वोटों की संख्या को लेकर चुनाव आयोग से प्रश्न पूछ रहे हैं। कुरैशी साहिब अपने एक इंटरव्यू में यह कह रहे हैं कि बैंक में शाम के समय जब फाइनल बैलेंस शीट में यदि एक रुपए का भी अंतर आता है तो उसको खोजने के लिए फिर से स्टाफ को काम करना पड़ता हैं कि यह कैसे हो गया यहां तो देश के भविष्य का प्रश्न है और चुनाव आयोग मौन। सत्ता पक्ष की ईमानदारी की मात्रा में कमी प्रतीत होने लगी है जिसको दूर करने में यह स्वतंत्र एजेंसियां सरकार की सहायता कर रही हैं। इस विषय के वादियों के अनुसार इस चुनाव 79 सीटों के रिजल्ट्स प्रभावित हुए है फिर यह तो मान कर ही चलें कि यदि यह सत्य है तो यह वैशाखियोंं वाली सरकार भी बन ही नहीं सकती थी क्यों की इनकी संख्या तो फिर निश्चित ही यह संख्या 175 तक होती।

संसदीय चुनावों के बाद अब विधान सभाओं के चुनाव सिर पर हैं। जनता और अदालतें जाग चुकी हैं, काठ की हांडी अब तो दो बार चूल्हे चढ़ चुकी है, हांडी का पैंदा कमज़ोर हुआ है तभी तो इस सत्ता को बड़ी दूर की सूझी … किसान आंदोलन में लगभग 700 किसानों की मृत्यु के बाद सरकार को याद आई की सरकार यदि दुबारा आई तो किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य (एम एस पी ) देगी। इससे तो सरकार की हठधर्मिता का पता चलता है कि सब कुछ लुटवाने के बाद होश आया। यह सरकार तो इनको न जाने क्या क्या कह रही थी आंदोलनजीवी, उग्रवाद और न जाने क्या? यह आरोप भी लगता है कि इनकी फंडिंग विदेशों से हो रही हैं। विदेशों में किसानों के बेटे रहते हैं, वह अपने माता पिता किसानी और सैनिकों का दर्द जानते हैं। इन किसानों के परिवार देश की सीमाओं पर हमारी रक्षा करते हैं। इन्होंने अपनी मेहनत से बालकों को पढ़ाया लिखाया है, हमारे देश में भुखमरी और बेरोजगारी है , इसलिए इन के बालक विदेशों में रह कर घर परिवारों को पैसा भेजते हैं। किसानों को विदेशी सरकारों से फंडिंग थोड़े न मिल रही है।

किसान आंदोलन के कारण एक तो मुख्यमंत्री की बलि हुई है दूसरा सरकार यह भी जानती है की कृषक वर्ग के वोट नहीं मिलने वाले, इसलिए मुख्यमंत्री बदलना पड़ा। यह तो किसानों की हिम्मत है कि उन्होंने बिगड़े हुए बैल को साध लिया और सरकार ने यह बिल संसद में वापिस ले लिए। कृषि प्रधान देश में सत्ता किसानों का विरोध करेगी तो चुनाव परिणाम और भी खराब आयेंगे। सत्ता प्राप्ति का दूरगामी लक्ष्य साधने के लिए सरकार किसानों को फिर से लुभाने के न्यूनतम समर्थन मूल्य पर विचार कर रही है और दूसरे आम जनता को लुभाने के लिए जनता को सरकारी फंदे से तीर्थयात्राएं करवाई जा रही हैं, देखो इससे चुनावों के परिणामों पर कितना फर्क पड़ता है, जनता इन पर कितना विश्वास करती है …

वैसे तो सनातन धर्म का वैदिक नियम है कि तीर्थयात्रा अपने पैसे से करनी चाहिए और तीर्थ दर्शन में भूख और पीड़ा अवश्य सहन करनी चाहिए तभी तो पूर्व जन्मों के पापों का क्षय होगा। यदि कोई दूसरा या तीसरा आदमी आप को यात्रा करवा रहा है तो यात्री को इस यात्रा का कोई भी पुण्य नहीं मिलेगा। मुफ्त में यात्रा करवाने वाले आयोजक को भी धन अपनी जेब से लगाना पड़ेगा तभी उस आयोजक को कोई शुभ फल मिलेगा अन्यथा उसका यह पुरुषार्थ भी व्यर्थ हो जाएगा यदि इस यात्रा पर आम जनता से उगाए गए कर से करवाई जा रही है कि इनको मुफ्त की शोहरत या फिर चुनाव में लाभ मिल सके , ऐसा करने से इन लोगों के वोट नहीं मिलेंगे। दुनिया बड़ी सयानी और समझदार हो चुकी है। मुफ्त की खाने में यदि नेता डाल डाल हैं तो मुफ्त की खाने वाले मंद बुद्धि भक्त भी पात पात हैं। सरकार द्वारा आयोजित यह यात्राएं पर्यटन मात्र तो हो सकती हैं धार्मिक नहीं। इस तरह की स्थिति के लिए गोस्वामी तुलसीदास जी ने श्री राम चरित मानस के उत्तर कांड के साफ साफ लिखा है कि यह अंधे और बहरे की यारी है एक को सुनाई नहीं देता और दूसरे को दिखाई नहीं देता … मूकहिं बाघिर अंध कर लेखा। एक न सुनही एक नहीं देखा।।

धर्म की राजनीति करने वाले महानुभावों के ज्ञान के लिए मेरा तो व्यक्तिगत आंकलन है कि देश में इस समय सोशल मीडिया पर सरकार को कटघरे में खड़े करने वाले पत्रकारों में 90% यूट्यूबर और ट्विटर पर ब्राह्मण हैं जो सत्य को उजागर करते हैं।

सब से रोचक बात तो यह है की ज़रा ज़रा सी बात पर विपक्ष के नेताओं को बदनाम करने के लिये रील्स बना करने वाले इनके सोशल मीडिया अपने अंध भक्तो को अभी तक यह नहीं बता सका की अगर तुम्हें कोई पूछे कि देश में कौन कौन से विकास के काम हुए है तो यह वाले काम गिनवाना। इस लिए तो 2024 में सत्ताधारियों की यह हालात हुई कि…

पैरों से जूते छिन गए
सिर से उतर गया ताज
राजनैतिक में मानो जैसे
पड़ गया कोढ़ में खाज
चतुराई धरी धरी रह गई
फैला लोगों में अविश्वास
सत्ता के रसवादन के लिए
हुए टुकड़े टुकड़े मोहताज
यदि इनके मन में धर्म के भाव होते तो श्री राम दौड़े चले आते।

सच तो यह कि जिस धर्म की यह बात करते हैं उस का पहला लक्षण धृति अर्थात धीरज धैर्य प्रतीक्षा सौम्यता और सहन शीलता है और बड़े दुख के साथ कहना पड़ता है कि इनके धर्म में इन शब्दों का प्रयोग ही वर्जित है। आप को इन सत्ताधारियों के शायद ही कोई नेता मुस्कुराता हुआ मिले। कभी प्रैक्टिकल कर के देखना … वह क्रोध प्रतिशोध से भरा हुआ मिलेगा।

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