भारत सारथी/ऋषि प्रकाश कौशिक

गुरुग्राम। आजादी के अमृत महोत्सव में हम कहां पहुंचे हैं? यह विचार करने पर ध्यान आता है कि अंगे्रजों के जमाने में तो नहीं पहुंच गए? उस जमाने में भी चंद लोग राज करते थे और अनेक उनकी बिरदावली गाते थे। और वह बिरदावली गाने वाले समाज पर रौब जमाते थे। कुछ ऐसी ही स्थिति वर्तमान में भी नजर आती है। हर पार्टी में कोई न कोई सुप्रीमो है और कार्यकर्ताओं के नाम पर उनके साथ उनके बिरदावली (उनके गीत गाने वाले) ही नजर आते हैं और देखने में बिरदावली गाने वाले ही संगठन में पद पाते हैं। 

आदर्श स्थिति यह है कि कोई भी राजनैतिक पार्टी अपनी नीतियों पर चलती है और हर पार्टी की अपनी-अपनी नीतियां होती हैं। और जो नीतियों के समर्थक होते हैं, वही उस पार्टी के अनुयायी होते हैं परंतु आजकल ऐसा लगता है कि नीतियों का कोई महत्व रह नहीं गया है। अपने-अपने लाभ के लिए लगातार दल-बदलकर सरकारें बनाई और बिगाड़ी जा रही हैं। प्रश्न यह है कि जो आदमी किसी अन्य पार्टी में उसकी नीतियों के अनुसार चल रहा है तो वह एकदम कैसे दूसरी पार्टी में उसकी नीतियों पर चल पाएगा?

नीम न मीठा होये, चाहे सींचो गुड से।

स्वभाव न बदला जाए चाहे जाओ जी से।

वर्तमान समय में राजनीति में यह बात प्रमाणित हो रही है कि जो व्यक्ति चापलूसी, चमचागिरी में निपुण होता है, वह उसका गुण है और उसी गुण के चलते हुए वह पार्टियां बदलकर भी दूसरी पार्टी में उच्च पद पाने में सफल  होते हैं। और इसके चलते जो पार्टी में सत्य, निष्ठा और कर्म से जुड़े हुए कार्यकर्ता होते हैं, वह अपने आपको उपेक्षित महसूस करते हैं और ऐसी स्थिति में वह निष्क्रिय होकर बैठ जाते हैं। ऐसी स्थिति मैं किसी एक पार्टी की नहीं कह रहा। वर्तमान में लगभग सभी पार्टियों में यही स्थिति है। 

अमृत महोत्सव पर यदि गंभीर चिंतन किया जाए तो ऐसी स्थिति देश के लिए लाभदायक नहीं, हानिकारक है। आम जनता उपेक्षित है, क्योंकि पदासीन नेता का पहला लक्ष्य जनता के बारे में जानना नहीं, अपितु अपने आकाओं को प्रसन्न करना होता है और उपेक्षित जनता त्रस्त है। उनके अंदर का गुबार समय-समय पर फूटता दिखाई भी दे जाता है। डर है कि कहीं जनता खुद संगठित होकर राजनेताओं के विरूद्ध खड़ी न हो जाए।

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