भाजपा ने भविष्य के लिए बंगाल में अपना रास्ता बना लिया।वामपंथ का निरन्तर पतन , कांग्रेस बंगाल में साफ और केरल मे हाफ़ । बंगाल ने देश की राजनीतिक में बहुत बड़ा बदलाव दिया है और वो बदलाव है विपक्ष में भारी बिखराव होना।एक अकेली महिला ने उस बड़े सत्ता साम्राज्य का सामना किया।मोदी- शाह चुनाव प्रचार छोड़ कोरोना प्रबंधन में जुट जाते तो देश में कम कोरोना मौतें होती, बंगाल में सरकार ना भी बनती तो सीटें अवश्य बढ़ती। अशोक कुमार कौशिक समय और परिस्थितियो ने इस परिणाम को हास्यास्पद जरूर बना दिया हैं मगर वास्तविकता यही है कि भाजपा ने भविष्य के लिए बंगाल में अपना रास्ता बना लिया है। जो लोग राजनीति को करीब से अध्ययन करते हैं वो भली भांति जानते हैं कि भाजपा ने खरगोश की चाल के बजाय कछुए की चाल को हमेशा तवज्जो दिया है। जिसका परिणाम है कि भारत की सबसे पुरानी पार्टी आज अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है। इस चुनाव से पहले बंगाल भाजपा के लिए उस बंजर ज़मीन के समान था जहां पूरी मेहनत के बाद भी फ़सल के बजाय कुछ घास फूस हीं उग पाता था,लेकिन इस चुनाव ने मन मुताबिक फ़सल का पैदावार तो नहीं दिया लेकिन इतनी फसल जरूर उग आया है कि भविष्य में इस भूमि से अच्छा खासा कमाया जा सकता है। जिन्हें नरेंद्र मोदी और अमित शाह की बंगाल में हार दिखाई देता है उन्हें यह समझने की जरूरत है कि यह उनकी कोई पहली हार नहीं है दिल्ली से लेकर बिहार हरियाणा तक ऐसे कई उदाहरण हम चौदह के बाद से हीं देखते आए हैं कि ये हारे हैं और पुनः आगे बढ़ गए हैं।आज बंगाल ने देश की राजनीतिक स्थिति में एक बहुत बड़ा बदलाव दिया है और वो बदलाव है विपक्ष में भारी बिखराव होना। बंगाल में ममता भले हीं अपनी सीट हार गई हैं लेकिन उनकी पार्टी ने अपने दम पर बहुमत का आंकड़ा पार करके जो मनोबल हासिल किया है वो कहीं न कहीं अब अपने आपको विपक्ष का सबसे मजबूत चेहरा देखेंगी,ऐसे में अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही कांग्रेस के सामने सबसे विकट समस्या होगी कि वह टीएमसी को अपने प्रभाव क्षेत्र में रखकर लीड कर सकें,जो की किसी भी स्थिति में संभव नहीं दिखाई देता है। ऐसे में विपक्ष का यह बिखराव कमजोर विपक्ष को और ज्यादा कमजोर करेगा। अब देखना यह होगा कि आने वाले वक्त में कौन एक मजबूत विपक्ष का चेहरा बनकर उभरता है,जो देश के राजनीतिक हालात को बदलता है। वह ममता बनर्जी अखिलेश यादव या अरविंद केजरीवाल या फिर ऐसे हीं कमजोर विपक्ष के आड़ में सरकार अपनी नाकामियों को छुपाकर आगे बढ़ती रहेगी। अभी तक के स्थिति को देखकर तो यही अनुमान लगाया जा सकता है कि आने वाला चौबीस का लोकसभा चुनाव भी बिखरे विपक्ष के कारण मोदी सरकार अच्छे खासे बहुमत से निकाल ले जायेगी और साथ हीं साथ आने वाले वक्त में बंगाल में भी अब तक का सूखापन समाप्त होगा और बीजेपी अपनी पहली सरकार बनाने में कामयाब होगी। वामपंथ का निरन्तर पतन पाँच राज्यों के चुनाव में यदि कोई हारा है तो कांग्रेस और वामपंथ । पहले कांग्रेस की बात – बंगाल में साफ और केरल मे हाफ़ । कई दशकों में पहली बार केरल में किसी सरकार की वापसी हुई है । इसका अर्थ मार्क्सवादियों से प्रेम शायद इतना नहीं है जितना कि कांग्रेस से नफ़रत । भाजपा भले ही बंगाल में पूरी तरह मात खा गयी है पर लेफ़्ट और कांग्रेस की जगह तो ले ही ली है। असम में भी कांग्रेस को वापसी की आशा थी पर बहुत बुरा प्रदर्शन रहा। जहाँ एनआरसी के विरोध के समय मोदी और शाह घुस नहीं पा रहे थे वहाँ डेढ़ साल के भीतर ही दोबारा पूर्ण बहुमत से वापस आना कांग्रेस की ख़त्म होती पकड़ का पुख़्ता सबूत है । राहुल गांधी को दक्षिण के राज्यों में अच्छा समर्थन मिल रहा है , ऐसा लग रहा था पर चुनाव परिणाम कुछ और ही कहानी कह रहे हैं । कांग्रेस की सबसे बड़ी कमी है स्थानीय नेताओं का अभाव । नये नेता सदा संघर्ष से ही उभरते हैं । पर कांग्रेस कई दशकों तक सत्ता में रहने के कारण आरामतलब लोगों की पार्टी बन कर रह गयी है । अब समय है कि राहुल और प्रियंका (और है ही कौन ? ) को चुनावों को तिलांजलि देकर लगातार संघर्ष पर ही जोर देना चाहिये । मुद्दे बहुत हैं – युवाओं में बेरोज़गारी , बन्द होते हुए सरकारी उद्यम , लचर मैडिकल ढाँचा – समस्याएँ ही समस्याएँ हैं । चुनाव होते हैं तो होने दें । यही कमी वामपंथ को मार रही है । बिना संघर्ष के कैसा वामपंथ ? बंगाल में वामपंथ की कामयाबी के पीछे सातवें दशक का नक्सली आंदोलन था । इतनी जल्दी घोर दक्षिण पंथी भाजपा का कामयाब होना हैरान कर देता है ! देश की आज़ादी के समय कांग्रेस के अलावा वामपंथी ही थे – भले ही वे कम्युनिस्टों की तरह धुर वामपंथी हों या थोड़े मॉडरेट वामपंथी समाजवादी हों पर दक्षिणपंथी कहीं नहीं थे । एक निम्न आय के देश में दक्षिणपंथियों की कामयाबी अजूबा है और दु:खद है । ममता का खेला और मोदी-शाह की चूक मैं प्रशांत किशोर तो नहीं हूं , लेकिन अपने पत्रकारिता के अनुभव और थोड़ी मैदानी समझ से यह बात दावे से कह सकता हूं कि अगर मोदी ने मात्र 30 दिन पहले बंगाल चुनाव को छोड़ दिल्ली में मोर्चा संभाल लिया होता और वे यह भावुक अपील जारी करते कि देश कोरोना संक्रमण की चपेट में है और जनता को मेरी जरूरत है लिहाजा मै चुनाव प्रचार नहीं करूंगा । इस अपील को गोदी मीडिया और भक्त बिरादरी तबियत से भुनाती , जिसमें उसे पीएचडी भी है, तो मेरा दावा है कि बंगाल में भाजपा की सीटें आज की तुलना में बढ़ जाती और दूसरी तरफ बंगाल के साथ पूरे देश की सहानुभूति मोदी को मिलती। याद कीजिए अमेरिका के चुनाव में राष्ट्रपति ओबामा जब दूसरी बार खड़े हुए तो उनकी स्थिति कमजोर थी , उसी दौरान अमेरिका में तूफान आया तो ओबामा ने अपना प्रचार छोड़कर कंट्रोल रूम संभाल लिया और तूफान की मॉनिटरिंग में जुट गए। उसका असर यह हुआ कि देश में उनके प्रति सहानुभूति की नई लहर पैदा हुई और ओबामा दूसरी बार राष्ट्रपति बन गए । यह एक कॉमन सेंस की बात है कि जब देश संकट में था उस वक्त मोदी-शाह की जोड़ी चुनावी रैलियों, रोड शो में व्यस्त थी ,जब देश के अधिकांश हिस्सों में मरीजों के परिजन बेड ,ऑक्सीजन , इंजेक्शन के लिए मारे मारे भटक रहे थे उस वक्त देश का प्रधानमंत्री दीदी ओ दीदी के नारे लगा रहा था। उनके क्षेत्र बनारस में सड़कों पर चिताएं जल रही थी । आखरी रैली निरस्त करने तक तो हजारों-लाखों बद्दुआएं भी आप के खाते में जुड़ गई । कोरोना संक्रमण के बीच चुनाव प्रचार कर मोदी ने अपने पैर पर ही कुल्हाड़ी मारी और दीदी ने पैर पर प्लास्टर चढ़ा खेला कर दिया। ममता बनर्जी बंगाल ही नहीं पूरे देश की शेरनी के रूप में उभरी आई। इस एक अकेली महिला ने उस बड़े सत्ता साम्राज्य का सामना किया , जिसके पास अकूत धन के साथ ईडी, आयकर ,सीबीआई सहित सारे राज्यो के मुख्यमंत्री , मंत्रियों के अलावा कार्यकर्ताओ की विशाल फौज थी । दिल्ली चुनाव में केजरीवाल से हार के बाद भी मोदी-शाह ने कोई सबक नहीं सीखा और अहंकार/मुगालता नही छोड़ा। अगर मोदी- शाह चुनाव प्रचार छोड़ कोरोना प्रबंधन में जुट जाते तो जहां देश में कम कोरोना मौतें होती वहीं दूसरी तरफ बंगाल में सरकार ना भी बनती तो सीटें अवश्य बढ़ती और यह दलील भी मिल जाती कि मोदी-शाह के चुनाव प्रचार से हटने के कारण भाजपा सरकार नही बना पाई । अभी तो बंगाल में धुलाई के साथ देश में कोरोना संक्रमण से ना निपट पाने की गालियां अलग खाना पड़ रही है । यानी सौ जूते भी खाए और सौ प्याज भी । सत्ता शीर्ष पर बैठे लोगों को पता नही कब सद्बुद्धि आएगी ? 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