-कमलेश भारतीय राष्ट्रीय मीडिया की घटती लोकप्रियता और सोशल मीडिया विषय ने हम पत्रकारों का ध्यान आकर्षित किया है ।विषय बहुत समसामयिक और ज्वलंत है। बचपन से जब अखबारों के महत्व का ज्ञान हुआ तब इन्हें पढ़ना शुरू किया। देश विदेश के समाचार और भरपूर जानकारी मिलती थी। राष्ट्रीय समाचार होते थे प्रमुख रूप से। अब युग बदला। समाचार पहले क्षेत्रीय हुए और फिर तो इतने लोकल हो गये कि हर शहर का फोल्डर लेकर आने लगे हैं । यानी जो दुनिया भर के समाचार देते थे और कहा जाता था कि ‘कुज्जे में समंदर’ सौंप देते थे, वही अखबार अब अपने अपने शहर तक सीमित कर रहे हैं पाठक को। इस अंधाधुंध और गला काट प्रतियोगिता से समाचार पत्रों का महत्व और स्तर बुरी तरह नीचे चला गया है जैसे जलस्तर नीचे जा चुका है। इसके लिए कौन जिम्मेदार है या किसको जिम्मेदार ठहराया जाये? अब आम पाठक अपने अपने शहर, गांव की खबर पढ़कर अखबार को एक तरफ सरका देता है और देश विदेश की कोई चिंता नहीं रहती न करने की जरूरत समझी जाती है। मीडिया ने इस रूप की कभी कल्पना नहीं की थी। जो राष्ट्रीय मीडिया अपनी रिपोर्ट्स से जनता को भ्रमित होने, गुमराह होने से बचाता था और सतर्क रखता था, वही मीडिया अपने संस्थान के समाचारपत्र की बिक्री बढ़ाने के लिए देर रात जागता जरूर है लेकिन पाठक को सुलाये रखने का ही विकल्प बन कर रह गया है । अपराध, मनोरंजन और सेलिब्रिटीज तक सीमित। आमजन से कोई सरोकार नहीं। ऐसी परिचर्चायें या कॉलम नहीं। साहित्य के लिए बहुत सीमित जगह बच रही है। रविवारीय संस्करण भी गायब हो रहे हैं । न राजनीतिक गहराई और न संस्कृति व साहित्य की चिंता। सिर्फ मार्केटिंग और विज्ञापन बटोरने की होड़! न समाज की चिंता, न देश की चिंता न नयी पीढ़ी की चिंता ! फिर आये चौबीसों घंटे चलने वाले टी वी चैनल! जी न्यूज, आज तक सहित अनेक चैनल ‘सबसे पहले हम’ का दावा करते हमारे बीच आये । टीआरपी बढ़ाने के खेल और राजनीति में कनेक्शन जोड़ते जोड़ते अपनी विश्वसनीयता ही दांव पर लगा बैठे। राज्यसभा चुनाव या राज्यसभा में नामजद होने की दौड़ बढ़ती गयी और चैनल की विश्वसनीयता दांव पर लगती गयी। आमजन की आवाज दबाई जाने लगी। आज अधिकांश लोग टीवी चैनल देखना छोडक़र सोशल मीडिया को पसंद करने लगे हैं! टी वी, प्रिंट मीडिया का स्थान लिया सोशल मीडिया ने। यानी फेसबुक, ट्विटर, इंस्ट्राग्राम के साथ साथ यूट्यूब ने! फेसबुक पर हर आदमी किसी रिपोर्टर से कम नहीं रहा। हर विषय पर कलम चल रही है और ज्ञान बांटा जा रहा है । अब हालत यह हो गयी कि खुफिया तंत्र इस सोशल मीडिया पर नज़र रखने तो लगा है और कुछेक लोगों पर केस भी दर्ज होते हैं लेकिन छोटी छोटी टिप्पणी भी जानलेवा साबित होने लगी है। जैसे महाराष्ट्र और राजस्थान के मामले हमारे सामने आये कि अतिवादियों ने धमकियां तो दी ही बल्कि जान भी ले ली । रात की रात महाराष्ट्र छोड़कर जाना पड़ा । यह सब किसलिये और क्यों? असहिष्णुता के चलते। सोशल मीडिया पर किसी भी टिप्पणी या छोटे से लेख को संपादित करने या पुनर्विचार करने के लिए कोई संपादक नहीं होता यानी संपादक नाम की कोई मर्यादा बताने या कोई लक्ष्मण रेखा बताने वाला यहां गायब है । यहां तो बस कटु या अभद्र भाषा में ही कमेंट्स किये जाते हैं। गालियां तक दी जाती हैं । सोशल मीडिया की टिप्पणियों के आधार पर कुछेक केस भी दर्ज हुए देखे जा रहे हैं। फिर भी अंकुश नहीं लग पा रहा। किसान आंदोलन में हरियाणा में एक यूट्यूब के संचालक को पीटा गया तो जींद के विधायक ने भी एक संवाददाता पर मानहानि केस दायर कर दिया। किसान आंदोलन के दौरान अनेक बार टी वी चैनलों के रिपोर्टरों को बात करने से भी मना कर दिया गया। इससे बड़ी अविश्वसनीयता क्या हो सकती है ! यूट्यूब के चैनलों के विवादास्पद विषय और परिचर्चाओं के ऊपर भी सबकी नजर है! कहना नहीं चाहता कि यूट्यूब में भी संपादक लगभग गायब है। संपादन की कोई आवश्यकता ही नहीं समझी जाती। इसलिये इनके संचालकों के साथ बदसलूकी होने और नाराजगी होने के समाचार भी आम हैं। इन पर अंकुश कौन लगाये? हालांकि इसी सोशल मीडिया ने अच्छा काम भी किया कोरोना के संकट की घड़ी में। जहां समाचारपत्र या टीवी चैनल नहीं पहुंच पाये, वहां सोशल मीडिया ने जानकारियां दीं और प्रशासन को समय-समय चेताया। इस अच्छे पहलू को भी याद रखने की जरूरत है। इस सोशल मीडिया से ही सोनू सूद लोगों की मदद कर पाये या प्रशासन पीड़ितों तक पहुंच पाया। हर चीज के दो पहलू होते हैं। सोशल मीडिया के भी ऐसे ही अच्छे बुरे दोनों पहलू हैं। सबसे बड़ी बात कि इसे बहुत सजगतता व समझ के साथ उपयोग करने की दिशा में कुछ नियम / शर्ते होनी चाहिएं। कहीं न कहीं कोई अंकुश रहना चाहिए। तभी यह सोशल मीडिया अपनी सही व सार्थक भूमिका निभा पायेगा।दुष्यंत कुमार के शब्दों में :सिर्फ हंगामा खड़ा करनामेरा मकसद नहींमेरी कोशिश है किये सूरत बदलनी चाहिए! Post navigation हिसार की यादें ……..हिसार उद्योग : दाल और तेल मिलों से स्टेनलेस स्टील तक साहित्य से रोजी रोटी नहीं चल सकती , मेरी किताब के विदेशी अनुवाद से पैसे मिले : बेबी हालदार