कहा: सेवा में सिद्धि हैं, सफलता हैं और सेवा से ही परमात्मा मिलते है।

चरखी दादरी/भिवानी जयवीर सिंह फौगाट,

26 नवंबर,- दरबार की सेवा साक्षात परमात्मा की सेवा है और सेवा यदि ऐसे मौके पर हो जहां तीन पुण्य आयोजन एक साथ हो तो इसकी अद्यात्मिक्ता और भी बढ़ जाती है। गंगा स्नान नानक जयंती और राधास्वामी धाम दिनोद के वार्षिक भण्डारे की त्रिवेणी में सेवा करना सोने पर सुहागा है। यह सत्संग वचन परमसंत सतगुरु कंवर साहेब जी महाराज ने गुरु पर्व पर आयोजित होने वाले सत्संग की पूर्व संध्या पर एकत्रित हुए सेवादारों को फरमाए। हुजूर ने फरमाया कि सेवा में ही सिद्धि है, सेवा में ही सफलता। सेवा से परमात्मा मिलते है। लेकिन सेवा के स्वरूप अलग अलग हैं। सेवा मातृभक्ति, पितृभक्ति, देशभक्ति के रूप में भी करते हैं, सेवा दीन दुखी की और जरूरतमंद की भी होती है लेकिन सबसे उत्तम सेवा सुरत की सेवा है, सत्संग की सेवा है क्योंकि किसी और सेवा में तो कुछ ना कुछ स्वार्थ हो सकता है लेकिन सुरत की सेवा  निस्वार्थ सेवा होती है।

गुरु जी ने फरमाया कि भक्ति में तीन ही मुख्य बिंदु है। सेवा सतगुरू और सत्संग। सत्संग का महत्व तीर्थ, व्रत, वेद-शास्त्र से भी बढ़कर है। सत्संग के महत्व को सतगुरू की शरण से ही जाना जा सकता है लेकिन शरण का वास्तविक अर्थ समझ आना चाहिये। सत्संग परमात्मा का संग है और परमात्मा का संग शरणाई से ही मिलता है। शरणाई वो हो सकता है जिसने आपा मार लिया हो। उन्होंने कहा कि भक्ति मुक्ति के लिए नहीं की जाती। भक्ति तो विवेक जागरण के लिए की जाती है। जैसे दाना जब तक मिट्टी में अपनी हस्ती को खो देता है वही पेड़ बनता है उसी प्रकार इंसान भी अपनी हस्ती को खोए बिना विराट व्यक्तित्व का नहीं बन सकता। हुजूर महाराज जी ने कहा कि भक्ति का यही सिद्धांत है की पहले अपनी दृष्टि का दोष हटाओ मन के दोष स्वत हट जाएंगे। हुजूर ने कहा कि कहने को तो हम कह देते हैं की हमने अपना मन सतगुरु को सौंप दिया लेकिन क्या वास्तव में सौंपा क्या। मन गुरु को दे ही दिया तो उसमें हम अपने ख्याल और आकांक्षा क्यों रखे। मन गुरु को दिया है तो ख्याल और विचार भी उसमें गुरु के ही रखो। 

सत्संग से बढ़कर कुछ नही है;

गुरु वशिस्ठ और गुरु विश्वामित्र में एक दिन इसी बात को लेकर बहस हो गई। विश्वामित्र जप और तप को बड़ा बताने लगे और वशिष्ठ जी सत्संग को। वे इस बात का फैसला करवाने ब्रह्मा जी के पास चले गए। उनकी बात सुनकर ब्रह्मा जी ने कहा मैं सृष्टि की रचना करने में व्यस्त हूं। आप विष्णु जी के पास जाइए। विष्णु जी आपका फैसला अवश्य कर देंगे। दोनों विष्णु जी के पास चले गए। विष्णु जी ने सोचा यदि मैं सत्संग को बड़ा बताता हूं तो विश्वामित्र जी नाराज होंगे और यदि तप को बड़ा बताता हूं तो वशिष्ठ जी के साथ अन्याय होगा इसीलिए उन्होंने भी यह कह कर उन्हें टाल दिया कि मैं सृष्टि का पालन करने में व्यस्त हूं। आप शंकर जी के पास चले जाइए। दोनों शंकर जी के पास पहुंचे तो शंकर जी ने शेषनाग के पास भेज दिया। उन्होंने शेषनाग को सारा वृतांत सुनाया तो शेषनाग ने कहा कि मैं अपने सिर पर पृथ्वी का भार उठाए हूं। यदि आप में से कोई भी थोड़ी देर के लिए पृथ्वी के भार को उठा लें तो मैं आपका फैसला कर दूंगा। तप में अहंकार होता है और विश्वामित्र जी तपस्वी थे। उन्होंने तुरंत अहंकार में भर कर पृथ्वी को उठा लिया लेकिन पृथ्वी नीचे की ओर चलने लगी। विश्वामित्र जी ने कहा मैं अपना सारा तप देता हूं, पृथ्वी रुक जा परंतु पृथ्वी नहीं रुकी। यह देख कर वशिष्ठ जी ने कहा मैं आधी घड़ी का सत्संग देता हूं पृथ्वी माता रुक जा, पृथ्वी वहीं रुक गई। शेषनाग जी कहने लगे लो फैसला हो गया आपके पूरे जीवन का तप देने से भी पृथ्वी नहीं रुकी और वशिष्ठ जी के आधी घड़ी के सत्संग से ही पृथ्वी अपनी जगह पर रुक गई। यानी तप से सत्संग बड़ा होता है इसीलिए हमें नियमित रूप से सत्संग तो सुनना ही चाहिए, उस पर अमल भी करना चाहिए।

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