कहा: आज के युग में इंसान गुरु की पहचान नहीं कर पाता है, आज तो गुरु शिष्य का नाता भी स्वार्थ का रह गया।
— दुनिया को नहीं अपने आप को जीतने वाला ही शूरवीर है : कंवर साहेब
सत्संगी बनने के लिए खूबियां धारण करनी पड़ती है और खूबिया बिना सतगुरू के धारण नहीं होती : कंवर साहेब

चरखी दादरी/राजगढ़ जयवीर सिंह फौगाट,

24 सितंबर, शूरवीर वो नहीं जो दुनिया जीत ले शूरवीर तो वो है जो अपने आप को जीत ले। अपने आप से जीतना सत्संग सिखाता है। सत्संग इंसान के जीवन को सँवारता है। सत्संग इंसान को पाप कर्मों से निकाल कर भक्ति की ओर लगाता है। जब तक आपमें पवित्रता नहीं है, अच्छे गुणों की कद्र नहीं है तब तक आप में भक्ति की योग्यता नहीं आ सकती। यह सत्संग विचार परमसन्त सतगुरु कंवर साहेब जी महाराज ने राजगढ़ के चुरू रोड पर स्थित राधास्वामी आश्रम में प्रकट किए। हुजूर कंवर साहेब ने कहा कि सत्संगी बनना आसान नहीं है। इसके लिए अनेको खूबियों को धारण करना पड़ता है। ये खूबियां बिना सतगुरु धारण किए नहीं आ सकती। दुसरो की बुराइयों को नहीं अपनी अच्छाइयों को देखो। उन्होंने फरमाया कि सब चीजों को भूलो लेकिन परमात्मा के नाम को ना भूलो। मत भूलो कि काल बिल्ली की तरह दांव लगाए बैठा है। जब भी आप गफलत में आओगे काल झपटा मारेगा। पल पल कीमती है इसको बिना लापरवाही के परमात्मा के मार्ग में व्यतीत करो। इस जीवन में आये तो भलाई के, परोपकार के काम करना सीखो।

हुजूर ने कहा कि हम भक्ति भी सांसारिक ख्वाहिशो को पूरा करने के लिए करते हैं। अगर परमात्मा का ख्याल हम परमात्मा को पाने के लिए करे तो दुनियादारी की सारी चीज तो हमें वैसे ही मिल जाएंगी। उन्होंने बताया कि सत्संग का असर भी केवल भगवत प्रेमियों पर ही होता है। जो सतगुरु के प्रेमी हुए है वो तो लाखों वर्षो से इस जगत में अमर हो गए। उनका जीवन हमें प्रेरणा देता है। निजामुद्दीन औलिया का प्रसंग बताते हुए गुरु महाराज जी ने कहा कि सन्तो की रमज को समझने वाले को समझ आ जाती है। सन्त का वचन कभी पलटता नहीं है। उसका परिणाम भी सुखद ही होगा लेकिन डांवाडोल वृति वाले सन्त वचन पर टिक नहीं पाए और इस काल भंवर में बह गए। निजामुद्दीन के पास एक गरीब आकर अपनी बेटी के ब्याह के लिए मदद मांगने लगा। निजामुद्दीन ने उसे अपनी जुतिया दे दी। गरीब मन ही मन कोसते हुए चल पड़ा। आगे से निजामुद्दीन का गुरुमुख शिष्य अमीर खुसरो अपने लाव लश्कर के साथ आ रहा था। खुसरो ने गरीब आदमी से उसकी उदासी का कारण पूछा और गुरु की जूतियों के बदले 70 ऊंट और हीरे जवाराहत दे दिये। केवल गुरुमुख ही गुरु की रजा को समझता है। आज के युग में इंसान गुरु की पहचान नहीं कर पाता है। आज तो गुरु शिष्य का नाता भी स्वार्थ का रह गया।

उन्होंने फरमाया कि राधास्वामी मत के तीसरे गुरु महर्षि शिवरतलाल के शिष्य फकीरचंद महाराज का अपने गुरु में इतना विश्वास था कि उन्होंने अपने जीवन मे अपनी नौकरी, अपने परिवार और दूसरी चीजों पर तरजीह हमेशा गुरु को ही दी। एक समय जब महर्षि जी के सारे शिष्य उन्हें छोड़ कर जाने लगे तब भी फकीरचंद नहीं गए। शिववृतलाल जी ने कहा कि फकीर तू भी जा। फकीरचंद जी ने कहा कि मैं आपको छोड़ कहाँ जाऊंगा आपके सिवा मेरा कौन है। उसी फकीरचंद ने बाद में हजारों जीवो को भक्ति के मार्ग पर डाला। आर्य समाज के प्रवर्तक दयानन्द सरस्वती ने भी आर्य धर्म को चला दिया। अगर आपकी लग्न पक्की तो दुनिया बहुत छोटी हो जाती है। गुरु महाराज जी ने कहा कि रामचरित मानस में तुलसीदास जी कहते है कि होवे वही जो राम रची राखा फिर भी हम अपने आप पर अभिमान करते हैं। परमात्मा की रजा में रहना सिख लो। वो परीक्षाएं लेता है और जो उसकी परीक्षाओ में पास हो जाता है वो उसका हो जाता है। एक अभ्यासी की लगन ऐसी होनी चाहिए जैसे चकवे की होती है, पानी ले जाने वाली पनिहारी की होती है। अपने मन को ऐसे टिकाना सीखो जैसे नट अपनी वृति को एकाग्र करके एक पतली रस्सी पर चल पड़ती है। वैसे ही आप भी अपनी वृतियों को गुरु में एकाग्र कर लो। जैसे पनिहारी अपने सिर पर घड़े पर घड़ा रख कर उसे बिना हाथ लगाए चलती है लेकिन पानी नहीं छलकने देती वैसे ही आप भी अपने गुरु में अपने आप तल्लीन कर लो ताकि सांसारिक भाव छलकने ना पाएं। जैसे रेत में बिखरी चीनी को नन्ही चींटी छांट लेती है वैसे ही अपने आप को अभिमान रहित कर लघु (छोटे) बन जाओ कि जीवन का सार छांट लो।

हुजूर कंवर साहेब ने फरमाया कि सन्त कभी किसी का पर्दा नहीं हटाते। वे भोले भाले बने रहते है। विद्या के घमंड में लोग उन्हें साधारण इंसान समझते हैं। लेकिन जो उनको पहचान लेता है उसका कल्याण हो जाता है। उन्होंने बताया कि तीन तरह के गुण हैं। सतोगुण, रजोगुण, और तमोगुण। ये गुण आपके भोजन से, आपकी संगति से और आपके आस पास के वातावरण से पनपते हैं। जैसी आपकी रहनी होगी वैसे ही गुण आप धारण करते चले जाओगे। सुमति अनेको सुखों की वाहक है और कुमति अनेक दुखो की। गुरु महाराज जी ने कहा कि बाहर के झगड़ो से कहीं बड़ा झगड़ा तो हमारे अंतर में चल रहा है। अनेको नशों की गिरफ्त में आकर हम अपना सामाजिक आर्थिक और आध्यात्मिक नुकसान करते हैं। उन्होंने कहा कि जिस हिंदुस्तान को संस्कृति और संस्कारों की जमीन कहा जाता था। आज वहां इतने विकार कैसे पैदा हो गए। ये विकार आये हमारी जीवन शैली से। हम ना सिर्फ अपना वर्तमान बिगाड़ रहे हैं बल्कि अपनी संतान के रूप में अपना भविष्य भी अंधकारमय बना रहे हैं। उन्होंने कहा कि निष्कपट बनो। हृदय में दया और प्रेम रखो। नेक काम करो। घरों में प्यार और शांति बनाओ।

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