कमलेश भारतीय लेखक अपनी दुनिया खुद बनाता है । अपने से लेखन शुरू जरूर करता है लेकिन अपने साथ खत्म नहीं करता बल्कि समाज के साथ खड़ा होता है । दुख अकेला नहीं आता , सुख अकेला नहीं आता बल्कि सब इसमें शामिल होते हैं । लेखक समाज में निराशा फैलाने नहीं आता । बड़ी जिम्मेदारी है लेखक की । यह कहना है प्रसिद्ध लेखिका ममता कालिया का । कादम्बिनी में कुछ वर्ष पहले इनका उपन्यास प्रिंसिपल के अनुभवों के आधार पर प्रकाशित हुआ था तब से इनके फोन पर बात होने लगी और फिर चरखी दादरी के काॅलेज में पहली मुलाकात भी हुई जब मैंने इन्हें ‘भाभी जी’ कहा तो चौंक गयीं । मैंने बताया कि जालंधर के पास ही नवांशहर का रहने वाला हूं तो रवींद्र कालिया जी भाई हुए कि नहीं ? और आप हमारी भाभी जी । वे तब से मेरी भाभी जी ही हैं । एक दर्जन उपन्यास , पंद्रह कथा संग्रह और तीन काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं । एक काव्य संग्रह अंग्रेजी में भी । ‘जीते जी इलाहाबाद’ इनकी बेस्ट सेलर कृति है जिसके दो संस्करण मात्र 28 दिन में ही बिक गये । आजकल गाजियाबाद में रहती हैं । मूल रूप से मथुरा की निवासी ममता कालिया का जन्म वृंदावन के कन्या मिशनरी अस्पताल में हुआ और तीन साल तो कूचा पातीराम के हैप्पी स्कूल में पढ़ाई की और फिर पापा विद्या भूषण अग्रवाल की जाॅब लग गयी दिल्ली के श्रीराम काॅलेज में । फिर वे गाजियाबाद के इंटर कालेज में प्रिंसिपल हो गये । तीन साल बाद वे आकाशवाणी में अधिकारी हो गये । मेरी ग्रेजुएशन इंदौर से हुई क्योंकि पापा की ट्रांस्फर वहीं आकाशवाणी में हो गयी थी । फिर दिल्ली आ गये तो दिल्ली यूनिवर्सिटी के हिंदू काॅलेड से एम ए इंग्लिश की । वहीं दौलताबाद काॅलेज में इंग्लिश की लैक्चरर भी नियुक्त हुईं सन् 1965 में ही । पापा की तरह । और यही वो साल था जब रवींद्र कालिया से चंडीगढ़ की पंजाब यूनिवर्सिटी के हिंदी विभाग के आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी और इंद्रनाथ मदान द्वारा आयोजित ‘कथा सवेरा’ में हमारी पहली मुलाकात हुई जो तकरार से चली और प्यार पर खत्म हो गयी । दरअसल वहां पढ़े गये मेरे लेख की प्रसिद्ध आलोचक नामवर सिंह ने प्रशंसा की । दिन भर मुझसे रवींद्र कालिया ने कोई बात तक नहीं की । मुझे गुस्सा भी बहुत आया । फिर हम एकसाथ बस में दिल्ली के लिए चले तब मोहब्बत की बजाय हमारे मतभेद ज्यादा थे । हम किसी भी बात पर सहमत न थे । बहस ही करते दिल्ली पहुंचे और इतनी देर हो गयी थी कि मेरे घर की ओर ऑटो न मिल रहा था । फिर हम एक ऑटो में ही सुबह चार बजे तक बैठे रहे और बहस चलती रही , वे सिगरेट फूंकते रहे , बहस करते रहे । सुबह अपने अपने घर पहुंचे । दूसरे दिन रवींद्र कालिया मेरे काॅलेज के गेट पर मिले । इस तरह मिलना मिलाना चलता रहा और दिसम्बर 1965 तक मैं ममता अग्रवाल से ममता कालिया बन गयी । दोनों दिल्ली में ही नौकरी करते थे ।रवींद्र भी उन दिनों ‘भाषा’ पत्रिका में उपसंपादक थे । विपरीत किनारों में जो दोस्ती होती है वह बड़ी पक्की होती है । -फिर अलग अलग कैसे ?-वे अकहानीकार थे तो मैं अकवि । -फिर मुम्बई कैसे पहुँचे ?-‘धर्मयुग’ से धर्मवीर भारती बुला रहे थे । दस इंक्रीमेंट देकर बुला लिया और मेरी नौकरी इनके साथ ही छूट गयी । फिर मुम्बई नौकरी की । -इसके बाद इलाहाबाद कैसे ?-वहां रवींद्र ने इलाहाबाद प्रेस खोल ली थी । बस । फिर वहां एक काॅलेज में 28 साल प्रिंसिपल रही । -पहले पहल कहां प्रकाशित हुईं ?-इंदौर के समाचारपत्रों में कविताएं । लहर के संपादक प्रकाश जैन ने बहुत कुछ लिखवाया । मेरा हाथ खोला । -कौन से कवि पसंद हैं ?-निराला , दिनकर , भवानी प्रसाद मिश्र, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना , अब के दौर के अरूण कमल , आशुतोष दूबे और अनामिका आदि । -पहला कथा संग्रह कौन सा आया ?-इलाहाबाद के लोकभारती प्रकाशन से ‘छुटकारा’ । यशपाल द्वारा संपादित उत्कर्ष में कहानी आई , रमेश बक्षी के आवेश में भी आई । अब तक कुल पंद्रह कथा संग्रह आ चुके हैं । -आपकी इन दिनों कौन सी किताब चर्चित है ?-‘जीते जी इलाहाबाद’ जिसके 28 दिनों में दो संस्करण निकल गये । इससे पहले लिखीं -रवि कथा और दो गज की दूरी । -अब नया क्या लिख रही हैं ?-इन संस्मरणों का द्वितीय खंड । -कुछ मुख्य पुरस्कार/सम्मान ?-राम मनोहर लोहिया पुरस्कार , लमही सम्मान, कलिंगा लिट् फेस्टिवल सम्मान और फिर व्यास सम्मान के अतिरिक्त अनेक सम्मान । -इतने अनुभव और लेखन यात्रा के बाद नये कथाकारों को क्या घुट्टी पिलायेंगीं आप ?-बस । किसी भी बड़ी शक्ति के आगे झुकना नहीं । दबना नहीं । किसी बड़े लेखक के प्रभाव में नहीं रहना ।हमारी शुभकामनाएं ममता कालिया को । Post navigation महाराष्ट्र : कोई अघाड़ी, कोई पिछाड़ी……… राजनिति संभावनाओं का खेल सुप्रीम कोर्ट के वकील कार्तिक संदल बोले, नूपुर शर्मा और कन्हैयालाल का मामला देश के लिए संवेदनशील