-कमलेश भारतीय

मैं जड़ की जड़ । वहीं की वहीं खड़ी रह गयी थी । लगा जैसे कोई प्रतिमा बनने का शाप दे दिया हो मुझे । क्या जो सुना वह वही था ? जो सुना वह किसी नाटक का संवाद तो नहीं था । वह तो जिंदगी के किसी खास पल की गूंज थी ।

-यहां मैं डायरेक्टर हूं और मैं ही हीरो । यह नाटक मेरे दम पर है । इस खेल तमाशे का दारोमदार मुझ पर है , तुम पर नहीं । समझीं ।

पहली बार जैसे होश में आई और फिर जड़ की जड़ रह गयी । पहली बार सुनीं नेपथ्य में अपनी छोटी सी बच्ची के रोने की आवाज़ । पहली बार सुनी अपने पति की बात-इन नाटकों में कुछ नहीं रखा । जिंदगी देखो अपनी । नाटकों की झूठी शोहरत से बच्चे नहीं पल सकते । गृहस्थी नहीं चल सकती । लौट आओ । लौट आओ ।

सच । क्या मेरा पति ही सच कह रहा था ? मैं उसे लगातार अनसुना करती थी और उसकी सज़ा आज पाई ? क्या मैं नाटक में कुछ भी नहीं थी ? क्या नाटक मेरे दम पर नहीं था ? क्या नाटक में मेरा कोई मतलब नहीं था ? मैं थी भी और नहीं भी ? यानी मैं होकर भी नहीं थी ? मेरी कोई जरूरत नहीं थी ? मेरा होना कोई मायने नहीं रखता था ? मेरे होने या न होने का कोई फर्क नहीं था । पर मुझे तो था । फिर मैं क्यों इनके साथ चलती रहूं?

वह सभागार जिसमें उस शाम हमारा शो होने वाला था पता नहीं कैसे मैंने वह पूरा किया । बाकी कांट्रैक्ट भी पूरे किए । फिर लौट आई अपने घर । कुछ दिन जैसे समझ ही नहीं आया कि मेरे साथ यह हुआ क्या ? जिसके साथ मैंने शहर दर शहर की खाक छान कर नाटक मंडली को खड़ा किया , जमाया , वही कह गया बड़ी आसानी से -तुम्हें ज्यादा सोचने की जरूरत नहीं । यह नाटक मंडली चलती रहेगी क्योंकि मैं ही हूं इसका निर्देशक और नायक। जैसे कह रहे हों मैं ही हूं खलनायक भी ।

-मैं कुछ भी नहीं ?

-भ्रम में जीना हो तो जी लो । तुम कुछ नहीं ।

यह क्या सुना था मैंने ? क्या यही सुना था मैंने ?

-ठीक है । मैं कुछ नहीं तो अब से और आज से नहीं रहूंगी आपके साथ ।

-मत रहो । चला लूंगा तुम्हारे बगैर । नाटक बंद नहीं हो जायेगा । जाओ ।

-चली जाऊंगी । मैं पैसे के लिए नहीं आई थी आपके साथ । रंगकर्म के लिए आई थी । वह आपके बगैर भी हो सकता है । यह मैं भी साबित कर दूंगी । चैलेंज एक्सेप्टिड ।

एक नारी जागी थी जैसे मूर्छा से । कितनी लम्बी मूर्छा रही । कितने बरस की मूर्छा रही ।

खुद ही ऑफर दिया था । आप हमारे साथ आओ न । मैंने हिम्मत जुटाई । परिवार से लड़ी । सब कुछ सुना जो एक ब्याहता नहीं सुन सकती । सब सहा, पर नाटक मेरा जुनून बन गया । यहां से वहां । वहां से यहां । शहर दर शहर । देस ही नहीं परदेस । नाम । शोहरत । पर पैसा नहीं लिया एक भी । सिर्फ समर्पण । दिया ही दिया । कास्ट्यूम भी अपने खर्च पर । पर मिला क्या ?

-जाओ । वहम में न जीओ । यह ,,,बस यही सुनना था ।

-तो सुनो । मैं भी आपके दम पर नहीं । अपने दम पर आई थी मंच पर । अपने दम पर लौट कर दिखा दूंगी । यह चैलेंज स्वीकार ।

वह लौट आई । वही सारे कास्ट्यूम लेने घर भेज दिए जूनियर आर्टिस्ट जो मेरे ही पैसों से बने थे । मैंने चुपचाप सब सौंप दिए । ले जाओ । खुद बनवा लूंगी । अरे । आप साथ नहीं होंगे तो क्या मंच पर नहीं जाऊंगी ? देखना एक दिन । इस तरह हमारे रास्ते अलग अलग हो गये थे । एक एक शहर में , एक ही संस्थान में हम अजनबी बन कर रह गये थे ।

अंदर एक ज्वालामुखी धधकता रहता । कुछ कर दिखाना है । कुछ कर गुजरना है । इस कर गुजरने की गूंज मन में गूंजती रहती । सवाल यह भी कि नारी की कोई भूमिका नहीं ? क्या कला की दुनिया में नारी सिर्फ शोभा की वस्तु है ? नारी को इतना ही सम्मान है कि हमारी मर्जी से चलो । फिर वह चाहे कला हो या परिवार या समाज ? सब एक ही डंडे से हांकते हैं नारी को या नारी के लिए एक ही डंडा है या पैमाना है ? कहीं कोई बदलाव नहीं ? यह कैसा सशक्तिकरण ? कैसा स्त्री विमर्श ? नारी तो वहीं की वहीं । जस की तस ।

फिर एक आइडिया आया । जैसे मैं कठपुतली बनी रही , क्या मैं कठपुतलियों के साथ नाटक नहीं कर सकती ? पर कठपुतली तो कभी नचाई ही नहीं । खुद कठपुतली बन कर नाचती रही । फिर क्यों न पुरूष पात्रों का काम कठपुतलियों से लिया जाये ? सही भी है । पुरूष को बता सकूं कि मैं नहीं । तुम कठपुतली हो । बस । सीखना शुरू किया । कठपुतली को नचाना । अपनी उंगलियों पर । मेरी बच्ची खुश थी । उसके चेहरे की मुस्कान मेरी जीत थी । मैं घर तो नहीं लौटी पर घर और नाटक के बीच संतुलन बनाना सीख गयी । आज मेरा कठपुतली शो था और मेरा पति सबसे आगे बैठा तालियां बजा रहा था । यह मेरी मंजिल थी ।

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