Category: विचार

दिवाली का बदला स्वरूप …….

दिवाली के शुभ अवसर पर हमारे देश में रोशनी, मिठाईयां, सुख-समृद्धि और सौभाग्य की बात करने की परंपरा है लेकिन विडंबना ये है कि आज के दौर में दिवाली के…

रंगत खोते हमारे सामाजिक त्यौहार ………

बाजारीकरण ने सारी व्यवस्थाएं बदल कर रख दी है। हमारे उत्सव-त्योहार भी इससे अछूते नहीं रहे। शायद इसीलिए प्रमुख त्योहार अपनी रंगत खोते जा रहे हैं और लगता है कि…

बदलती रामलीला ……….. आस्था में अश्लीलता का तड़का

जब आस्था में अश्लीलता का तड़का लगा दिया जाता है तो वह न सिर्फ उपहास का कारण बन जाती है बल्कि बहुसंख्यक लोगों की भावनाएं भी आहत होती हैं। मर्यादा…

कन्या-पूजन नहीं बेटियों के प्रति दृष्टिकोण बदलने की जरूरत ………

नवरात्रि का पर्व नारी के सम्मान का प्रतीक है। नौ दिनों तक नवदुर्गा के नौ स्वरूपों की उपासना होती है। कहते हैं कि जिस घर में माता की पूजा होता…

भौतिकता की चाह में पीछे छूटते रिश्ते ………

एक अजीब सी दौड़ है ये ज़िन्दगी, जीत जाओ तो कई अपने पीछे छूट जाते हैं और हार जाओ तो अपने ही पीछे छोड़ जाते हैं। रिश्तों के प्रति इंसान…

‘दिखावा’ ……….. तेजी से फैलता एक सामाजिक रोग

समय के साथ बदलते समाज में दिखावे की प्रवृत्ति तेज़ी से बढ़ रही है। आजकल ज्य़ादातर लोग दूसरों के सामने अपनी नकली छवि पेश करते हैं। काफी हद तक ईएमआइ…

शादी-ब्याह: बढ़ता दिखावा-घटता अपनापन

भौतिकता की पराकाष्ठा के समय में जिसमें प्रत्येक कार्य व रिश्तों को धन की बुनियाद पर खड़ा किया जाने लगा है और वो सम्पूर्ण मानव जाति के लिये घातक कदम…

संबंधों के बीच पिसते खून के रिश्ते

आज हम में से बहुतों के लिए खून के रिश्तों का कोई महत्त्व नहीं। ऐसे लोग संबंधों को महत्त्व देने लगे हैं। और आश्चर्य की बात ये कि ऐसा उन…

पत्थर होती मानवीय संवेदना ………

वह मानव जिसकी पहचान ही उसके मानवीय गुणों जैसे कि सहानुभूति, संवेदना, दुःख आदि होती है और यही गुण मनुष्य में न रहेंगे तो मानव और पशु में अंतर करना…

वैवाहिक मूल्यों का होता …….. विवाह समझौता न होकर सृष्टि चक्र को गति प्रदान करने वाला जीवन मूल्य है

इक्कीसवीं सदी को वैचारिक क्रांति की सदी कहना अनुपयुक्त न होगा। वैचारिक क्रांति से समाज और संस्कृति सर्वाधिक प्रभावित हुये विवाहेत्तर सम्बन्ध आज के जीवन की कटु सच्चाई बन गये…