भगत सिंह थे असाधारण युवा क्रांतिकारी….वे सिर्फ शहीद नहीं है, उन्होंने एक नए भारत का ही नहीं एक नई दुनिया का ख़्वाब देखा था

जस्टिस सैय्यद आगा हैदर जिन्होंने “शहीद भगत सिंह” को “फांसी नहीं लिखी”, बल्कि “अपना इस्तीफा लिख दिया
भगत सिंह की दुर्लभ जेल नोट आज तक ना तो बुद्धिजीवियों तक पहुंचा है और ना ही उसे जन -जन तक पहुंचाया गया
उसकी फोटो कॉपी नई दिल्ली के तीन मूर्ति स्थित जवाहर लाल नेहरू मेमोरियल म्यूजियम एंड लाइब्रेरी में सुरक्षित है
भगत सिंह  की हकीकत को दफन करने की कोशिशें

अशोक कुमार कौशिक 

आज जस्टिस सैय्यद आगा हैदर याद आते हैं जिन्होंने “शहीद भगत सिंह” को “फांसी नहीं लिखी”, बल्कि “अपना इस्तीफा लिख दिया। जस्टिस आग़ा हैदर ” यह नाम सहारनपुर के उन जज साहब का था l जिन्होंने भगतसिंह और उनके साथियों सुखदेव और राजगुरू को सज़ा से बचाने के लिए गवाहों के बयानों और सुबुतों की बारीकी से पड़ताल की थी। जस्टिस आग़ा हैदर साहब की यह इस बात की ताकीद करता है कि उस दौर में मुसलमानों का भारत की आजादी में महत्वपूर्ण अवदान था जिनकी राष्ट्रभक्ति पर आज की सरकार यकीन नहीं करती। 

यह भी याद रखें कि भगत सिंह के खिलाफ गवाही देने वाले दो व्यक्ति कौन थे? जब दिल्ली में भगत सिंह पर अंग्रेजों की अदालत में असेंबली में बम फेंकने का मुकद्दमा चला तो उनके साथी बटुकेश्वर दत्त के खिलाफ शोभा सिंह ने गवाही दी और दूसरा गवाह था शादी लाल। इन दोनों को वतन से की गई गद्दारी के लिए अंग्रेज़ों से न सिर्फ सर की उपाधि मिली बल्कि और भी बहुत इनाम मिला था। शोभा सिंह को दिल्ली में बेशुमार दौलत अंग्रेजों से मिली थी। आज कनाट प्लेस में सर शोभा सिंह स्कूल में कतार लगती है बच्चो को प्रवेश तक नहीं मिलता है। शादी लाल को बागपत के नजदीक अपार संपत्ति मिली थी। आज भी शामली में शादी लाल के वंशजों के पास चीनी मिल और शराब कारखाना है। सर शादीलाल और सर शोभा सिंह, भारतीय जनता कि नजरों मे सदा घृणा के पात्र रहे।ये देश के गद्दार थे।

वर्तमान सरकार आज भगत सिंह को तो अपना आईकान बनाने की कोशिश में लगी है किंतु उन्हें भारत रत्न नहीं मानती।वजह बताते हैं कि वे अपनी योजना में सफल नहीं हुए जबकि उन्होंने फांसी का फंदा गले लगाने की पूर्ण कार्ययोजना बनाई थी। जिससे युवाओं का ख़ून खोले और वे इस दिशा में आगे बढ़ें। आज उन्हें आईकान बनाने पर उतारू सरकार युवाओं  को उनकी वैचारिकी से प्राप्त विरासत से वंचित  करने का उपक्रम कर रही है । वह उन्हें  शहीदे आज़म  तक सीमित  रखना चाहती है जबकि भगत सिंह भारतीय क्रांति के अग्रदूत  थे तथा वे कुसंस्कार वा अंधविश्वास  से मुक्त थे । वैज्ञानिक समाजवाद की ओर भगत सिंह का झुकाव होने के कारण उन्होंने नौजवान भारत सभा का नाम बदलकर हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन बनाई थी । भारत में सामाजिक क्रांति और लोकतांत्रिक व्यवस्था का लक्ष्य लेकर चले थे ।

 भगत सिंह सिर्फ शहीद ही नहीं, बहुत बड़ी क्रांति के दार्शनिक थे । हम मनुष्य के जीवन को पवित्र समझते हैं हम ऐसे उज्जवल भविष्य में विश्वास रखते हैं। जिसमें प्रत्येक व्यक्ति पूर्ण शांति एवं स्वतंत्रता का उपभोग करेगा हम मानव रक्त बहाने के लिए अपनी विवशता पर दुखी हैं। परंतु क्रांति द्वारा सबको समान स्वतंत्रता देने और मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण को समाप्त करने के लिए क्रांति में कुछ व्यक्तियों का बलिदान अनिवार्य है। इंकलाब जिंदाबाद” ये शब्द उस पर्चे के हैं जो असेंबली में बम फेंकते समय भगत सिंह के साथी बटुकेश्वर दत्त ने दी थी । यह घटना 8 अप्रैल 1929 को हुई थी । उस बम का धमाका और यह विस्फोटक शब्द आज उन दिमागों में धमाका पैदा करते हैं जो भगत सिंह के सपनों के भारत को साकार होते देखना चाहते हैं।

 समाज में श्रमिकों एवं पूंजी पतियों के बीच की समानताओं के बारे में भगत सिंह ने बताते हुए 6 जून 1929 को दिल्ली के सेशन जज की अदालत में बयान देते हुए कहा था- यह भयंकर विषमतायें और विकास  के अवसरों की कृत्रिम समानताएं समाज को अराजकता की ओर ले जा रही हैं । यह परिस्थिति सदा के लिए नहीं बनी रह सकती, इसलिए  क्रांतिकारी परिवर्तन की आवश्यकता है। जो लोग इस आवश्यकता को महसूस करते हैं उनका यह कर्तव्य है कि वह समाज को समाजवादी आधार पर पुनर्गठित करें । जब तक मनुष्य द्वारा मनुष्य का शोषण जारी रहेगा  तब तक एक राष्ट्र का भी दूसरे द्वारा शोषण  होगा जिसे साम्राज्यवाद कहा जाता है |तब तक उससे उत्पन्न होने वाली पीड़ा और अपनों से मानव जाति को नहीं बचाया जा सकता एवं युद्ध को मिटाने तथा शांति के  के युग का सूत्रपात करने के बारे में की जाने वाली चर्चाएं पूरा पाखंड है ।

आज उनकी याद इसलिए भी आती है कि चारों ओर मज़हबी मसलों के कारण लोकहित एवं राष्ट्रहित की बातें बहुत पीछे छूट गई है |तर्क, बुद्धि और विवेक पर पर्दा डालने की कोशिशें हो रही हैं । उन्होंने साफ तौर पर कहा था कि मजहबी वहम और तास्सुब (विद्वेष) हमारी उन्नति के रास्ते में बड़ी उलझन है। उन्हें उखाड़ फेंकना चाहिए क्योंकि सांप्रदायिकता ने हमारी रुचि को तंग दायरे में कैद कर लिया है । इस तंग दायरे से निकलने के लिए उन्होंने बार-बार सलाह दी जब तक दिमागी गुलामी से मुक्त नहीं हो जाओगे तब तक नए समाज के सृजन का सपना बहुत दूर होगा ।

धर्म की कट्टरता और उसकी तंग दिली पर वे कहते हैं कि सभी लोग एक से हों, उनमें  पूंजीपतियों के ऊंच-नीच की, छूत -अछूत का कोई विभाजन ना रहे |लेकिन सनातन धर्म इस भेदभाव के पक्ष में है 20 वीं सदी में पंडित, मौलवी भंगी के लड़के से हार पहनने पर कपड़ों सहित स्नान करते हैं अछूतों को जनेऊ देने से इंकारी  है |गुरुद्वारे जाकर जो सिख राज करेगा खालसा गाये और बाहर आकर पंचायती राज की बात करें इसका क्या मतलब है? इस्लाम धर्म कहता है इस्लाम में विश्वास न करने वाले काफिर को तलवार के घाट उतार देना चाहिए और इधर एकता की दुहाई दी जाए तो परिणाम क्या होगा ? हम जानते हैं कि अभी कई आयतें और मंत्र बड़ी उच्च भावना से पढ़कर खींचतान करने की कोशिश की जाती है पर सवाल यह है कि इन सारे झगड़े से छुटकारा ही क्यों ना पा लिया जाए ?

धर्म का समाज सामने खड़ा है और हमें लोकहित में समाजवादी प्रजातंत्र कायम करना है ऐसी हालत में हमें धर्म विरुद्ध ही सोचना पड़ेगा यह बतलाना ही पड़ता है कि हम नास्तिक क्यों हैं ? हम नास्तिक इसलिए हैं कि हम तर्क और बुद्धि का सहारा लेते हैं । विवेक और विज्ञान के जरिए अज्ञान के अंधकार को खत्म करना चाहते हैं यह अंधकार जब समाप्त होगा तभी समाज में जागृति आएगी और नयें समाज के निर्माण का रास्ता बनेगा ।

इस सामाजिक जागृति के लिए साहित्यिक जागृति का होना अनिवार्य है उन्हें रूसो, मैजिनी ,गैरीबाल्डी,बाल्टेयरऔर टालस्टाय के साहित्य  की खबर थी। वो कोरे राजनीतिज्ञ नहीं थे उन्हें विश्व इतिहास  और साहित्य का पर्याप्त ज्ञान था दोनों के रिश्ते से भी वाकिफ थे  तभी तो कहते थे कि सबसे पहले साहित्यिक जागृति पैदा करनी होगी केवल गिनती के कुछ व्यक्तियों में नहीं, सर्वसाधारण में जनसाधारण में, सामाजिक जागृति पैदा करने के लिए उनकी भाषा में  साहित्य जरूरी है। साहित्यिक जागृति,जनशिक्षा और जनभाषा इन तीनों के आपसी रिश्ते और उनके महत्व को समझा जा सकता है। ऐसी  कोशिशों की मांग हर जागरण एवं नवजागरण पर होती रही है।

भगत सिंह को याद करने का मतलब है ,साहित्यिक जागृति की ज्योत को ना बुझने देना भी है। हमारे साहित्य को इस बात की गांठ बांध लेना चाहिए कि समझौतों, पुरस्कारों और मीडिया की चकाचौंध से भरी इस दुनिया में जागृति के इसी मार्ग पर चलना है और साहित्य की मशाल को जलाए रखना है । मशाल का जलाए रखना इसलिए भी जरूरी है क्योंकि इससे निरंतर नवीन सृजन का मार्ग प्रशस्त होता है एक ऐसा सृजन जो सर्वथा नवीन हो ,मौलिक हो और गुणात्मक रूप से भी श्रेष्ठ हो । ऐसी रचनाओं के जरिए हम सतत गतिशील संस्कृति में नई सार्थक चीजें जोड़ पाते हैं । तभी संस्कृति भी हमें मदद पहुंचाती है ।हमारे संघर्ष और आंदोलन को परवान चढ़ाती है । जो विद्वान कहते हैं कि साहित्य और संस्कृति चिल्लाने से कुछ नहीं होगा उन्हें गहराई तक जाकर पता लगाना चाहिए कि बिना साहित्यिक जागृति और सांस्कृतिक आंदोलन के क्या कोई क्रांति संभव हुई है? भगत सिंह को इन सब चीजों की खबर थी उन्होंने साफ तौर पर लिखा है -संस्कृति के निर्माण के लिए उच्च कोटि के साहित्य की आवश्यकता है और ऐसा साहित्य एक सांझी और उन्नत बोली के बिना रचा नहीं जा  सकता।

अफसोस  की बात यह है ,कि भगत सिंह की दुर्लभ जेल नोट आज तक ना तो बुद्धिजीवियों तक पहुंचा है और ना ही उसे जन -जन तक पहुंचाया गया है, परिणाम सामने है। भगत सिंह  की हकीकत को दफन करने की कोशिशें चल रही है श्री सत्यम के संपादन में लखनऊ के राहुल फाउंडेशन द्वारा सन 2006 में मुद्रित एवं प्रकाशित भगत सिंह और उनके साथियों के संपूर्ण उपलब्ध दस्तावेज को हमारे सभी युवा व क्रांतिकारी विचार वाले लोगों को पढ़ना चाहिए इसी में 404 पृष्ठों की डायरी भगत सिंह द्वारा लिखी गई महत्वपूर्ण राजनीतिक व दार्शनिक नोट्स मुद्रित है। उसकी फोटो कॉपी नई दिल्ली के तीन मूर्ति स्थित जवाहर लाल नेहरू मेमोरियल म्यूजियम एंड लाइब्रेरी में सुरक्षित है। भगत सिंह ने जेल में रहकर अपनी डायरी में कार्ल मार्क्स वा फेड्रिक एंगेल्स  द्वारा 1848 में लिखित कम्युनिस्ट घोषणापत्र ,रूसी साहित्यकार मैक्सिमम गोर्की ,दार्शनिक वार्टन्ड रेल, प्रसिद्ध अंग्रेजी कवि विलियम वर्ड्सवर्थ लेनिन,रूसो, रवींद्रनाथ ठाकुर जैसे कितने महान चिंतकों की पुस्तकों को पढ़कर नोट्स लिए थे।

रूसी विद्वान एल॰वी॰ मित्रोखिन सन 1977 में भारत आकर भगत सिंह के भाई कुलबीर सिंह के पास उस जेल नोटबुक को पाने के बाद उसी को आधार बनाकर लेनिन एंड इंडिया पुस्तक लिखी थी । प्रोफेसर विपिन चंद्र के शोध निबंध 1920 के दशक में उत्तर भारत में क्रांतिकारी आतंकवादियों की विचारधारा का विकास ए॰जी॰ नूरानी की पुस्तक दी ट्रायल आफ भगत सिंह , प्रख्यात कम्युनिस्ट नेता और भगत सिंह वा उनके साथी इन सब में हमें भगत सिंह की इस  विरासत की जानकारी मिलती है।   

 रहा सवाल, भगत सिंह के सपनों को साकार करने का तो उनके विचारों और आंदोलन धर्मी तत्वों की पहचान और समायोजन बहुत जरूरी है आंदोलन की ज्योत जलाए रखने के लिए धैर्य और संजीदगी की भी जरूरत है इस संबंध में भगत सिंह का अनुभव बड़े काम का है । आंदोलनों के उतार-चढ़ाव के बीच प्रतिकूल वातावरण में कभी ऐसे क्षण भी आते हैं ,एक-एक कर सभी हमराही छूट जाते हैं ,बिछड़ जाते हैं उस समय मनुष्य सांत्वना के दो शब्दों के लिए तरस जाता है। ऐसे क्षणों में भी विचलित ना होकर जो लोग अपनी राह नहीं छोड़ते, इमारत के बोझ से जिनके पैर नहीं लड़खड़ाते  , कंधे नहीं झुकते ,जो तिल तिल कर अपने आप को इसलिए गलाते हैं  कि दिए की जोत  मद्धिम  ना हो ,  सुनसान डगर पर अंधेरा ना छा जाए ऐसे ही लोग मेरे सपनों को साकार बना सकेंगे। 

भगतसिंह को ग़लत साबित करने वाले और उनसे प्रेरित देशवासियों को चाहिए कि वे उन्हें पढ़ें वे सिर्फ शहीद नहीं है। उन्होंने एक नए भारत का ही नहीं एक नई दुनिया का ख़्वाब देखा था। वह आज पूरी तरह तिरोहित होने की कगार पर है उसे बचाना होगा।बढ़ते फाज़िस्म के ख़तरों से निपटने उनके विचारों को अंगीकार करना होगा। अंत में प्रेसीडेंसी जेल की दीवार पर पत्थर के टुकड़े से कई पंक्तियां जिस बंदे ने लिखी थी उन्हें भगत सिंह के सपनों के साथ नौजवान पीढ़ी को अर्पित करती हूं — तुम लोग खामोश रहो /यहां सोया हुआ है मेरा भाई /मुरझाया दिल उदास चेहरा लिए उसे मत पुकारो /क्योंकि वह खुद ही मुस्कान जो है /फूलों सी उसकी देह मत ढको / फूल पर फूल चढ़ा कर क्या फायदा /अगर हो सके/ तो उसे अपने दिल की गहराई में रख लो /देखोगे/ दिल में परिंदों की चह चह से तुम्हारा सोया हुआ दिल जाग उठेगा /अगर हो सके तो/ आंसू देना /देना अपने बदन का सारा खून | ज़िंदादिल जुझारू कामरेड साथी भगतसिंह को क्रांतिकारी लाल सलाम।

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