हिसार : ”संसार की रचना अणु-परमाणुओं से हुई है। इसकी जानकारी हजारों वर्ष पूर्व सबसे पहले ऋग्वेद से प्राप्त हो गई थी। ऋग्वेद संसार का सबसे पुराना ग्रन्थ है जिसमें परमाणु, ऊर्जा और ब्रम्हान्ड आदि का ज्ञान विस्तार से उपलब्ध है। इसलिए वैदिक ज्ञान का आधार मूलत: वैज्ञानिक है। इस तथ्य की पुष्टि महान् वैज्ञानिकों आईसंस्टीन व स्पिनोज़ा आदि ने अपने अनुसन्धान में भी की है।” ये शब्द वैदिक संस्कृति केन्द्र के संस्थापक अध्यक्ष देवेन्द्र उप्पल ने ”अध्यात्म का वैज्ञानिक आधार” विषय पर वानप्रस्थ सीनियर सिटीजन क्लब में बोलते हुए कहे।

इससे पहले क्लब के महासचिव डा: जे . के . डाँग ने श्री देवेंद्र उप्पल जी का स्वागत करते हुए कहा कि श्री देवेंद्र उप्पल वैदिक संस्कृति केंद्र के अध्यक्ष हैं और उन्हें राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सम्मानित किया जा चुका है। उन्होने वेदों और उपनिषदों का गहन अध्ययन किया है । क्लब के सदस्यों की ओर से एक पौधा भेंट कर उन्हें सम्मानित किया गया।

श्री उप्पल ने बताया कि वर्तमान समय में जो वैज्ञानिक हेड्रॉन कोलाइडर में अणुओं को तोड़ कर जिस ईश्वर तत्व (God Particle) ढूंढने का प्रयास कर रहे हैं उसे हमारे ऋषि मुनियों ने प्रयोगशाला के स्थान पर सूक्ष्मतर माध्यम आत्मा में अनुभव किया था क्योंकि परम तत्व जिसे परमचेतना कहना ज्यादा उचित होगा ब्रम्हाण्ड में सूक्ष्मतम: है। आइसंटीन ने थ्योरी आफ रिलेटिविटी देने के साथ-साथ ईश्वरीय सत्ता को भी स्वीकार किया था। स्पिनोज़ा ने अपनी रिसर्च में बताया कि प्रकृति के नियमों में बदलाव नहीं होता और परमसत्ता नित्य, सर्वव्यापक और सर्वज्ञ है। वेदों की रचना किसी मनुष्य ने नहीं की और इसके तथ्य अकाट्य हैं। यही कारण है कि संयुक्त राष्ट्र संघ ने ऋग्वेद को वर्ल्ड – हेरिटेज में शामिल किया है। यदि वेद मन्त्रों का आधार सत्यता और तत्त्वमीमांसा (मेटाफिजिक्स) के सिद्धान्त न होते तो आज अमेरिकी संसद व अन्य विदेशी सस्थानों में इनकी गूंज नहीं होती। पारलौकिक (ट्रांसडेन्टल) अस्तित्व, आत्मा और परमचेतना का प्राचीनतम ज्ञान वेदों में है। इस आध्यात्मिक ज्ञान को हमारे ऋषि मुनियों ने ”नेति-नेति” कहा है अर्थात् इस विस्कृत ज्ञान का कोई अन्त नहीं है। मानवीय जीवन में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष चार पुरूषार्थ हैं और इनकी सफलता वैदिक ज्ञान में ही निहित है।

संगोष्ठी में भाग लेते हुए कई जीव- वैज्ञानिक सदस्यों ने ईश्वर के अस्तित्व पर ही प्रश्न चिन्ह लगा दिए । उन्होने चार्ल्स डार्विन की क्रमिक विकास ( विकासवाद ) का उल्लेख करते हुए कहा कि क्रमिक परिवर्तन तथा इसके फल स्वरूप नई जाति के जीवों की उत्पत्ति होती है । दूरदर्शन के पूर्व निदेशक श्री अजीत सिंह ने संगोष्ठी में भाग लेते हुए कहा कि प्राचीन काल से विचारकों और वैज्ञानिकों में परमात्मा के अस्तित्व पर मतभेद रहे हैं और सब ने इसे अपने ढंग से प्रस्तुत किया है । श्री अजीत सिंह ने इस विषय पर विस्तृत चर्चा करने पर बल दिया।

उप्पल जी ने इन संशयों का उत्तर देते हुए कहा कि संसार में दो प्रकार की वस्तु है-एक है अणु और दूसरा है विभु। अणु की जांच तो हम कर सकते हैं, लेकिन विभु की जांच नहीं कर सकते। इसीलिए हमारे प्राचीन संतों ने परमात्मा को विभु कहा। परमात्मा का तो अर्थ ही होता है, जो अति विराट हो, संपूर्ण शक्तियों से विभूषित हो। जैसे भगवान शब्द का प्रयोग करते है।ं भग-वान। भग का अर्थ है अनंत शक्ति, अनंत ऐश्वर्य, अनंत शांति, सुख, समृद्धि और आयु। जिनके पास ये तमाम शक्तियां हों, उसे भग कहते हैं और उसके स्वामी को भगवान कहते हैं। इस तरह परमात्मा का अर्थ हुआ अनंत दिव्य शक्तियों से विभूषित प्रकाश पुंज। उसी प्रकाश पुंज से दिव्य विभूतियां ब्रह्मांड में अवतरित होती हैं। ये शक्तियां अरूप बनकर जब पृथ्वी पर उतरती हैं, तो क्षिति, जल, पावक, गगन और समीर के संयोग से स्वरूप ग्रहण कर लेती हैं। उन्होंने कई उदाहरण दे कर बताया कि परमात्मा सर्व शक्तिमान है , सर्वज्ञ एवं अनन्त है । वही इस ब्रह्मांड को रचियता एवं पालनहार है । वही परमशक्ति है । इसे कोई ब्रह्म , विष्णु , शिव एवं प्रकृति की संज्ञा देते हैं ।

दो घंटे से अधिक चली इस रोचक संगोष्ठी में डा: अमृतलाल खुराना, डा : हेमराज शर्मा , डा: पुष्पा खरब, डा: पुष्पा सतीजा , श्रीनरेश बंसल सहित 30–से अधिक सदस्यों ने भाग लिया। अंत में डा: जे . के. डाँग ने इस आध्यात्मिक विषय को सरल शब्दों में व्याख्या करने के लिये देवेंद्र उप्पल जी का सब सदस्यों की ओर से धन्यवाद किया।

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