– सुरेश सिंह बैस शाश्वत        

 पितृपक्ष आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से प्रारंभ होकर अमावस्या को संपन्न होता है। इसमें मृत पूर्वजों का आव्हान कर श्राद्ध कर्म किया जाता है। श्राद्ध करने का अधिकार ज्येष्ठ पुत्र या छोटे पुत्र व नाती को होता है। इस पक्ष में शारीरिक श्रृंगार अथवा तेल नहीं लगाया जाना चाहिए। श्राद्ध में ब्राम्हणों को भोजन कराकर दक्षिणा दी जाती है। श्राद्ध पक्ष में ऐसा माना जाता है कि कोई भी नया काम शुरू नहीं करना चाहिये नये परिधान या नवीन कोई भी कार्य नहीं किया जाता। ऐसा करना अशुभ व हानिकारक माना जाता है। वहीं एकदम इसके उलट यह भी मान्यता है कि इस पक्ष के दौरान मृत्यु को प्राप्त करने वाले की आत्मा सीधे स्वर्ग जाती है।   

 श्राद्ध से तात्पर्य ही सम्मान, प्रकट करना हैं, चाहे वह मृत हो अथवा जीवित। पितृपक्ष में पितरों की मरण तिथि को ही उनका श्राद्ध किया जाता है। गया (बिहार) में श्राद्ध करने का बड़ा महत्व माना गया है। इसके पार्श्व में एक पौराणिक कथा है, जो इस प्रकार है। एक समय असुरवंश का गयासुर नामक असुर अपनी आसूरी प्रवृत्ति के खिलाफ तप और भगवदध्यान में लीन हो गया। यह देखकर उसके मित्रों कुटुंबियों को गहरा आश्चर्य हुआ कि यह गयासुर आखिरकार चाहता क्या है? उसके पास तो धन वैभव, भोग-विलास सभी कुछ तो है, तब उसे और क्या चाहिये कोई समझ नहीं पाया। सबने उसे तप से हटाने का लाख प्रयास भी किया पर असफल ही रहे। उसके निरंतर कठोर तप से आखिर ब्राम्हाजी उसके सामने पहुंचे और कहने लगे- तुम्हारी तपस्या फलीभूत हुई..देखों मैं स्वयं जगत्पिता ब्रम्हा तुम्हारी मनोकामना पूर्ण करने यहां आया हूं। परंतु ब्रम्हा की बातों का उस पर तनिक भी असर नहीं हुआ। वह बड़े शांत भाव से बोला- प्रभु आप मेरे पास यहां आये, इसके लिये आपका आभारी हूं, आगे उसने कहा- प्रभु मैं कुछ पाने के लिये तप नहीं कर रहा हूं मैं स्वयं को पवित्र बनाना चाहता हूं। हां, यदि आप मुझसे कुछ चाहें, तो मुझे वह आपको प्रदान करने में गहरा आत्म संतोष प्राप्त होगा।

 उसकी बातों से ब्रम्हा भी चकित रह गये। कुछ मांगना छोड़ उलट देने की बात कह रहा है। तब ब्रम्हा ने कहा” वत्स मैं बार-बार नहीं आता, तुम जो चाहो मांग लो” परंतु उसने कहा ” प्रभु मुझे लोभ में मत डालिये। मेरा लक्ष्य तो पवित्रता के चरमोत्कर्ष पर पहुंचकर जीवन का समग्र रुपान्तरण करना है। और वह सब तो भगवान की परम चेतना में निमग्न होने से ही संभव है हां, आपने मुझपे बड़ी कृपा की है मैं आपके किसी काम आ सका तो मुझे परम संतोष होगा। ब्रम्हाजी ने कहा “अच्छा तुम मुझे देना ही चाहते हो तो अपनी वह विशाल देह मुझे दे दो। मैं तुम्हारे शरीर पर  यज्ञ करना चाहता हूं। यह सुन उसने अपने शरीर को तत्क्षण ही ब्रम्हा को दान कर दिया। ब्रम्हाजी उसके शरीर पर वर्षों यज्ञ संपन्न करते रहे, परंतु वह अविचल मृत्यु से दूर था। आखिर इतने कठोर तप के बाद भी कुछ इच्छा नहीं रखना उलटे ब्रम्हा को ही दान देने का साहस उसे पुण्यात्माओं में श्रेष्ठ बना गया था। यही कारण था कि ब्रम्हा भी हैरान हो गये। उन्होंने तब सृष्टि के पालनकर्ता विष्णु को पुकारा। विष्णु जब आए तो उनके चरणों पर गयासुर गिर पड़ा। श्री विष्णु के दर्शन से वह निहाल हो गया। विष्णु ने उससे कहा- वत्स तुम्हारा तप पूर्ण हो गया। मांगों तुम जो चाहो, वह में तुम्हें दूंगा।

उसने गद्गगद्ग कंठ से कहा- “प्रभु मैंने सिर्फ पवित्रता की चाहत रखी है वही मुझे मिले।” विष्णु, भक्त के स्वरों से विव्हल हो गये। कहने लगे. गयासुर तुम परम पवित्र हो, पवित्रतम हो। मेरा वरदान है कि तुम्हारा शरीर जिस क्षेत्र में हैं, जहां तुमने तप किया है, वह भविष्य में तुम्हारे ही नाम से विख्यात होगा। जग इसे गयाधाम कहकर पुकारेगा। वहां जो भी जब अपने पितरों पुरखों का श्राद्ध करेंगे, वे पितर, मृतात्मांए तुम्हारे पवित्रता के अंश से पवित्र हो जायेंगी, और उन्हें मुक्ति मिलेगी। बस तभी से यह मान्यता चली आ रही है कि पितरों का गया में जाकर श्राद्ध करने से उनकी आत्मायें मोक्ष को प्राप्त हो जाती हैं। इसी कारण वहां एक बार श्राद्ध कर्म करने के बाद दुबारा श्राद्ध करने की आवश्यकता नहीं होती है।     

पितृपक्ष आने के पूर्व घर की साफ सफाई लिपाई पुताई की जाती है। कहा जाता है कि पितृपक्ष के पूरे पन्द्रह दिनों के दौरान पूर्वजन मृतकों की आत्माएं अलग -अलग दिनों में पहुंचती हैं। जिसकी मृत्यु जिस तिथि को हुई होती हैं उसका श्राद्ध उसी तिथि करते हैं। वे उसी तिथि को पहुंचते हैं पर कुछ तिथियां भी नियत हैं जैसे सप्तमी और अष्टमी के दिन घर के पुरुष मृतात्माओं के आने का दिन माना गया है। नवमी के दिन छोटी बड़ी स्त्री आत्माओं का आगमन होता हैं। चौदहवें तिथि को बच्चों कुंवारों आदि की आत्मा आती है।         

 पितृपक्ष के प्रथम दिन में पितरों के आगमन हेतु पूजा पाठ कर उनकी आत्मा की संतुष्टी हेतु एक स्वच्छ स्थान पर उनके मनपसंद पकवान रखे जाने प्रारंभ कर दिये जाते हैं। प्रतीक स्वरुप पशुपक्षियों को भी खिलाये जाते हैं, उनके खा लेने पर आत्माओं ने भोग स्वीकार कर लिया माना जाता है कहा गया है कि पितृपक्ष के दौरान घर अनाज आदि से भरापूरा रहना चाहिये, जिससे बरक्कत होती हैं ऐसा नहीं होने पर आने वाली मृतात्माएं कुपित होती हैं। पद्रहवें दिन सभी पितरों के नाम से हवन कर पूरे पन्द्रह दिनों के फूल फल इत्यादि को एकत्र करें और जलाशयों में विसर्जित कर दिया जाता है। पूजाविधि इस पक्ष के दौरान नित्य प्रातः उठकर घर को स्वच्छकर स्नान करें। एवं एक स्वच्छ स्थान पर गोबर लीपकर चौक (गेंहू के आटे से) बनाकर उसे फूलों से सजाते हैं । फिर, एक आसन में बैठकर तर्जनी ऊंगली कुशा लेकर अपने पितरों का नामोच्चार करते हुये उन्हें जल अर्पित करते जाते हैं। . इसके पश्चात चंदन, हल्दी, रोली, फूल फल एवं उनके मनपसंद पकवानों के साथ चावल उड़द दाल, तिल, गुड़ शक्कर चढ़ाते है फिर अग्नि देकर धूप करते हैं। इस प्रकार पूजा विधि संपन्न होती है।

error: Content is protected !!