-कमलेश भारतीय

दंगों से भरा अखबार मेरे हाथ में है पर नजरें खबरों से कहीं दूर अतीत में खोई हुई हैं ।

धर मुंह में लार टपकती उधर दादी मां के आदेश जान खाये रहते । दीवाली के दिन सुबह से घर में लाए गये मिठाई के डिब्बे और फलों के टोकरे मानों हमें चिढ़ाते रहते । शाम तक उनकी महक हमें तडपा डालती । लेकिन दादी मां हमारा सारा उत्साह सोख डालती, यह कह कर कि कि पूजा से पहले कुछ नहीं मिलेगा । चाहे रोओ , चाहे हंसो ।

हम जीभ पर ताले लगाए पूजा का इंतजार करते पर पूजा खत्म होते ही दादी मां एक थाली में मिट्टी के कई दीयों में सरसों का तेल डालकर जब हमें समझाने लगतीं – यह दीया मंदिर में , यह दीया गुरुद्वारे में और एक दीया किसी चौराहे पर और ,,,,;
हमे ऊब जाते । ठीक है , ठीक है कहकर जाने की जल्दबाजी मचाने लगते । हमें लौट कर मिलने वाले फल -मिठाइयां लुभा रहे होते , तिस पर दादी मां की व्याख्याएं खत्म होने का नाम ही न लेतीं । यही नहीं वे किसी जिद्दी , सनकी अध्यापिका की तरह प्रश्न करतीं – सिर्फ दीये जलाने से क्या होगा ? समझ में भी कुछ आया ?

हम नालायक बच्चों की तरह हार मान लेते । आग्रह करते कि दादी मां आप ही बताइए ।

ये दीये इसलिए जलाते हैं ताकि मंदिर और गुरुद्वारे से तुम एक सी रोशनी , एक सा ज्ञान हासिल कर सको । दोनों में विश्वास रखो । सभी धर्मों में विश्वास रखो । समझे ?

-और चौराहे का दीया किसलिए दादी मां ?

हम खीझ कर पूछ लेते । उस दीये को जलाना हमें बेकार का सिरदर्द लगता । जरा सी हवा के झोंके से बुझ जाएगा । कोई ठोकर मार कर तोड डालेगा । दादी मां जरा भी विचलित नहीं होतीं । मुस्कराते हुए समझाती –

मेरे भोले बच्चो, चौराहे का दीया जलाना सबसे जरूरी है । इससे भटकने वाले मुसाफिर को मंजिल मिल सकती है । और मंदिर गुरुद्वारे कोजोडने वाली एक ही ज्योति की पहचान भी ।

तब हमे बच्चे थे और उन अर्थों को ग्रहण करने में असमर्थ । मगर आज हमे उस चौराहे के दीये की खोज कर रहे हैं , जो हमें इस घनघोर अंधकार में भी रास्ता दिखा दे ।

नोट : यह लघुकथा अपने प्रिय मित्र रमेश बतरा के आग्रह पर सारिका के दीपावली विशेषांक के लिए लिखी थी । क्या सचमुच संपादक का आग्रह आपके अंदर से कुछ लिखवा सकता हैं ? यह उसी का परिणाम हैं ।

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