अर्से बाद अपने दायित्व के प्रति समर्पित एक चुनाव आयुक्त सामने आया है जो अपने संवैधानिक पद की गरिमा का पालन करने के प्रति गंभीर है
अब समय आ गया है कि संवैधानिक पदों से रिटायर होने वाले लोगों के लिए एक नियमावली बने।
सत्ता और संवैधानिक पदों से रिटायर होने वाले लोगों के बीच समझौते और सौदे पहले भी होते रहे होंगे, मगर वो इतने खुलेआम नहीं थे।

अशोक कुमार कौशिक 

चुनाव आयुक्त राजीव कुमार का पश्चिम बंगाल चुनाव से संबंधित हलफ़नामा जिसे चुनाव आयोग  ने अस्वीकार कर दिया था, इन दिनों चर्चा में है। यह हलफ़नामा चुनाव आयोग को मद्रास हाईकोर्ट द्वारा करोना महामारी के मध्य राज्यों में चुनाव कराने के फैसले पर सख्त टिप्पणी के जवाब में तैयार किया गया था। यह हलफ़नामा चुनाव आयोग के उन दस्तावेज़ों का हिस्सा नहीं बने जिसे चुनाव आयोग ने पहले मद्रास हाईकोर्ट और फिर सुप्रीम कोर्ट में दाखिल किया था।

राजीव कुमार का हलफ़नामा मीडिया में कैसे आ गया इस पर ज्यादा सोचना नहीं चाहिए। सरकारों के गुप्त दस्तावेज भी मीडिया को हासिल हो जाते हैं । वैसे बता दें कि पत्रकार कोई जासूस या चोर नहीं होते कि इन दस्तावेजों की प्रतियां उनके हाथ लग जाती हैं। उन्हें यह सब उनके “विश्वसनीय सूत्रों” द्वारा मुहैय्या करायी जाती है. और यह सूत्र अमूमन वह होते हैं जिनको इन दस्तावेजों के लीक होने से फायदा होने के उम्मीद होती है या फिर जो कोई अपने किसी सहकर्मी की मिट्टी पलीद करना चाहता है। लेकिन राजीव कुमार के हलफ़नामे के लीक होने में यह दोनों बातें लागू नहीं होती हैं।

क्या लिखा था हलफ़नामें में

बहरहाल, देखें कि इस हलफ़नामे में उन्होंने ऐसा क्या कह दिया था जिसके कारण चुनाव आयोग ने इसे कोर्ट में सौंपने के बजाय अपने फाइल में रखना ही उचित समझा. राजीव कुमार ने इसमें खुलासा किया था कि चुनाव आयोग ने पश्चिम बंगाल में आखिरी के तीन चरणों के चुनाव को टालने के बारे में चर्चा ज़रूर हुई थी, पर आयोग ने यह फैसला इसलिए नहीं लिया क्योंकि अगर ऐसा होता तो राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाना पड़ता जिसके कारण चुनाव आयोग पर आरोप लग सकता था कि वह किसी एक खास दल की सहायता कर रहा है। ज़ाहिर सी बात है कि वह पार्टी बीजेपी थी, क्योंकि केंद्र में उसी का शासन है और राष्ट्रपति शासन मूल रूप में केंद्र का शासन होता है, जिसमे सरकार के मुखिया राज्यपाल बन जाते हैं।

राजीव कुमार ने अपने हलफ़नामे में इस बात का उल्लेख भी किया कि आयोग ने आखिरी के तीनों चरणों के चुनाव को एक साथ करने की मांग पर भी चर्चा की थी जिस पर अमल नहीं किया गया क्योंकि इसमें कानूनी दिक्कतें सामने आ रही थी. आखिरी के दो चरणों का चुनाव एक साथ कराया जा सकता था पर चूंकि सातवें और आठवें चरणों के चुनाव में कोई खास फासला नहीं था, लिहाजा उन्हें एक साथ कराने की जगह चुनाव आयोग ने चुनाव प्रचार समाप्त करने की सीमा अवधि को 48 घंटों से बढ़ा कर 72 घंटे कर दिया था।

राजीव कुमार ने एक और बात कही कि जब चुनाव आयोग ने पश्चिम बंगाल समेत चार अन्य प्रदेशों में चुनाव कराने का निर्णय लिया तब उसे केंद्र सरकार की तरफ से कोई जानकारी नहीं दी गयी थी कि करोना महामारी का दूसरा फेज आने वाला है । राजीव कुमार ने अपने हलफ़नामे में मद्रास हाई कोर्ट की टिप्पणी, कि चुनाव आयोग पर हत्या का केस चलना चाहिए। चुनाव कराने की जिम्मेदारी अपने ऊपर लेने और पद से इस्तीफा देने की भी पेशकश की थी।

अगर राष्ट्रपति शासन लग जाता तो क्या विपक्ष इस पर बवाल नहीं मचाता?

अगर देखा जाए तो राजीव कुमार ने बहुत ही सही तरह चुनाव आयोग की व्यथा का इसमें जिक्र किया था । अगर चुनाव टाल दिया जाता और सभी राज्यों में स्थिति सुधरने तक राष्ट्रपति शासन लगा दिया जाता तो क्या कांग्रेस पार्टी, वामदल, ममता बनर्जी, वगैरह इस बात पर हंगामा नहीं कर देते? एक संवैधानिक संस्था पर उंगली उठाने की, खास कर चुनाव हारने के बाद, एक गलत परम्परा बन गयी है, जिसके लिए सभी दल सामूहिक तौर पर जिम्मेदार हैं।

चुनावी सभाओं पर चुनाव आयोग क्यों नहीं बोला

चुनाव आयोग का काम चुनाव कराना होता है, चुनाव कराने के लिए स्थिति कितनी अनुकूल है इसकी जानकारी उसे राज्य और केंद्र की सरकार से मिलती है. चुनाव आयोग के पास कोई भी ऐसा तंत्र नहीं था जिससे उसे करोना महामारी के दूसरे फेज के बारे में जानकारी मिल पाती । हां, चुनाव आयोग की आलोचना एक ही बात पर की जा सकती है कि जब चुनाव संबंधित प्रोटोकॉल का उल्लंघन हो रहा था, बड़ी-बड़ी सभायें आयोजित की जा रही थी जिसमें बिना मास्क और बिना सोशल डिस्टेंसिंग निमयों का पालन किए हजारों-लाखों की भीड़ इकट्ठा हो रही थी तब आयोग ने अपनी आंखें क्यों बंद कर रखीं थी । ऐसा चुनाव आयोग ने क्यों किया था यह वही जाने।

पांच प्रदेशों में चुनाव हो गया और ऐसा बहुत समय के बाद देखने को मिला कि इस बार ईवीएम पर चुनाव जीतने या हारने का आरोप नहीं लगा, यानि चुनाव आयोग पर इस बार पक्षपात का आरोप नहीं लगा, जो सराहनीय है. राजीव कुमार ने अपने हलफ़नामे में इस बात का भी ज़िक्र किया था कि चुनाव आयोग को ना सिर्फ निष्पक्ष होना चाहिए बल्कि उसकी निष्पक्षता दिखनी भी चाहिए।

एक सख्त प्रशासक हैं राजीव कुमार

राजीव कुमार एक सख्त प्रशासक हैं, इसमें किसी को कभी कोई शक नहीं था। जब वह केंद्र में वित्त सचिव थे तो उन्होंने 3.38 लाख फर्जी कंपनियों का बैंक खाता फ्रीज करने का आदेश दिया था । विधानसभा चुनावों के मध्य मुख्य चुनाव आयुक्त सुनील अरोड़ा रिटायर हो गए और उनकी जगह सुशील चंद्रा ने पद ग्रहण किया । चुनाव आयोग द्वारा कोरोना संक्रमण के बढ़ते मामलों की अनदेखी किसी हद तक चुनाव के मध्य चुनाव आयोग में परिवर्तन के कारण भी संभव है।

राजीव कुमार के तेवर और रुख को देख कर ऐसा प्रतीत होता है कि बहुत लम्बे अंतराल के बाद एक चुनाव आयुक्त सामने आया है जो अपने संवैधानिक पद की गरिमा का पालन करने को बारे में गंभीर है। मौजूदा मुख्य चुनाव आयुक्त सुशील चंद्रा अगले वर्ष 14 मई को रिटायर हो जाएंगे और 2024 का आम चुनाव राजीव कुमार की देख रेख में होगा। भारत में जनतंत्र और चुनाव आयोग की निष्पक्षता पूर्ण स्थापित करने के लिए इनसे बेहतर और कोई व्यक्ति शायद हो भी नहीं सकता है।

चकले का साइनबोर्ड

अब समय आ गया है कि हमें संवैधानिक पदों से रिटायर होने वाले लोगों के लिए एक नियमावली बनानी पड़ेगी। लोकतंत्र को कायम रखने के लिए अब यह बेहद ज़रूरी हो गया है। यह सरकार तो ऐसा नहीं करने वाली मगर दूसरी राजनीतिक पार्टियों को यह वादा करना चाहिए कि वे सत्ता में आए तो संवैधानिक पदों से रिटायर होने वाले बाबू साहेबान को किसी भी किस्म की सत्ता और सत्ता से जुड़ी सुविधाओं से सम्मानजनक दूरी पर रखेंगे। अगर ऐसा नहीं होता तो सारी संवैधानिक संस्थाओं की जड़ों में मट्ठा पड़ जाएगा। होगा यह कि रिटायर होने वाला आदमी पहले ही सरकार से जुड़ी फाइलें निपटाएगा और वही करेगा जो सरकार चाहती होगी।

चुनाव आयुक्त सुनील अरोड़ा के पद से रिटायर होते ही गोवा का राज्यपाल बना देने की खबर आना बहुत ही ज्यादा शर्मनाक रही। यह सत्ता के लिए भी शर्मनाक है और सुनील अरोड़ा के लिए भी। मगर शर्म जैसी चीज़ इन दिनों अप्राप्य हो चली है। रेमडिसिवर से ज्यादा किल्लत इन दिनों शर्म की है। अस्पताल में गलती से बेड मिल सकता है मगर बड़े पदों पर बैठे लोगों में शर्म नहीं मिलती और नेताओं में तो इसका नितांत अभाव ही होता है। कोई पूछे कि सुनील अरोड़ा को राज्यपाल बनाए जाने की चर्चा क्या अंदरखाने पहले से नहीं चल रही होगी। ऐसे में सुनील अरोड़ा ने चुनाव आयुक्त रहते हुए क्या सत्तारुढ़ भारतीय जनता पार्टी के मनमाफिक फैसले नहीं लिये होंगे। बंगाल में सात चरण का चुनाव हो या ईवीएम हटाने की मांग खारिज करना, सभी फैसले भाजपा को सूट करने वाले हैं और भाजपा की ही सरकार ने उन्हें राज्यपाल बनाया है। इसमें जो संधिसूत्र है उसे बच्चा भी पकड़ सकता है।

उधर चीफ जस्टिस के पद से रिटायर हुए और राममंदिर के पक्ष में अहम फैसला देने वाले जज रंजन गोगोई को भारतीय जनता पार्टी की तरफ से राज्यसभा भेज दिया गया। ऐसे और भी कई उदाहरण हैं कि कल तक आप किसी सरकारी कुर्सी पर बैठ कर इंसाफ के नाम पर एक पार्टी को फायदा पहुंचा रहे थे और रिटायर होते ही आपको पार्टी का टिकिट मिल गया।  सत्ता और संवैधानिक पदों से रिटायर होने वाले लोगों के बीच समझौते और सौदे पहले भी होते रहे होंगे, मगर वो इतने खुले आम नहीं होते थे। यह ऐसा ही है कि किसी चकले पर साइन बोर्ड लगा दिया जाए। खुले आम चलने वाले चकलों में भी इतनी शर्म तो होती है कि साइन बोर्ड नहीं लगाया जाता। मगर यहां तो चकले पर साइन बोर्ड लगा है, जिस पर फोटो भी हैं और रेट भी लिखे हैं।