कमलेश भारतीय

दुनिया में भारत सबसे ताकतवर लोकतंत्र देश है । बहुत गहरी हैं यहां लोकतंत्र की जड़ें । सदियों से संघर्ष किया और लोकतंत्र को फिर से बहाल किया । लोकतंत्र का महापर्व भारत में ही मनाया जाता है । फिर इससे कमज़ोर क्या है ? सोचते सोचते समझ आती है कि सबसे कमज़ोर आतंकवाद जो बुलेट के बिना बाहर आ नहीं सकता जबकि लोकतंत्र को देखो कैसे ईवीएम से बाहर आ जाता है किसी जिन्न की तरह और प्रधानमंत्री से पूछता है कि मेरे आक़ा , बता क्या हुकुम है ? इसी के चक्कर में लोग ईसीएम पर कब्जे के आरोप लगाने लगे हैं ।

अब दूसरी तरफ आइए । आतंकवाद की सीमा है अंधेरा और अन्याय फैलाना । आतंकवाद की सीमा है चीखना चिल्लाना । लोकतंत्र उड़ता हुआ गुलाल है , खुशी है , गीत है , संगीत है , नाच है , गाना है जबकि आतंकवाद दहशत है , रूदन है , चीखना है , चिल्लाना है , मातम है और उदासी है , मनहूसियत है ।

आतंकवाद इतना डरपोक है कि एक गोल्गप्पे वाले से डर जाता है , एक बढ़ई से डर जाता है , शिक्षक से और यहां तक कि कैमिस्ट से या मजदूर से डर जाता है और गोली चला कर बुज़दिल भाग जाता है । कैमिस्ट माखन लाल बिंदरू की बेटी की ललकार से ही डर गया और फिर लौटा तो शिक्षकों को मार गिराया । आतंकवाद डरता है धर्म से जबकि लोकतंत्र खुश रहता है कर्म से । सुपेंद्र कौर ने एक मुस्लिम बच्चे को गोद ले रखा था जिसे मुस्लिम परिवार में रख कर ही पढ़ाने लिखाने का जिम्मा उठाये हुए थी लेकिन डरपोक आतंकवादियों ने सुपेंद्र को मारकर उस मासूम बच्चे को फिर से अनाथ कर दिया । धर्म से डर गये और कोई और आएगा जो कर्म कर उस बच्चे के पालन पोषण का जिम्मा उठा लेगा । लोकतंत्र एक विश्वास का नाम है और आतंकवाद एक शक का नाम । सिर्फ गोलगप्पे वाले से क्या डर ? कैमिस्ट से क्या डर? श्रमिक से क्या और कैसा डर? जिन सड़कों पर दनदनाते आते हो बंदूक उठाये किसने बनाईं ये सड़कें? उसी अनाम मजदूर ने जिससे तुम डर गये ।

ये कश्मीर है । ये जन्नत है जिसे लोकतंत्र जन्नत ही बनाये रखना चाहता है लेकिन आतंकवादी इसे जहन्नुम बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ते । लोकतंत्र और आतंकवाद में जीत हमेशा लोकतंत्र की हुई है । जम्मू कश्मीर में वैलेट हमेशा जीती और बुलेट हमेशा और हर बार ही हारी । क्या उसी कैमिस्ट से आतंकवाद के किसी साथी को दवाई की जरूरत न पड़ी होगी या नहीं पड़ेगी जरूरत दवाई की ? क्या अपने बच्चों को शिक्षित नहीं करना चाहोगे ? क्या अपने बच्चे के जन्म पर ही उसे बंदूक थमा दोगे और पत्नी गाना गायेगी –

तेरे बचपन को जवानी की दुआ देती हूं
और दुआ देके परेशान सी हो जाती हूं ,,,,

लोकतंत्र को जितनी दुआएं देनी हों , दीजिए और आतंकवाद को जितनी लानत भेज सको भेजिए जो सिर्फ एक गोलगप्पे वाले से डर जाता है ।
यहां जन्नत ही जन्नत हो
तेरे हाथ में मेरा हाथ हो
और लोकतंत्र का साथ हो , ,,,,

-पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी ।

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