पहले मालिकों व संपादकों को पाठकों की जरूरत होती थी
आज कुछ अखबारों को छोड़ दें तो ज्यादातर को ग्राहकों की जरूरत है

अशोक कुमार कौशिक

पश्चिम बंगाल की राजनीतिक राजधानी कोलकाता को यूं ही देश की सांस्कृतिक राजधानी नहीं कहा जाता है, इसके पीछे कई महत्त्वपूर्ण कारण हैं, जिसमें से प्रमुख है- ‘उदन्त मार्तण्ड’।

‘उदन्त मार्तण्ड’ यानी हिंदी का पहला समाचार-पत्र, जो कोलकाता से प्रकाशित हुआ था। इसीलिए कोलकाता को हिंदी पत्रकारिता की जननी या जन्मभूमि भी कहा जाता है। पंडित जुगल किशोर शुक्ल के संपादन में 30 मई 1826 को देश का पहला हिंदी अखबार ‘उदन्त मार्तण्ड’ प्रकाशित हुआ, हालांकि आर्थिक तंगी के कारण आठ पृष्ठ का यह साप्ताहिक अखबार डेढ़ साल से अधिक नहीं चल पाया और 4 दिसम्बर 1827 को आखिरी अंक निकला।

हर मंगलवार को प्रकाशित होने वाला ‘उदन्त मार्तण्ड’ पुस्तकाकार में छपता था। इसमें विभिन्न शहरों की सरकारी क्षेत्रों की नाना प्रकार की गतिविधियां प्रकाशित होती थी और उस समय की वैज्ञानिक खोजें व आधुनिक जानकारियों को भी स्थान दिया जाता था। एक जमाने में पत्रकारिता मिशन हुआ करती थी। बदलते समय के साथ-साथ पत्रकारिता ने व्यवसाय का रूप लिया। कहना गलत नहीं होगा कि समाज को सच व झूठ का आईना दिखाने के बजाए कई समाचार-पत्र इन दिनों किसी विशेष व्यक्ति याक कंपनी, पार्टी या नेता को सच्चा व झूठा साबित करने में जुटे हैं।

वहीं, इससे ठीक उलट ‘उदन्त मार्तण्ड’ की खबरों को उस वक्त इतना प्रामाणिक माना जाता था कि गवर्नमेंट गजट द्वारा उसमें से खबरें लेकर हू-ब-हू प्रकाशित की जाती थीं। अंग्रेजों के जमाने में ‘उदन्त मार्तण्ड’ को डाक में छूट की सुविधा उपलब्ध नहीं थी, जिसका वितरण पर असर पड़ता था, वहीं मिशनरी अखबार ‘समाचार दर्पण’ को ऐसी रियायत मिलती थी। नतीजनन आर्थिक दिक्कत पैदा हो गई। उन पर दफ्तर और छापाखाना का 80 रुपए किराया बकाया हो गया। उनके अखबार और छापाखाना को जब्त कर लिया गया। अपने महज डेढ़ साल के जीवन में भले ही ‘उदन्त मार्तण्ड’ बंद हो गया, लेकिन न पत्रकारिता धर्म से समझौता किया और न ही नैतिक मूल्यों से। हिंदी के पत्रकारों ने आजादी की लड़ाई में जितनी ईमानदारी से जिस तरह की भूमिका का पालन किया, वह वर्तमान समय के पत्रकारों में नहीं दिखता। ‘उदन्त मार्तण्ड’ के बाद बंगदूत (1829), प्रजामित्र (1834), बनारस अखबार (1845), मार्तड पंचभाषीय (1846), ज्ञानदीप (1846), जगदीप भास्कर (1849), मालवा अखबार (1849), साम्यदन्त मार्तड (1850), मजहरु लसरूर (1850), सुधाकर (1850), बुद्धिप्रकाश (1852), ग्वालियर गजेट (1853), समाचार सुधावषर्ण (1854), प्रजाहितैषी (1855), सर्वहितकारक (1855), दैनिक कलकत्ता (1855), जगलाभचिंतक (1861), प्रजाहित (1861), सूरजप्रकाश (1861), सर्वोपकारक (1861), भारतखंडामृत (1864), तत्वबोधिनी पत्रिका (1865), सत्यदीपक (1866), सोमप्रकाश (1866), ज्ञानप्रदायिनी पत्रिका (1866), ज्ञानदीपक (1867), कविवचनसुधा (1867), वृत्तांतविलास (1867), धर्मप्रकाश (1867), विद्याविलास (1867), वृत्तांतदर्पण (1867), विद्यादर्श (1869), ब्रह्मज्ञानप्रकाश (1869), अलमोड़ा अखबार (1870), आगरा अखबार (1870), बुद्धिविलास (1870), हिंदू प्रकाश (1871), प्रयागदूत (1871), बुंदेलखंड अखबर (1871), प्रेमपत्र (1872) और बोधा समाचार (1872) प्रकाशित हुआ, इसलिए 1826 से 1873 तक को हम हिंदी पत्रकारिता का पहला चरण कह सकते हैं। 1873 में भारतेन्दु ने ‘हरिश्चंद्र मैगजीन’ की शुरु आत की। एक वर्ष बाद यह पत्र ‘हरिश्चंद्र चंद्रिका’ नाम से चर्चित हुआ। आज के दौर में किसी भी अखबार में पत्रकारों की भर्ती के लिए न तो कोई परीक्षा होती है और न ही इस क्षेत्र में उनकी योग्यता को परखा जाता है।

किसी जमाने में धन कमाना और नाम कमाना पत्रकारों का मकसद नहीं होता था। आचार्य देवीदत्त शुक्ल, बाबू राव विष्णु राव पराड़कर, गणोश शंकर विद्यार्थी, अंबिका प्रसाद वाजपेयी, पंडित युगल किशोर शुकुल और शिव पूजन सहाय का नाम इस संदर्भ में विशेष रूप से लिया जा सकता है। इन लोगों को सामाजिक मुद्दों की पत्रकारिता के लिए जाना जाता था, लेकिन आज सामाजिक सरोकार की पत्रकारिता लुप्त हो गई है। पत्रकारों के लिए केवल राजनीतिक मुद्दे ही रह गए हैं। जब कभी राजनैतिक विषयों का अभाव दिखता है तभी आज के पत्रकार दूसरी खबरों पर गौर करते हैं। पहले की पत्रकारिता उद्देश्यपूर्ण थी, उनका ध्येय पैसा कमाना ही नहीं था। आज की पत्रकारिता का उद्देश्य अधिक से अधिक अखबार बेचना और धन कमाना है। इसके लिए वे समय-समय पर उपहार वाले अनेक आकषर्क प्रस्ताव देते हैं। ऐसा नहीं कि आज से पहले कभी ऐसा नहीं हुआ है, लेकिन तब मुख्य ध्येय पत्रकारिता ही थी। पहले अखबारों के मालिकों व संपादकों को पाठकों की जरूरत होती थी, लेकिन आज कुछ अखबारों को छोड़ दें तो ज्यादातर को ग्राहकों की जरूरत हो रही है। यह अति दुर्भाग्यपूर्ण है।

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