क्या सत्ता का लोभ इतना बड़ा होता हैं ‌क्या ?
कुछ किसानों के लिए क्या मोदी करोड़ों किसानों को नुकसान पहुंचा रहे हैं ?
किसानों ने पीएम को झूठा और वादाफरामोश साबित कर दिया
2022 में क्या कुछ खास  होने वाला है….?
उलटा पड़ता दिख रहा है बिल वापसी का दांव

अशोक कुमार कौशिक

सबको घर 2022 तक, सबको बिजली 2022 तक, स्वच्छता अभियान 2022 तक,किसानों की आय दोगुनी 2022 तक, मेक इन इंडिया 2022 तक, स्टार्टअप इंडिया 2022 तक, न्यू इंडिया 2022 तक, आखिर मोदी सरकार की सुई 2022 पर जाकर क्यों अटक जाती है?

इस सवाल का जवाब जानने के लिए 2002 के फ़्लैश बैक में जाना होगा । गुजरात मे दंगे और चुनाव दोनों हो चुके थे। चुनाव जीतने के बाद अगले पाँच साल का एजेंडा तय करने के लिए कैबिनेट की मीटिंग हुई। उस मीटिंग मे मुख्यमंत्री मोदी ने तय कर दिया था कि अब जो भी योजना बनेगी वो अगले 10 साल के लिए बनेगी। पूरी कैबिनेट की पेशानी पर परेशानी थी लेकिन मोदी के चेहरे पर खामोश इत्मिनानी थी।

मोदी जानते थे की 2007 का चुनाव तो वो जीतेंगे ही लेकिन उनकी नजर 2012 के चुनाव पर थी। इसलिए सारी योजनाओं का खाका इस तरह खिंचा गया कि सारी योजनाएं 2012 के इर्द गिर्द पूर्ण हो। लेकिन उसकी  झलकियां 2007 तक दिखने लगे और लोगो का विश्वास बनने लगें चलो कुछ तो हो रहा है और 2012 तक शायद कुछ योजनायें पूरी हो ही जाए ।

2020 तो झाँकी है, अभी  पिक्चर बाकी है

विकास की राजनीति का यह मृग मरीचिका मॉडल गुजरात मे सफलता पूर्वक क्रियान्वित किया गया। मोदी की भावनाओं की राजनीति को हिंदू मुसलमान करने का काम मोदी विरोधी एंटीबायोटिक मीडिया बहुत अच्छे से कर रहा था। उसकी मोदी को कोई चिंता नही थी लेकिन मोदी जानते थे कि हिन्दू मुसलमान करके एक चुनाव जीता जा सकता है और ज्यादा से ज्यादा स्वर्ण मध्यमवर्ग के परसेप्शन को मैनेज किया जा सकता है। लेकिन लगातार चुनाव जितना है तो लोगों के सपनो को जिंदा रखना होगा उन्हें रोज नए सपने दिखाते रहना होगा।

2002 मे गुजरात मे कृषि विकास दर अपने न्यूनतम स्तर पर थी। बिजली पानी का बहुत बड़ा संकट था। औद्योगिक विकास दर पिछड़ रही थी। बहुत बड़ा रोजगार का संकट था।  बहुत कुछ वैसी हालात थी जैसी 2014 में भारत की थी। असल कहानी यही से शुरु होती है।

मोदी ने 2002 में  न्यूनतम सुविधाओं के विकास की आड़ में  घोर पूंजीवादी एजेंड़ा चलाना शुरू किया। सबसे पहले सबको 24 घंटे बिजली,पानी वादा किया गया लेकिन योजना की अवधि थी वही 10 वर्ष, कृषि विकास दर दहाई के अंक में रखने का लक्ष्य रखा लेकिन अवधि वही थी 10 वर्ष ऐसी तमाम गेम चैंजिंग योजनाओं को शुरू तो किया गया। 2002 के बाद लेकिन यह किसी के जानने की कोशिश नही की आखिर क्यों यह सब की सब योजनायें  2012 तक ही अपने अपने लक्ष्य को क्यो छूने की कोशिश क्यो कर रही थी ?

2022 वाली पहेली का हल 2002 से लेकर 2012 तक के मोदी की अर्थव्यवस्था के मॉडल के रहस्यों में मिलेगा। यह जान लीजिए 2022 में यूपी का चुनाव है। एक देश और एक चुनाव की मुहिम का लक्ष्य भी 2022 ही है। और तो और खुद मोदी जी 72 वर्ष के हो जायेगे, जो 75 वर्ष की उनकी स्वघोषित संन्यास उम्र से भी कम है।

उलटा पड़ता दिख रहा है बिल वापसी का दांव

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जब तीन कृषि बिल वापसी की बात सोची होगी, तो कल्पना की होगी कि वे जैसे ही टीवी पर आकर बिल वापसी का ऐलान और किसानों से वापस लौट जाने की अपील करेंगे। किसान उनकी जय-जयकार करते हुए वापस लौटने लगेंगे। आनन-फानन में दिल्ली के चारों तरफ की सड़कें खाली हो जाएंगी। उनका गुणगान होगा वगैरह-वगैरह। मगर जो कल्पना की थी, वैसा कुछ नहीं हुआ बल्कि उल्टा हुआ जिसके बारे में सोचा तक नहीं था। जब किसानों से पूछा गया कि अब तो खुश हैं, वापस जाएंगे या नहीं, तो किसानों ने प्रधानमंत्री मोदी पर अविश्वास जताते हुए कहा कि उनकी टीवी पर कही बातों पर हम यकीन नहीं करते। बताइये पंद्रह लाख रुपये मिले किसीको?

न्यवाद देना और जयकारे लगाना तो दूर किसानों ने उन्हें ही झूठा और वादाफरामोश साबित कर दिया। तीनों कृषि बिल वापसी के ऐलान के बाद भी किसानों का आंदोलन में डटे रहना मोदी की साख के लिए इतना ज्यादा घातक है कि सोचा भी नहीं जा सकता।

लोग सवाल उठाएंगे कि अब तो कृषि बिल वापसी का ऐलान हो गया, अब किसान वापस क्यों नहीं जा रहे। जवाब मिलेगा कि इन्हें प्रधानमंत्री की ज़ुबान पर भरोसा नहीं है, जब तक संसद में बिल वापस नहीं हो जाता तब तक हम नहीं हिलेंगे। यानी किसानों को डर है कि ये शख्स बिल वापसी का ऐलान करके हमें घर भेज सकता है, हमारा आंदोलन खत्म करा सकता है और फिर बिल वापस भी नहीं लेगा। प्रधानमंत्री की विश्वसनीयता पर इससे बड़ा सवाल कोई हो ही नहीं सकता कि वे खुद आए, खुद ऐलान किया, तब भी किसान कह रहे हैं कि नहीं पहले संसद में वापस लो, तुम्हारा क्या भरोसा। और उनके पास दलील यह है कि पहले के वादे कौनसे पूरे हुए?

भाजपा और संघ के लिए यह चिंता का सबसे बड़ा विषय होना चाहिए कि उनके सबसे बड़े पोस्टर बॉय की इमेज पूरी तरह ध्वस्त हो गई है। उसे जनता फरेबी और झूठा समझने लगी है। उसकी किसी बात पर किसी को भी विश्वास नहीं है। तो सबसे पहली बात यह कि बिल वापसी के ऐलान का वैसा स्वागत नहीं हुआ जैसे स्वागत की अपेक्षा थी। देश की जनता यही अनुमान लगा रही है कि पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में हार का खतरा टालने के लिए यह दांव चला गया है।

दूसरा सवाल यह कि क्या बिल वापसी के ऐलान के बाद यूपी, पंजाब, उत्तराखंड और हरियाणा में भाजपा नेताओं का विरोध कम हो जाएगा?

फिलहाल कई जगहों पर भाजपा नेताओं की हालत अछूत की सी है। उन्हें शादियों तक में नहीं बुलाया जा रहा। कोई भी समारोह हो, विरोध करने किसान पहुंच जाते हैं। लखीमपुर में और क्या हुआ था? कृषि बिल वापसी के बाद क्या भाजपा के नेता जनता के बीच जा पाएंगे? इसका जवाब आने वाले कुछ दिनों में हमें मिलने वाला है।

बिल वापसी का दांव उल्टा इसलिए भी पड़ा क्योंकि किसानों की मांग केवल बिल वापसी ही नहीं थी। अगर घोषणा करने आए थे तो कहना था कि सभी मांगे मान रहे हैं। एमएसपी वाली मांग, बिजली अधिनियम में बदलाव की मांग समेत सभी मांगे मानते हुए उन्हें यह ऐलान भी करना था कि किसानों पर लगाए गए सभी केस वापस लिये जाएंगे। उन्होंने होमवर्क नहीं किया। किसानों के मन को नहीं समझा। कम से कम इतना बड़ा निर्णय लेने से पहले किसानों को भरोसे में लेते, चर्चा करते। मगर वो सब तो जैसे आता ही नहीं है।

किसान जानते हैं कि इतना बड़ा और ऐसा एतिहासिक आंदोलन बार बार खड़ा नहीं होता। सरकार एक बार झुकी है तो सारी मांगे मनवानी ही होंगी। इस समय सरकार को जितना दबाया जा सकता है, उतना और कभी नहीं। इस दांव को इसलिए भी हम उल्टा पड़ना कह सकते हैं क्योंकि वो कैडर नाराज है, जो मोदी को भगवान से भी दो उंगल ऊपर समझता है। उस मासूम कैडर को यही समझाया गया था कि ये किसान नहीं गुंडे हैं और उसकी तकलीफ है कि आप गुंडों के समक्ष क्यों झुके? वो निराशा में बागी हो रहा है और उसे संभालना मुश्किल पड़ रहा है।

मोदी के पिछले तमाम फैसलों की तरह यह फैसला भी ब्लंडर ही है। फायदा कम और नुकसान ज्यादा। ना किसान खुश, ना कैडर। किसान झूठा कह रहा है और कैडर कायर। छवि धूमिल हुई सो अलग। फर्क यह है कि अब तक उनके गलत निर्णयों से देश को नुकसान होता रहा है। यह पहली बार है जब सीधे भाजपा और खुद उन्हें नुकसान हो रहा है।

मोदी एक ही वक्त एक ही ज़बान से दो बाते करते है, तब  भरोसा कौन करे

मोदी एक तरफ वह कहते है कि देश भर के किसान इस बिल में उनके समर्थन में है लेकिन कुछ किसानों को मैं समझा नहीं पाया। मतलब अब भी वह मानते है की जबरन‌ पारित कृषि बिल किसानों के हित में है। यदि सैकड़ों संगठनों और करोड़ों किसानों का साथ है तो फिर प्रधानमंत्री इन कुछ किसानों के लिए क्यों करोड़ों किसानों के साथ नाइन्साफी कर रहे हैं ? मोदी एक ही वक्त एक ही ज़बान से दो बाते करते है, तब कौन भरोसा करे उन पर ?

आपको पता हैं कि दिसम्बर 2020 को छठे दौर की किसानों के साथ हो रही वार्ता में मोदी सरकार ने बिजली क़ानून और पराली जलाने को लेकर जुर्माने के मामले में सहमति बन गई , गोदी मीडिया ने खूब प्रचार किया था कि मोदी सरकार का बड़ा दिल किसानों की 50 प्रतिशत मांगे स्वीकार कर ली । इस बात को भी अब एक वर्ष होने जा रहे है लेकिन आज तक मोदी सरकार ने इस दो स्वीकृत मामले में कोई भी अधिसूचना आधिकारिक रूप से जारी नहीं की। आज भी पराली जलाने के मामले किसानों पर दर्ज हो रहे है और बिजली का मुद्दा भी जस का तस है। ऐसे में मोदी सरकार पर कैसे भरोसा किया जा सकता हैं और क्यों ? 

मोदी सरकार तो आज भी अपने कृषि कानून को किसानों के हित में ही बता रही है और यह भी कहती हैं कि करोड़ किसानों का और किसान संगठनों का साथ है , लेकिन उन समर्थक संगठनों और किसानों का नाम‌ नहीं बता पा रही कि आखिर वह किसान इसी देश के है क्या ? और दूसरे तरफ देश भर से 40 से अधिक किसानों का संगठन दिल्ली की सीमा पर बैठा है वह कुछ लोग कौन है ? उन्हे तो मोदी सरकार कें मंत्रियों और गोदी मीडिया के पतलचाट पत्रकारों ने खालीस्तानी , पाकिस्तानी , आतंकवादी , नस्लवादी , थलवे , गुंडे , टुकड़े टुकड़े गैंग , मवाली, नकली किसान और ना जाने कितने कितने उन नामों से नवाज़ा था। लेकिन यह कुछ किसान महात्मा गांधी के बताएं रास्ते पर चलते रहे सर्दियों में , गर्मियों में , बरसात के साथ – साथ पुलिस की मार भी सहते रहे।

 फिर वह वक्त भी आया जब मोदी को ख़ुद सामने आ कर माफी मांगते हुए तीनो कृषि बिल को बगैर शर्त वापस लेने की घोषणा करनी ‌पड़ी।  उसके लिए किसानों ने उनके हाथ पांव नहीं जोड़े थे, यह बड़ी बात है जो कोई नहीं कहता ।

एनडीए घटक दल के वरिष्ठ नेता केसी त्यागी ने स्पष्ट रुप से NEWS 24 के कार्यक्रम सबसे बड़ा सवाल मे कहा कि आज किसानों की हालत दयनीय स्थिति में है आमदनी और कम हो गई है । त्यागी यह भी कहते है कि देश के किसी भी‌ मंडी में किसानों को फसलों की उचित कीमत नहीं मिलती है ।

देश का यह दुर्भाग्य है कि 1970 से 2021 के मध्य सांसद और विधायकों की आमदनी मध्य 200 गुना अधिक हो गयी लेकिन किसानों की आमदनी केवल और केवल 19 प्रतिशत बढी है। आज महंगाई के दौर में भी किसानों की प्रति दिन की आय 27 रूपये मात्र है। यह केंद्रीय सरकार का बताया गया आंकड़ा है । आप खुद फैसला करो जो किसान एक दिन में मात्र 27 रुपये ही कमाता है वह अपने परिवार का पेट कैसे और कहां से भरेगा ? दुसरे तरफ देखने पर पता चलता हैं कि आमदनी 200 गुना बढ़ने के बावजूद सांसदों को आलीशान घर – बिजली , पानी , रसोई गैस , सब्जी , लाॅड्री , टेलीफोन , वाहन , फर्नीचर , हवाई यात्रा के साथ रेलवे में वातानुकूलित प्रथम श्रेणी में यात्रा परिवार सहित, बिलकुल मुफ्त यह पैसा किसका है ? क्या कांग्रेस या भाजपा सरकार देशवासियों को बताएगी ? क्योंकि सबसे अधिक समय पर कांग्रेस के बाद भाजपा ने ही देश पर राज किया है।  क्यों‌ आम जनता की आमदनी पर ध्यान नहीं दिया। क्या विधायक और सांसद आम जनता से ज्यादा महत्वपूर्ण है ? 

किसानों को भी पता है कि आगे यूपी का चुनाव है..इसलिए ये कानून वापस हुआ है। ताकि बीजेपी के नेता वोट मांगने उन के बीच जा सकें। 

शायद इसीलिए किसानों ने तुरंत आंदोलन के खत्म होने का एलान नहीं किया। वे कह रहे हैं कि कानून वापस लेना एक मांग है, उनकी और भी मांग हैं जैसे न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी देना। बिजली संशोधन विधेयक की वापसी की मांग भी अभी बाकी है। सवाल तो अब उठाया जाएगा क्योंकि अभी भी भारत लोकतंत्र देश है ।

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