पूजा गुप्ता

परिवार के भरण-पोषण वाली कई गतिविधियों में ग्रामीण लड़कियों की हिस्सेदारी होती है हालांकि इसे मजदूरी नहीं माना जाता है। शहरी या उपभोग वस्तुओं के उत्पादन की तरह इनका मूल्य नहीं चुकाया जाता है। उन्हें अक्सर भुला दिया जाता है। अतः बाल मजदूरी की परिभाषा के दायरे में रहकर अनेक अध्ययन लड़कियों के पारिवारिक कामों को बाल मजदूरी से अलग रखते हैं। फिर भी कई अर्थों में ऐसा विभाजन इन कामों के सामाजिक एवं आर्थिक पहलुओं को नजरअंदाज करता है। इसका एक कारण यह है कि आर्थिक सिद्धांतों में ऐसे कामों की कोई गिनती नहीं की जाती है हालंकि गरीब परिवारों की अर्थव्यवस्था की यह गतिविधियां प्रभावित करती है।

लड़कियों के मामले में यह चुप्पी और भी रहस्यमयी होती है क्योंकि उनके द्वारा किये जाने वाले कार्यों को स्त्री-सुलभ कार्यों की श्रेणी में शामिल किया जाता है। ग्रामीण समुदायों में लड़कियों के कार्यों के अध्ययन अक्सर उनके काम की संरचना अथवा उनसे जुड़े मतलबों को नजरअंदाज करते हैं। पांच साल की बच्ची भी कैसे खेत पर अपने छोटे-भाई बहिन को संभालते हुए पक्षी भगाने का काम करती है या पानी लाती है। यह दृश्य गाँवों में आम है। आठ साल की आयु में लड़की का योगदान औरत के बराबर पहुँच जाता है। लिंग भेद पर आधारित घर की दिनचर्या से लड़कियाँ बचपन में ही रूबरू हो जाती हैं। वे इसे अपनी नियति मान लेती हैं। और इसी परिणामस्वरूप उन्हें समाज के आर्थिक कार्यो से काटकर रखा जाता है और उनके पारिवारिक कार्यों को बच्चे पालना या घर की देखभाल को निचले दर्जे का स्थान दिया जाता है। ग्रामीण अर्थव्यवस्था में लड़कियों का काम इतना कम दृश्य है कि अक्सर उसका अस्तित्व ही भुला दिया जाता है। दायरे में लड़कियों में कार्यों को देखा जाये तो यह आभास हो जायेगा कि बालिका का कार्य मजदूरी के कितना नजदीक है।

भारतीय परिस्थिति में कुछ लड़कियाँ पारिवारिक इकाइयों में काम करती हैं जबकि अन्य दिहाड़ी पर काम करती हैं। उन्हें उनके काम की प्रकृति के आधार पर अलग-अलग वर्गीकृत किया गया है। घरेलू कार्य, अनुबंधित कार्य, वैतनिक श्रम, गैर घरेलू तथा गैर मौद्रिक कार्य। माता-पिता की निम्न तथा अनियमित आय, परिवार की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति बच्चों को काम करने के लिए तथा पारिवारिक आय में पूरक बनने के लिए बालिकाएं मजदूरी करती है। भारत में सामजिक आर्थिक स्थितियां तथा माता-पिता एवं नियोजकों का रवैया भारत में बालिका मजदूरों की दयनीय दशा की जिम्मेदार हैं। वे दबावपूर्ण स्थितियों में काम करती है जो कई बार जानलेवा भी होता है। आयु वर्ग के हिसाब से लड़कों की अपेक्षा लड़कियाँ श्रम बाजार में कम उम्र में प्रवेश करती हैं। जहाँ 20 वर्ष से कम आयु की 20 प्रतिशत लड़कियाँ मजदूर हैं वहीँ लड़कों में यह प्रतिशत 14 है। 5-14 साल के बीच की भारतीय लड़कियाँ श्रमशक्ति में बड़े पैमाने पर विद्यमान है। उनमें से कुछ मजबूर है या अनुबंधित है तथा यहाँ तक कि कुछ को चकलाघरों में बेच दिया जाता है। भिन्न-भिन्न आर्थिक तथा सामाजिक-सांस्कृतिक परिस्थितियों के अंतर्गत लड़की को वस्तु के रूप में देखा जाता है उसे सस्ते श्रम का स्रोत तथा समाज पर बोझ समझा जाता है। श्रमिक बालिकाओं के आंकड़े समस्त अनुबधित मजदूर निर्माण मजदूर, घरेलू नौकरानी, बागान मजदूर और अन्य अपरिचित क्षेत्रों के श्रमिकों का व्यापक प्रतिविम्ब है।

सन 1991 के जनसांख्यिकी आंकड़ों के अनुसार शहरी क्षेत्रों की अपेक्षा ग्रामीण क्षेत्रों में बालिका मजदूरों की संख्या अधिक है। कुल श्रमिक बालिकाओं का 90% ग्रामीण क्षेत्रों में रहता है जबकि सिर्फ 10% शहरी क्षेत्रों में विद्यमान है। शहरी क्षेत्रों में कार्यरत बालिकाएँ समान्यतः स्लम बस्तियों तथा झोपड़ी पट्टी इलाकों में रहती हैं और ऐसे परिवारों से सम्बन्ध रखती है जिनकी आर्थिक स्थिति बहुत ख़राब होती है । असंगठित क्षेत्रों में वे बड़ी संख्या में काम करती हैं । नेशनल कमीशन ऑन लेबर के अनुसार बच्चों का रोजगार विशेषकर लड़कियों का रोजगार संगठित क्षेत्रों ,जैसे सूत कातना, बुनना, पत्थर तोड़ना, गारमेंट सिलाई, हेन्डीक्राप्ट पेंट बनाना और सड़क निर्माण के कार्यों में भिन्न-भिन्न में दिखाई देता है। देह व्यापार में बालिकाओं का शोषण सर्वज्ञात है। भारत में बाल वेश्यावृत्ति तेजी बढ़ रही है और यहाँ कम उम्र की लड़कियों की मांग बढ़ रही है। धार्मिक स्थलों पर बलिका भिखारिनें बड़ी संख्या पायी जाती है। भिखारियों के परिवार में बच्चे आय का सबसे बड़ा स्रोत होते हैं भारत के सात बड़े शहरों में फुटपाथ पर रहने वाले बच्चों की संख्या काफी है। एवं उनमें से बहुत सी निराश्रित तथा अनाथ लड़कियाँ है जो बालिका मजदूरों का अन्य समूह बनाती है जिसके बारे में बहुत कम जाना जाता है। उन्हें या तो गैंग के सदस्यों द्वारा काम पर लगाया जाता है या फिर कुछ समाज-विरोधी समूह सामान छीनने, जेब काटने आदि कार्यों में उनका उपयोग करते हैं। इस रूप में उनका श्रम गैंग के नेता अथवा मालिकों द्वारा इस्तेमाल किया जाता है।

अनौपचारिक क्षेत्रों में लड़कियाँ बड़ी संख्या में कार्यरत है। बड़ी संख्या में लड़कियाँ घरेलू कामगार के रूप में कार्यरत हैं जिसे जनसांख्यिकी आंकड़ों में नहीं दिखाया जाता। हालाँकि बालिका मजदूर हर जगह मौजूद है तब भी ग्रामीण तथा शहरी क्षेत्रों में इसकी व्यापकता को सूचित करने वाले सही आंकड़े विद्यमान नहीं है। अतः बालिका मजदूर सम्बन्धी अधिक आंकड़ों की आवश्यकता है। श्रमिक बालिका मूलतः सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों की प्रबलता का परिणाम है जिससे वे उनके अधिकारों तथा आवश्यकताओं से वंचित हो जाती हैं। लड़कों की अपेक्षा लड़कियों को लघु कार्यों में संलग्न दिखाया जाता है। लड़कियों के लिए काम का चयन करते समय परिवार के सदस्य, रिश्तेदार, दोस्त तथा परिचितों द्वारा विशेष ध्यान रखा जाता है। मालिकों द्वारा लड़कियों का अत्यधिक शोषण किया जाता है जो उन्हें घर अथवा कार्यस्थल से बाहर काम करने पर बहुत कम पैसे देते हैं।

1981 के जनसांख्यिकी आंकड़े दर्शाते हैं की लगभग 15 साल की उम्र की 100 में से एक लड़की शहरी क्षेत्रों में मजदूरों का कार्य करती है। जबकि ग्रामीण क्षेत्र में सौ में से चार लड़कियाँ मजदूरी का काम करती है। ईन सब नियम कानून पारित होने के बाद भी ग्रामीण बालिकाएं शोषण का शिकार हो रही है जिनके उत्थान के लिए स्पष्ट कोई कानून नहीं है। आज भी कार्य के नाम पर लड़कियों को बेच दिया जाता है और बंधुआ बना दिया जाता है। बेहद सोंचनीय स्थिति है।

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