सुरेश वशिष्ठ

पालकी का पर्दा उठाकर उसने हुस्न की मलिका को देखा। उसकी नजरें झुकी हुई थी और आँखों से आँसुुुुओं की धार बह रही थी। उसके यौवन की चमक देखकर वह हतप्रभ रह गया। आखिर वह हाकिम था। उसके हुक्म पर ही उसे हवेली लाया गया था। उसका रूप-लावण्य गजब का था। खुशी से उसकी आँखों में चमक कौंंध पड़ी। कहारों को उसने उसे अपने हरम में ले जाने का हुक्म सुना दिया।     

 मलिका के पिता को भी उसने ऐसे ही हुक्म सुनाया था–“नहीं मानोगे तो तुम सबकी मौत निश्चित है। इसे मेरे हरम में भेज देना। सोलह श्रृंगार कर भेजना। वहाँ मेरे दिल पर यह राज करेगी।” पिता ने कुछ नहीं बोला था। हाकिम के सामने जमीन पर नजरे गडाए वह चुप खड़ा रहा।

  हुक्म सुनाकर वह और उसके सैनिक वहाँ से चले गए। घोड़ों की टापों की आवाज धीरे-धीरे मंंदिम होती गई और हताश पिता हड़बड़ाकर जमीन पर गिरा और रोने-बिलखने लगा। उसका रोना असह था।               

  रात आई। हुस्न का दीवाना मस्त हुआ। कपडों पर उसने इत्र छिड़का और नई उमंग के साथ हरम में पहुँच गया। मलिका वैसे ही गमगीन बैठी हुई थी। हाकिम ने सुरा-पान किया और खुशी में लहकने-चहकने लगा। फिर मलिका के नजदीक वह खिसका। मोका पाकर अपनी कमर से चुपचाप उसने खुखरी निकाली और हाकिम के सीने में भौंक दी।…एक, दो, तीन, चार–एक साथ कई वार उसने कर दिए। उसकी चीख पहरेदार सुनते, तब तक ढ्योढी से वह नीचे कूद गई।      

 हाकिम की देह कुछ देर छटपटाई और शान्त हो गई।

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