—-गुरु की महिमा अगम अपार है, “कर्ता, धर्ता, हरता, गुरु” ही है : कंवर साहेब जी महाराज
—-जिनके अंदर “सेवा, प्रेम, और दया” है वे ही भक्ति कर पाएंगे : कंवर साहेब जी महाराज

दिनोद धाम जयवीर फोगाट,

25 मई,- सतगुरु के गुणों का वर्णन करना इंसान के वश की बात नहीं। गुरु की महिमा अगम अपार है। “कर्ता, धर्ता, हरता, गुरु ही है”, लेकिन केवल उन्हीं के लिए जो सतगुरु को ही अपना “तन, मन, धन” मानते हैं।  सन्तमत मनमुखो का नहीं गुरुमुखों का मत है। यह सत्संग वचन परमसंत सतगुरु कंवर साहेब जी महाराज ने गुरु अमरदास की जयंती पर आयोजित वर्चुअल सत्संग में प्रकट किए। हुजूर कंवर साहेब ने फरमाया कि जो मन को सन्मुख रख कर काम करते हैं वे मनमुख कहलाते हैं, जबकि गुरुमुख गुरु को सन्मुख रख कर कार्य करते हैं। 

उन्होंने कहा कि अमरदास जी का जीवन इस बात का प्रमाण है कि यदि इंसान का संकल्प दृढ़ है तो हर कार्य मुमकिन है। गुरु महाराज जी ने गुरु अमरदास जी के सत जीवन के बारे में बताते हुए कहा कि जब एक बार हरिद्वार से अमरदास जी वापिस आ रहे थे तो एक जगह पर एक बह्मचारी ने उनसे पानी मांगा। जब अमरदास जी पानी देने लगे तो बह्मचारी ने पूछा कि आपका गुरु कौन है। अमरदास जी ने कहा कि अभी तो कोई गुरु नहीं है। ब्रह्मचारी ने उनके हाथ का पानी पीने से इनकार कर दिया। इसी बात ने अमरदास जी पर ऐसा असर डाला कि उन्होंने दिन रात सच्चे गुरु की तलाश करनी शुरू कर दी। एक बार गुरू अमरदास साहिब जी ने बीबी अमरो जी जो गुरू अंगद साहिब की पुत्री थी उनसे गुरू नानक साहिब के शबद् सुने। वे इससे इतने प्रभावित हुए कि गुरू अंगद साहिब से मिलने के लिए खडूर साहिब गये। गुरू अंगददेव जी की शिक्षा के प्रभाव में आकर अमर दास ने उन्हें अपना गुरू बना लिया और वो खडूर साहिब में ही रहने लगे। वे नित्य सुबह जल्दी उठ जाते व गुरू अंगद देव जी के स्नान के लिए ब्यास नदी से जल लाते। गुरू के लंगर लिए जंगल से लकड़ियां काट कर लाते। उन्होंने गुरू के लंगर की प्रथा को स्थापित किया और हर श्रद्धालु के लिए पहले पंगत फिर संगत को अनिवार्य बनाया। गुरु अमरदास जी ने सतीप्रथा का प्रबल विरोध किया। उन्होंने विधवा विवाह को बढ़ावा दिया और महिलाओं को पर्दा प्रथा त्यागने के लिए कहा। गुरु महाराज जी ने कहा की ऐसे सच्चे पूर्ण सतगुरु का जीवन हर इंसान के लिए प्रेरणा का स्त्रोत है।              

उन्होंने कहा कि गुरु की तलाश में और नाम की चाह में रहने वाला हर पल भी सच्ची भक्ति में आती है। सन्तो के सामने बादशाही भी फीकी है। उन्होंने कहा सन्त हर हॄदय की जानते हैं। उन्होंने कहा कि सन्तो के दरबार में संगत और पंगत दोनों का नियम है। पंगत वह जहां हर भेदभाव से ऊपर उठ कर एक साथ प्रसादी हो। उन्होंने कहा कि जिनके हॄदय मलिन हैं वे दूसरों के लिए कभी सच्चे नहीं बन सकते। जिनके अंदर “सेवा, प्रेम, और दया” है वे ही भक्ति कर पाएंगे। उन्होंने कहा कि जैसे बुझे हुए दीपक को दूसरा रोशन दिया प्रकाशित कर सकता है वैसे ही पूर्ण सन्त हर हॄदय को प्रकाशित कर सकते हैं। उन्होंने फ़रमाया की सेवा ही भक्ति है। सन्त जानते हुए भी अनजान बने रहते हैं। सन्त सतगुरु जानते हैं कि हर कार्य के पीछे परमात्मा की ही रजा है। उन्होंने कहा कि “जति, सती, और शुर” के पराक्रम से भी बढ़ कर साध की सेवा है क्योंकि मन को मारे बिना साध की सेवा नहीं हो सकती। जो “करनी का धनी” है वही गुरूवाई के लायक है।

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