उपहार और उसकी उपयोगिता का अधिक महत्व: धर्मदेव

उपहार की कीमत से अधिक भावना होती है सर्वाेपरि.
किसी आयोजन पर उपयोगी उपहार ही बड़ी यादगार

फतह सिंह उजाला ।
पटौदी । 
कहावत है जैसा खाए अन्न वैसा हो जाए मन। जैसा पिए पानी वैसी हो जाए वाणी और संगत की रंगत अपना असर और प्रभाव अवश्य दिखाती ही है । शनिवार को समाज सुधारक ,चिंतक, संस्कृत के प्रकांड विद्वान, धर्म ग्रंथों-वेदों के मर्मज्ञ आश्रम हरी मंदिर संस्कृत महाविद्यालय पटौदी के पीठाधीश्वर महामंडलेश्वर स्वामी धर्मदेव का साठवां जन्मोत्सव धूमधाम के साथ प्रातः काल से ही मनाया जाना आरंभ हो गया।

इसी मौके पर वरिष्ठ पत्रकार फतह सिंह उजाला के द्वारा महामंडलेश्वर धर्म देव महाराज को उनके सांठवें जीवन काल चक्र को पूरा करने के उपलक्ष पर जन्मोत्सव के उपहार स्वरूप चरण पादुका भेंट की गई।  जन्मोत्सव के मौके पर भेंट स्वरूप दी गई चरण पादुका को देखते ही सबसे पहले महामंडलेश्वर धर्मदेव के यही शब्द थे कि, वाह – यह चरण पादुका हरिद्वार या फिर काशी से भेंट करने के लिए मंगवाई गई है। यही वह शब्द थे जो अपने आप में बहुत बड़ा आध्यात्मिक और दुनियादारी सहित सामाजिक सरोकार रखने वाला संदेश, शिक्षा और ज्ञान देने के लिए पर्याप्त होते हैं ।

भेंट में मिले उपहार को देखते ही उपहार स्वीकार करने वाले के मन में सीधा धर्म-कर्म नगरी हरिद्वार और काशी ही उनके जेहन में आया, तो इसी बात से स्पष्ट भी हो जाता है की वह भेट अथवा उपहार जिसे भी दिया गया, वही उसकी उपयोगिता और महत्व को सबसे अधिक समझने में सक्षम होता है। इस मौके पर और भी अनेक प्रबुद्ध लोगों में पूर्व नेत्र रोग विशेषज्ञ डॉक्टर सुरेंद्र डबास, महिला रोग विशेषज्ञ गीता डबास, पत्रकार ओम प्रकाश, पत्रकार रफीक खान, पत्रकार शिवचरण, महामंडलेश्वर धर्मदेव के शिष्य तिलक राज, अभिषेक बंगा, विजय शास्त्री, सुरेंद्र घवन के अलावा अन्य श्रद्धालु भी मौजूद रहे।

जन्मोत्सव का उपहार चरण पादुका स्वीकार करने के बाद महामंडलेश्वर धर्मदेव महाराज ने चरण पादुकाओं को अपने हाथों में लेकर कुछ पल तक जी भर कर निहारा और प्रफुल्लित मनोभाव से अपना शुभ आशीष प्रदान किया । उन्होंने कहा किसी भी आयोजन में भेंट अथवा उपहार के मूल्य से अधिक महत्व उपहार की उपयोगिता और भेंट देने वाले की भावना को समझना भी एक अध्यात्मिक ज्ञान का ही एक भाग अथवा खंड कहा जा सकता है। जीवन में अनेक मौके और अवसर ऐसे आते हैं की जब कोई भी व्यक्ति किसी को निस्वार्थ भाव से कोई भी भेंट अथवा उपहार देता है , तो इस बात में संकोच नहीं होना चाहिए कि स्वीकार करने वाले और भेंट देने वाले के मनोभाव एक जैसे ही होना भी तय है। यही सब बातें अध्यात्मिक ज्ञान और आत्मीयता की पहचान भी कही जा सकती हैं।

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