डर के आगे जीत है।
भावनात्मक मुद्दों से ज्यादा आवश्यक हैं पर्यावरण, चिकित्सा, सड़क, बिजली, पानी, शिक्षा जैसे मुद्दे। 
आपका भविष्य आपके चयन में है।

अशोक कुमार कौशिक

 हम यूनिवर्स में जीवन ही क्यों तलाशते फिरते हैं? इस धरती पर होने वाले जीवन की हमे क्या परवाह है। पहले तो सारी पृथ्वी देशों में बंटी हुई है फिर लगभग सारे संपन्न देश जीवन समाप्त करने का परमाणु बना कर बैठे हैं और ऐसे परमाणु बम को वैधानिक बल भी प्राप्त है मलतब जिसे परमाणु बनाना हो बना लो और ऐसा परमाणु बना लो कि न्यूयॉर्क से मारो तो नई दिल्ली तक निपटा दो।

अब यह बंटे हुए देशों में भी समस्या ही समस्या है। कहीं लोग चमड़ी देखकर भेदभाव करते हैं कहीं धर्म देखकर भेदभाव करते हैं। भारत आ जाओ तो यहां लोग पेशे से बनी जातियां देखकर भेदभाव करते हैं, लोगों को अपने जन्म पर गर्व है जबकि उनके पैदा होने में उनका रत्तीभर भी हाथ नहीं है।

आधी दुनिया की औरतों की आबादी आज भी सामाजिक स्वतंत्रता के लिए संघर्ष कर रही है। कहीं लोग रोटियों को रो रहे है तो कहीं लोग स्टेटस सिंबल बना रहे हैं। अफ्रीका के कई देशों में आज भी रोटियों की डकैती होती है।

यह तो केवल मनुष्यों के जीवन की बात है जिसकी रत्तीभर किसी को परवाह नहीं है। बाकी जीव जंतु पेड़ पौधों और नदियों की तो बात ही क्या करे। जानवरों को तो मारकर खाया जाता है, शिकार के दंभ के नाम पर और जबान के स्वाद के लिए लोग हिरण जैसे जानवर को मारकर खा रहे हैं। और नदियों का क्या? नदियों में भी तो जीवन है। लोग नदियों में पैखाने का पानी छोड़ रहे हैं और फैक्टरियों की खतरनाक केमिकल की लाइन उनमे मिला दी गई है लोग नहाकर अपने शरीर का मैला भी उसमे छोड़ रहे हैं और जो नदियां गंदी हो गई उन्हें साफ़ करवाने के नाम पर अफसर और नेता मिलकर धन कूट रहे हैं, नदी और तालाब साफ कराने की सारे योजनाएं नेता और अफसरों के घर भरने के लिए होती है।

पेड़ पौधों का क्या है? उनका भी तो जीवन है। ब्राज़ील के घने जंगलों में इसलिए आग लगाई जा रही है जिससे ज़मीन उपलब्ध हो और ब्राज़ील सरकार वहां फैक्टरियां चला सके वहां बस्तियां बसा सके। सही तो है कोई देश अपने हिस्से में आई ज़मीन को सिर्फ जंगलों में व्यर्थ क्यों करे जंगल उसे दे क्या रहे हैं।

यह हमारी जीवन को लेकर चिंताए हैं और उस जीवन को लेकर जो पृथ्वी पर हमारे सामने है। अब अगर हम यूनिवर्स को समझने के लिए विकसित किये अंतरिक्ष केंद्रों को केवल जीवन की खोज का नाम दे देंगे तो यह महामूर्खता होगी जिस पर हास्य रोका भी नहीं जा सकेगा। असल में यह सब इस यूनिवर्स को समझने के प्रयास है कोई जीवन वीवन की खोज नहीं है। जो जीवन हमे मिला है हम उसे तो संभाल नहीं पा रहे और यूनिवर्स में जीवन खोजने चले।

मंगल पर जीवन हो भी गया तो क्या है? वह इंसानी बस्ती बस भी गई तो क्या है? विज्ञान का सूरज प्रकृति के सूरज की तरह न्यायपूर्ण नहीं है। अगर वह न्यायपूर्ण होता तो एक वर्ग सरकारी अस्पताल की टेबल पर दम नहीं तोड़ता और दूसरा वर्ग बड़े बड़े डॉक्टर्स को घर बुलाकर सेवा नहीं ले रहा होता। एक को तो विज्ञान की रोशनी मिल गई दूसरा उससे वंचित है।

बचपन में एक कहानी सुनी थी कि एक तालाब में एक सांप और एक मेंढक था। किसी बात में उनमें बहस हो गई सांप बोला लोग मेरे जहर से मरते हैं मेंढक बोला नहीं लोग तुम्हारे जहर से नहीं तुम्हारे डर से मरते हैं।

दोनों ने इस बात को आजमाने की सोचा। एक आदमी तालाब में आया। सांप ने उसे काटा और जब आदमी ने मुड़ कर देखना चाहा कि क्या काटा है तो मेंढक ने अपना मुंह पानी के बाहर निकाल दिया। उस आदमी ने सोचा कि अरे मेंढ़क ने काटा है डरने की कोई बात नहीं और वह हंसता-खेलता घर चला गया।

दूसरे दिन फिर वही आदमी आया इस बार मेंढ़क ने काटा और सांप ने मुंह दिखाया। सांप ने काटा है इतना सोचते ही वह आदमी घबड़ा कर गिर गया और थोड़ी देर में तड़प कर मर गया।

असल में कोरोना इतना जानलेवा नहीं है जितना इसका हव्वा खड़ा कर दिया गया है। कोरोना के 99.5 प्रतिशत मरीज ठीक होकर घर आ रहे हैं। जो मर रहे हैं वह सिर्फ घब़ड़ाहट से या गलत प्रबंधन से मर रहे हैं। सही तरीके से इलाज ना होना समय पर ऑक्सीजन वनरक्षक दवाई न मिलना मौत के आंकड़े जरूर बढ़ा रहा है। जैसे ही अच्छे भले आदमी को मालूम पड़ता है कि मुझे कोरोना हुआ है वह घबड़ा जाता है और फिर उसके शरीर का इम्यूनिटी सिस्टम फेल हो जाता है।

अरे भाई इतना सोचों की हम भारतीयों को जब दूध में मिलाया गया नाले का पानी और केमिकल कुछ बिगाड़ नहीं पाता, चार पांच दिन के बासी ब्रेड, महीनों की बासी मिठाइयां, गरम मसाले में घोड़े की लीद, दाल में कंकर, काली मिर्च में पपीते के बीज, पानी पुरी में भैयाजी की नाक का पानी हमारा कुछ नहीं बिगाड़ पाता तो यह कोरोना हमारा क्या बिगाड़ पाएगा।

एहतियात बरतिए, और कोरोना से लड़ने के लिए इम्यूनिटी बढ़ाइए और इतना सोचिए कि जो 99 प्रतिशत से ज्यादा लोग ठीक हो कर घर जा रहे हैं मैं भी उनमें से ही एक हूं।

 मुझे लगता है कि इस आपदा ने बहुत कुछ सिखाया है। ठीकठाक आंकड़े तो नहीँ हैं, पर मेरे आसपास ऐसे बहुत से लोग हैं जो यह स्वीकार करने लगे हैं कि हमारे देश में भावनात्मक मुद्दों की जगह पर्यावरण, चिकित्सा और शिक्षा जैसे आधारभूत मुद्दों पर कार्य किया जाना चाहिए। 

अभी पिछले महीने जिस मंडी अटेली सामान्य अस्पताल पर टीका लगवाने गया था, उसे हरियाणा प्रदेश सरकार ने 2009 में महज़ कुछ करोड रुपये की लागत से बनवाया था। उस छोटे से अस्पताल में इतनी जगह थी कि 50 मरीज़ भर्ती किये जा सकते हैं। कुछ और निवेश कर ऐसे सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों पर बड़ी आसानी से ऑक्सीजन बेड, डिजिटल xray जैसे सुविधाएं जुटाई जा सकती हैं। ऐसे अस्पताल आसपास के गांवों के हज़ारों लोगों को मुफ्त और सस्ती चिकित्सा देने में सक्षम हैं। मैंने सुना है कि केरल के लगभग हर गांव में ऐसे स्वास्थ्य केंद्र बने हुए हैं, जहाँ तैनात नर्स और डॉक्टर उस पूरे इलाके को चिकित्सीय सहायता प्रदान करते हैं। यही असल विकास है। 

इसके विपरीत मेरा ध्यान जब अपने गृह जिले महेंद्रगढ़ के शहर नारनौल की ओर जाता है, जो जिला मुख्यालय है, तो मैं पाता हूँ कि हिंदी पट्टी में विकास का मतलब किसी की स्मृति में द्वार और प्रतिमा बनवाना, मेले लगवाना और कथावाचकों को बुलवाना, चौराहों पर टाइल्स लगाकर फव्वारे बनवाना, धार्मिक स्थल बनवाना आदि हैं। जिला मुख्यालय होने और एक-एक कर सभी राजनैतिक दलों की  सरकारों के बावजूद जिला चिकित्सालय बदहाली का शिकार है। जिले के निवासियों को भली-भांति पता है कि गंभीर बीमार होने का मतलब रोहतक, दिल्ली या जयपुर रेफर होना है। 

इस आपदा में बने जन दबाव के कारण ऑक्सिजन प्लांट जैसी सुविधाएं बन रही हैं। आशा करता हूँ कि जनता अपने नेताओं पर दवाब बनाये रखेगी और फर्जी भावनात्मक मुद्दों और द्वार/प्रतिमा/धर्मस्थल जैसे अनुत्पादक कार्यों से दूरी बनाएगी।  

ये समझना जरूरी है कि भावनात्मक मुद्दों से ज्यादा आवश्यक हैं पर्यावरण, चिकित्सा, सड़क, बिजली, पानी, शिक्षा जैसे मुद्दे। 
आपका भविष्य आपके चयन में है।

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