मोदी चाहते हैं न्यायपालिका में भी एकाधिकार जजों की नियुक्ति में सरकार की हिस्सेदारी होना कितना सही, जानिए वरिष्ठ वकीलों की राय अशोक कुमार कौशिक देश में सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट में जजों की नियुक्ति के लिए बनाए गए कॉलेजियम सिस्टम को लेकर सरकार और सुप्रीम कोर्ट एक बार फिर आमने-सामने आ गए हैं। दोनों की तरफ से इस मामले को लेकर जो बयान सामने आ रहे हैं उससे ये तो साफ है कि ये कि ये लड़ाई अधिकार क्षेत्र की है। एक तरफ जहां सुप्रीम कोर्ट चाहती है कि जजों का चयन में केंद्र सरकार का कोई रोल ना हो। उनका चयन कॉलेजियम सिस्टम के जरिए किया जाए। वहीं दूसरी तरफ सरकार भी इस जुगत में है कि संविधान का हवाला और शक्तियों का इस्तेमाल कर कोलेजियम की सिफारिशों को ज्यादा से ज्यादा समय तक रोका जा सके। सरकार चाहती है कि चयन समिति में एक सरकार का प्रतिनिधि हो। इसके पीछे सरकार की मंशा साफ है कि उसकी सिफारिश पर चयनित व्यक्ति उसके नीतियों के अनुसार काम करेगा। इससे स्पष्ट होता है कि सरकार के द्वारा चयनित व्यक्ति कभी सरकार के खिलाफ जा नहीं सकता। ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर ये कॉलेजियम सिस्टम है क्या और जजों की नियुक्ति में सरकार का हस्तक्षेप होना कितना सही और गलत हैं। सबसे पहले जानते हैं कैसे काम करता है कॉलेजियम सिस्टम? जजों की नियुक्ति के लिए कॉलेजियम सिस्टम को साल 1993 में लागू किया गया था । सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस के साथ 4 वरिष्ठ जज इस कॉलेजियम सिस्टम का हिस्सा होते हैं। आसान भाषा में समझे तो कोलेजियम सिस्टम केंद्र सरकार से जजों की नियुक्ति और उनके ट्रांसफर की सिफारिश करता है। हालांकि इस सिस्टम के जरिए जजों की नियुक्ति का जिक्र न हमारे संविधान में है, न ही इसका कोई कानून संसद ने कभी पास किया है। कॉलेजियम सिस्टम में केंद्र सरकार की केवल इतनी भूमिका होती है कि अगर किसी वकील का नाम हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट में जज बनाने के लिए बढ़ाया जा रहा है, तो सरकार इंटेलिजेंस ब्यूरो से उनके बारे में जानकारी ले सकते हैं। केंद्र सरकार कोलेजियम की ओर से आए इन नामों पर अपनी आपत्ति जता सकता है और स्पष्टीकरण भी मांग सकता है। अगर कॉलेजियम सरकार के पास एक बार फिर उन्हीं नामों को भेजता है, सरकार उन्हें मानने के लिए बाध्य होती है। कानून मंत्रालय से मंजूरी मिलने के बाद राष्ट्रपति की मुहर से जजों की नियुक्ति हो जाती है। संविधान के इस अनुच्छेद में किया गया है जजों की नियुक्ति का वर्णन संविधान के अनुच्छेद 124(2) और 217 में सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय में जजों की नियुक्ति की प्रक्रिया के बारे में बताया गया हैं । इस अनुच्छेद के अनुसार जजों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है। हालांकि नियुक्ति से पहले राष्ट्रपति का सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों और उच्चाधिकारियों के साथ परामर्श करना जरूरी है। क्यों चर्चा में है कॉलेजियम सिस्टम इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट के अनुसार हाल ही में सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के कॉलेजियम से दो जजों के नाम वापस कर दिए थे। ये दोनों जज हैं अनिरुद्ध बोस और ए एस बोपन्ना। सरकार का दोनों जजों के नाम को लौटाने के पीछे का तर्क ये था कि इन दोनों न्यायाधीशों से वरिष्ठ कई दूसरे जज अन्य उच्च अदालतों में सेवारत हैं। हालांकि सुप्रीम कोर्ट के कॉलेजियम ने दोबारा दो और जजों के नामों के साथ इन दोनों जजों का नाम भी वापस सरकार के पास भेज दिया। कॉलेजियम सिस्टम को लेकर ताजा बहस नवंबर 2022 को शुरू हुई। उस वक्त केंद्रीय कानून मंत्री किरेन रिजिजू ने जजों की नियुक्ति करने की पूरी प्रक्रिया को ही ‘संविधान के खिलाफ’ बता दिया। उन्होंने कहा था, ”मैं न्यायपालिका या जजों की आलोचना तो नहीं कर रहा हूं लेकिन सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम की वर्तमान प्रणाली से खुश नहीं हूं। कोई भी प्रणाली सही नहीं है । हमें हमेशा एक बेहतर प्रणाली की दिशा में प्रयास करना और काम करना है।” रिजिजू ने आगे कहा कि जजों के नियुक्ति की प्रक्रिया को और पारदर्शी होने की जरूरत है और अगर कोलेजियम सिस्टम पारदर्शी नहीं है तो इसके बारे में कानून मंत्री नहीं तो कौन बोलेगा। किरेन रिजिजू के इस तरह के बयान पर आपत्ति जताते हुए सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस संजय किशन कौल ने भी उन पर पलटवार किया। उन्होंने कहा, “हो सकता है कि आपको किसी क़ानून से शिकायत हो लेकिन जब तक वो कानून लागू है तब तक उसका सम्मान होना चाहिए। अगर आज सरकार किसी कानून को नहीं मानने की बात कर रही है, कल को किसी अन्य क़ानून पर लोग सवाल उठाते हुए उसे मानने से इनकार कर देंगे।” जजों की नियुक्ति में सरकार की हिस्सेदारी होना कितना सही जजों की नियुक्ति में सरकार की हिस्सेदारी होना कितना सही है इस सवाल के जवाब में सुप्रीम कोर्ट के वकील विराग गुप्ता कहते हैं, “सरकार ने न्यायपालिका में जब इमरजेंसी के समय दखलअंदाजी की थी उसके बाद सुप्रीम कोर्ट संविधान की न्यायिक व्याख्या करके कॉलेजियम सिस्टम लाया गया. लेकिन आज यह व्यवस्था पूरी तरह फेल है. जजों को किसी भी तरह सियासत से दूर रखा जाना जरूरी है. हालांकि ये भी गलत है कि जज ही जजों की नियुक्ति करेंगे. जजों की निष्ठा संविधान के लिए होनी चाहिए, न कि किसी व्यक्ति के लिए.” सीनियर एडवोकेट दीपक गुप्ता का कहना है कि इस विषय पर दोनों पक्ष में चर्चा होनी चाहिए और एक व्यवहारिक रास्ता अपनाया जाना चाहिए। यह कहना गलत होगा कि कॉलेजियम व्यवस्था पर सरकार का कुछ कहने का अधिकार नहीं है। वहीं दूसरी तरफ ये भी नहीं कहा जा सकता कि सरकार चुपचाप कॉलेजियम की सिफारिशें ही मानी जाए। कॉलेजियम में दिए गए जजों के नाम पर सरकार को अगर आपत्ति है और उनके पास इसका प्रमाण और आधार भी हो तो कॉलेजियम को भी सरकार की बात को मानना चाहिए। ताजा मामला उपराष्ट्रपति धनखड़ उठाया गया। वहीं हाई कोर्ट वकील विशाल के मुताबिक सरकार कॉलेजियम की सिफारिश को कितने समय तक लंबित रख सकती है। इसकी भी समय सीमा तय की जानी चाहिए और इसका भी ख्याल रखा जाना चाहिए कि अगर सरकार किसी जज के नाम के सिफारिश पर आपत्ति जता रही है तो इसका क्या कारण है। क्या खत्म किया जा सकता है कॉलेजियम सिस्टम? कॉलेजियम सिस्टम को खत्म करने के लिए केंद्र सरकार को संवैधानिक संशोधन करने की जरूरत होगी। जिसके लिए केंद्र सरकार को संसद के दोनों सदनों लोकसभा और राज्यसभा में होने वाली वोटिंग में दो-तिहाई सांसदों का बहुमत मिलना चाहिए । इसके साथ ही इस संशोधन को देश के कम से कम आधे राज्यों के समर्थन की भी जरूरत होगी। फिलहाल की स्थिति को देखते हुए कहा जा सकता है कि केंद्र सरकार के लिए ये मुमकिन नहीं है। Post navigation हाड़ कंपाने वाली सर्दी के बीच धरने पर बैठे बुजुर्ग और युवा राजनीतिक लाभ के लिए सरकारी एजेंसियों का दुरुपयोग