भूपेंद्र हुड्डा के कारण कांग्रेस में निष्ठा और समर्पण की दो कौड़ी की कीमत * तंवर का टीएमसी “मिलन” क्या भाजपा और कांग्रेस पर असर डालेगा?* हुड्डा परिवार के समानांतर दूसरे नेताओं को अहमियत देने का सिलसिला शुरू* क्या धीरे-धीरे सिकुड़ रहा है बीजेपी का जनाधार*क्या आगामी चुनाव में नहीं करेगा मोदी फैक्टर काम?*हरियाणा में लगातार सामने आ रहे हैं विपक्ष के विकल्प अशोक कुमार कौशिक कांग्रेस हाईकमान के कमजोर होने के कारण आज देश के अधिकांश प्रदेशों में “क्षत्रप” नेता “बाहुबली” बन गए और उन्होंने अपने राज्यों में पार्टी के संगठन को शिकंजे में ले लिया है। इसी कारण वे अपने चेलों को महत्वपूर्ण पदों पर बैठाते हैं और कांग्रेस के प्रति समर्पित नेताओं को “खुड्डेलाइन” लगाने का काम करते हैं। कांग्रेस में आलाकमान पर दबाव की राजनीति के चलते कपिल सिब्बल, गुलाम नबी आजाद, भूपेंद्र सिंह हुड्डा, राज बब्बर आदि अनेक नेताओं ने मिलकर एक ग्रुप G_23 बनाया। हरियाणा के पूर्व सीएम भूपेंद्र सिंह हुड्डा ने कुछ समय पहले कहा था कि G-23 नाम की कोई चीज नहीं है और सभी नेता कांग्रेसी हैं। ये सिर्फ मीडिया का बनाया गया एक नाम है और हम सिर्फ कांग्रेस के लिए ही काम कर रहे हैं। हुड्डा ने उन सवालों को भी सिरे से खारिज कर दिया था, जिसमें ये कहा गया कि G-23 का अगला कार्यक्रम हरियाणा के कुरुक्षेत्र में प्लान किया गया है। उन्होंने गुलाम नबी आजाद, कपिल सिब्बल और आनंद शर्मा पर कांग्रेस आलाकमान के द्वारा कार्रवाई किए जाने की खबरों को भी सिरे से खारिज किया था और कहा था कि ऐसी कोई भी बात नहीं है। कांग्रेस के इन बुजुर्ग दिग्गजों ने दबाव की राजनीति से आज भी परहेज नहीं किया है। हरियाणा में भी कांग्रेस की “दुर्गति” का सबसे बड़ा कारण भूपेंद्र हुड्डा की दबाव की राजनीति है। भूपेंद्र हुड्डा की “दबाव की राजनीति” के कारण जहां एक तरफ 7 साल से हरियाणा में संगठन नहीं बन पाया है वहीं दूसरी तरफ पार्टी के प्रति निष्ठा और समर्पण रखने वाले नेताओं को “सम्मानजनक” भागीदारी नहीं मिल पा रही है। हुड्डा जैसे नेताओं की मनमर्जी के कारण ही “स्वाभिमान” वाले नेताओं को कांग्रेस छोड़नी पड़ रही है। हुड्डा जैसे नेताओं की मनमानी के कारण ही कांग्रेस भाजपा के सामने “बौनी” हो गई है और इसलिए वह सत्ता से है। अगर यह सिलसिला नहीं रुका तो कांग्रेसी कभी भी भाजपा के मुकाबले में नहीं खड़ी हो पाएगी और हुड्डा जैसे नेताओं की मनमानी और ब्लैकमलिंग ऐसे ही चलती रहेगी। ऐसे में प्रशांत किशोर की “दशकों तक बीजेपी का राज” रहने की बात सच साबित होती नजर आएगी। यद्यपि कांग्रेस हाईकमान ने हरियाणा कांग्रेस में संतुलन कायम करने की रणनीति को अमलीजामा पहनाना शुरू कर दिया है। हुड्डा परिवार के समानांतर दूसरे नेताओं को बराबर का महत्व देने की कार्य योजना लागू कर दी गई है। इसी कड़ी में गांधी परिवार के विश्वासपात्र बिहार प्रभारी विरेंद्र राठौर को उत्तराखंड चुनाव के लिए स्क्रीनिंग कमेटी का सदस्य बनाया गया है। कुछ समय पूर्व दीपेंद्र हुड्डा को उत्तर प्रदेश चुनाव के लिए स्क्रीनिंग कमेटी का सदस्य बनाया गया था। हरियाणा में राजनीतिक समीकरणों को बराबर रखने के लिए अब विरेंद्र राठौर को उत्तराखंड चुनाव में महत्वपूर्ण जिम्मेदारी दी गई है। भूपेंद्र हुड्डा परिवार को कंट्रोल में रखने के लिए रणदीप सुरजेवाला को राष्ट्रीय महासचिव और राष्ट्रीय मीडिया प्रभारी का दर्जा दिया गया। उसके बाद कुमारी शैलजा को प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया। कुलदीप बिश्नोई को जातीय गणना राष्ट्रीय कमेटी का सदस्य बनाया गया।कांग्रेस हाईकमान यह समझ चूका है कि हरियाणा कांग्रेस में हालात को नियंत्रण में रखने के लिए नेताओं को संतुलन में रखना बेहद जरूरी है। कुछ समय पहले हुड्डा परिवार के दबदबे को कंट्रोल करने के लिए भी दूसरे नेताओं को अहम जिम्मेदारियां दी गई । विरेंद्र राठौर को राष्ट्रीय सचिव के अलावा बिहार जैसे बड़े प्रदेश का प्रभारी बनाया गया। अब उत्तराखंड चुनाव के लिए स्क्रीनिंग कमेटी का सदस्य बनाकर उन्हें दीपेंद्र हुड्डा के बराबर की अहमियत दी गई है। उल्लेखनीय है कि वीरेंद्र राठौर उन चंद नेताओं में शामिल है जिनके साथ हुड्डा परिवार का पिछले डेढ़ दशक से 36 का आंकड़ा चला आ रहा है। विरेंद्र राठौर ने कभी भी हुड्डा परिवार के आगे सरेंडर नहीं किया और गांधी परिवार के साथ नजदीकी रिश्तो के बलबूते पर कांग्रेस की सियासत में अपनी खास जगह बनाए रखी। हुड्डा परिवार ने उनको सियासी तौर पर खत्म करने के लिए हर मुमकिन प्रयास किए लेकिन विरेंद्र राठौर उनकी मार से न केवल खुद को बचाए रखने में सफल रहे बल्कि इसके साथ साथ कांग्रेस की राष्ट्रीय राजनीति में भी अपना खास मुकाम बनाने में भी कामयाब रहे। उत्तराखंड चुनाव में विरेंद्र राठौर को सक्रिनिंग कमेटी में शामिल करके गांधी परिवार ने यह बड़ा संदेश दे दिया है कि एक तरफ जहां पार्टी के निष्ठावान नेताओं को बड़ी जिम्मेदारियां दी जाएंगी वहीं पार्टी हाईकमान को प्रेशर पॉलिटिक्स के जरिए झुकाने वाले नेताओं के बराबर में दूसरे नेताओं को महत्व दिया जाएगा। फिर भी कह सकते हैं कि अभी भी कांग्रेस हरियाणा में भूपेंद्र सिंह हुड्डा के दबाव से मुक्त नहीं हो पाई है।मंगलवार को दिल्ली में दो घटनाक्रम कांग्रेस के अंदरूनी हालात की “कड़वी” सच्चाई को बयान कर रहे हैं। पहला घटनाक्रम- तंवर ने थामा टीएमसी का हाथहरियाणा प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष रहे अशोक तंवर ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस में शामिल हो गए। विधानसभा चुनाव से पहले कांग्रेस को “अलविदा” कहने वाले अशोक तंवर ने अपना भारत मोर्चा बनाया था। अब वह कांग्रेस से ही “निकली” ममता बनर्जी की पार्टी का हिस्सा बन गए है। 5 साल से ज्यादा वक्त हरियाणा कांग्रेस की बागडोर संभालने वाले अशोक तंवर को राहुल गांधी का बेहद नजदीकी होने के बावजूद प्रदेश अध्यक्ष के तौर पर खुलकर काम करने की “आजादी” नहीं मिली। पॉलिटिक्स और प्रदेश प्रभारियों की हुड्डा के साथ “सेटिंग” के कारण अशोक तंवर को पार्टी का संगठन नहीं बनाने दिया गया। अशोक तंवर ने 5 साल के अध्यक्ष पद के कार्यकाल में जितनी मेहनत की उतनी मेहनत भूपेंद्र हुड्डा अपने 50 साल की कांग्रेस पॉलिटिक्स में भी नहीं कर पाए। हुड्डा ने दबाव की राजनीति का खेल खेलते हुए विधानसभा चुनाव से पहले रोहतक में परिवर्तन रैली का आयोजन किया। उनकी “ब्लैकमलिंग” के आगे का कांग्रेस हाईकमान झुक गया। तब हारकर अशोक तंवर को कांग्रेस छोड़नी पड़ी। मंगलवार को जिस तरह से दिल्ली की राजनीतिक में बड़ी उठापटक हुई उसी से हरियाणा की राजनीति में भी भूचाल मचा। हालांकि लोग कयास लगा रहे हैं कि टीएमसी को कोई भी हरियाणा में नहीं जानता। लेकिन कहीं ना कहीं अशोक तवर की शख्सियत को नकारा नहीं जा सकता। इसके बाद हरियाणा की राजनीति में बड़े-बड़े कयास लगाए जा रहे हैं । तंवर का टीएमसी में जाने का सीधा असर बीजेपी पर पड़ेगा, पर कांग्रेसी भी थोड़ा चपेट में आएगी। उत्तर भारत में पिछले एक साल से किसानों के विरोध का भाजपा को जबरदस्त सामना करना पड़ रहा है। भले ही मोदी ने चुनावी दांव चल कर बिल वापसी का ऐलान किया, लेकिन वह उल्टा पड़ता हुआ नजर आ रहा है। किसान न्यूनतम समर्थन मूल्य तथा किसानों के खिलाफ दर्ज मामले वापस लेने से पहले टस से मस नहीं हो रहे। वहीं बीजेपी का चुनावी प्रोपेगेंडा कहीं ना कहीं असफल साबित हुआ तो वहीं दूसरी तरफ दिल्ली के अंदर ममता बनर्जी ने अशोक तंवर को टीएमसी में प्रवेश कराया वह हरियाणा की राजनीति के लिए भविष्य एक बड़ा बदलाव माना जा रहा है। ये तब था जब अशोक तंवर कांग्रेस के प्रति समर्पित थे,गांधी परिवार के प्रति निष्ठावान थे । अशोक तंवर ने कांग्रेस की मजबूती के लिए खूब पसीना बहाया, उन्होंने कांग्रेस के जुझारू कार्यकर्ताओं को आगे बढ़ाने का काम भी किया। इतनी सारी “खूबियों” पर भूपेंद्र हुड्डा की दबाव की राजनीति और सियासी ब्लैकमेलिंग भारी पड़ी जिसके चलते तंवर को कांग्रेस से अलग होना पड़ा। तंवर अगर टीएमसी के साथ आकर खड़े हुए हैं तो इसके पीछे साफ जाहिर है कि हरियाणा में बीजेपी को चौतरफा घेरने की कोशिश की पिच तैयार हो चुकी है। बीजेपी सरकार में जिस तरह से किसानों व पत्रकारों के ऊपर मुकदमे दर्ज करवाए गए हैं, उसे लेकर भी एक कयास लगाया जा रहा है कि विपक्ष इस मामले का फायदा उठा बीजेपी को घेरने का काम करेगा। वहीं दक्षिण हरियाणा की राजनीति में खुद बीजेपी अपनी पार्टी की दो फाड़ कर चुकी है तो वही टीएमसी का हरियाणा में दाखिल होना एक बड़ा बदलाव माना जा रहा है। तंवर ने ऐलनाबाद उपचुनाव में जिस तरह से बीजेपी को हराने के लिए अभय चौटाला का साथ दिया उसे साफ जाहिर है कि आगामी चुनाव की रणनीति बड़े ही कटिबद्ध तरीके से बनाई जा रही है जिसका सीधे-सीधे तौर पर बीजेपी को खामियाजा भुगतना पड़ेगा। दूसरा घटनाक्रम -हुड्डा के चेले बुद्धिराजा बनें हरियाणा युवा कांग्रेस प्रदेश अध्यक्षमिली जानकारी के अनुसार भूपेंद्र हुड्डा और दीपेंद्र हुड्डा के चेले दिव्यांशु बुद्धिराजा का प्रदेश अध्यक्ष बनना इंटरव्यू से “पहले” ही फाइनल हो चुका था महज औपचारिकता करके इंटरव्यू की रस्म निभाई गई। जिसे प्रदेशाध्यक्ष बनाया गया है उसकी “खुबियां” भी जान लीजिए… बुद्धिराजा कांग्रेस के प्रति निष्ठावान नहीं है और न ही कांग्रेस के प्रति समर्पित है। बुद्धिराजा ने कांग्रेस हाईकमान के घोषित किसी कार्यक्रम में कभी भी हिस्सा नहीं लिया। इतना ही नहीं बुद्धिराजा ने प्रदेश कांग्रेस अध्यक्षों के कार्यक्रमों में भागीदारी नहीं की।उन्होंने कांग्रेस की मजबूती के लिए कभी काम ही नहीं किया और तो और बुद्धिराजा गांधी परिवार का शुभचिंतक न होकर हुड्डा के खासम खास हैं। ऐसे नए प्रदेश अध्यक्ष कांग्रेस को कितना मजबूत करेंगे यह तो समय ही बताएगा यह दिगर बात है की हुड्डा ने यदि कांग्रेश छोड़ अपना दल बना लिया तो वह कांग्रेस छोड़ने वाले सबसे पहले व्यक्ति होंगे। कांग्रेस के साथ किसी तरह का कोई लगाव नहीं रखने वाले दिव्यांशु बुद्धिराजा का युवा प्रदेश अध्यक्ष बनना कांग्रेस हाईकमान की कमजोरी और भूपेंद्र हुड्डा के प्रैशर पॉलिटिक्स का “अंजाम” है जिसका प्रत्यक्ष में कांग्रेस को कोई लाभ होता दिखाई नहीं दे रहा। हालांकि अभी चुनाव दूर है लेकिन कहीं ना कहीं हरियाणा में राजनीतिक पृष्ठभूमि की शुरुआत हो चुकी है जिसके चलते समय रहते अगर बीजेपी ने अपनी हठधर्मिता की नीतियों को अपनाकर सही तरीके से कार्य कॉल मी जामा नहीं पहनाया तो आगामी चुनाव में शायद बीजेपी को बड़ा खामियाजा भुगतना पड़े। Post navigation सुशासन व प्रभावी शासन के लिए कर्मचारियों व अधिकारियों को दें उचित प्रशिक्षण – मुख्यमंत्री शराफत और ईमानदारी का ढिंढोरा पिटने वाली भाजपा गठबंधन सरकार हो चुकी है पूरी तरह से बेनकाब: अभय सिंह चौैटाला