पिछली बार इन्हें खाना खिलाने की प्रतियोगिता का दौर चल रहा था ।
आज के दौर में मोदी के खिलाफ़ लिखना साधारण बात नही है।
लोकतंत्र में किसी दल का विरोध,नेता का विरोध जायज कृत्य है और निभाने वाला कर्तव्य है।
मात्र 50 दिनों का हिसाब जनता मांगे मोदी जी से।

अशोक कुमार कौशिक 

 महामारी के दूसरे चरण में सबसे ज्यादा Neglected है प्रवासी मजदूर और ये गरीब मजदूरों ने खुद कमाया है । गरीब, असहाय मजदूरों ने अपनी नियति खुद बनाई है।याद कीजिए, पिछले साल जब महामारी का प्रकोप बढ़ रहा था तब क्या हालात थे? ये लोग 1200 किलोमीटर तक भूखे प्यासे पैदल चले । रास्तो पर गर्भवती माताओं ने बच्चो को जन्म दिया। बुजुर्ग रास्तो पर मर गए।

एक बच्ची ने साईकल पर अपने पिता के साथ 1000 किलोमीटर  का सफर किया। सूटकेस पर बच्चे को घसीटती माँ और मरी हुई माँ के साथ खेलता बच्चा जैसे हृदयविदारक दृश्य पूरी दुनिया मे वायरल हो गए।

पर इस बार? निशब्द पलायन हो रहा है फिर से भूख, बेरोजगारी इन मजदूरों के जीवन को ग्रास कर रही है । पर मीडिया, नेता कोई इनपर नही बोला रहा है और नाही दिखा रहा है । क्योंकि अब मजदूर का कोई महत्व नही रहा।

पिछली बार इन्हें खाना खिलाने की प्रतियोगिता का दौर चल रहा था । बीजेपी बता रही थी उसके 25 करोड़ कार्यकर्ता 2 टाइम का खाना खिला रहे थे । केजरीवाल का जनता किचन दिखाया जा रहा था। कांग्रेस ने 1000 बसे भेजी थी । स्वयंसेवी संस्थाये वगैरह मेहनत कर रहे थे । अबकी बार ऐसा कुछ नही है पर ऐसा क्यो हुआ?

बीजेपी को पता चल गया कि भूख, प्यास, बेरोजगारी कोई मुद्दा नही है । चुनाव के वक्त धर्म इन मजदूरों के लिए काफी है । मीडिया को समझ आ चूका है कि कोई कितनी भी सेवा कर ले ये मजदूर एक रोबोट बन चूके है । इन्हें नफरत का इंजेक्शन लगते ही ये एक्टिव हो जाते है।
 तो अब राजनैतिक दल/मीडिया केवल इनकी मानसिकता पर फोकस रखते है इनके हालात से कोई सरोकार नही है क्योंकि ये मजदूर खुद के हालात नही बदलना चाहते। बीजेपी काफी खुश है इस पूरे मसले से।

बाकी विपक्षी दलों ने बिहार चूनाव से सीखा की 5000 किलोमीटर पैदल चल कर भी ये गरीब मजदूर धर्म/नफरत के बाहर नही आ सकते तो फिर इतना ध्यान क्यो देना है? अबकी बार ज्यादातर धार्मिक संस्थान भी भोजन सेवा से दूर है क्योंकि समय आने पर ये मजदूर जिनका खाते है उनका ही विरोध करते है।

बीजेपी/आरएसएस यही तो चाहती थी। समाज का एक बड़ा हिस्सा धर्म के नाम पर बाकी समाज से कट जाए । जितनी भीख मिले उसमे खुश रहे। असल मे इन प्रवासी मजदूरों ने अपना वजूद खत्म कर लिया और जिसका कोई वजूद नही उसकी कौन सुनेगा?

प्रवासी मजदूरों से मूझे पूर्ण सहानुभूति है पर समाज का सबसे जीवट हिस्सा अपनी पहचान खो चूका है । दिशाहीन चलते रहना ही अब इनकी नियति है । ये अब आत्मनिर्भर है।

आप मुझे गाली दीजिये,घृणा करिये लेकिन याद रखिए आज के दौर में मोदी के खिलाफ़ लिखना साधारण बात नही है। बहुत कुछ खोना पड़ता है,कीमत चुकानी पड़ती है। और मेरे जैसे साधारण आदमी को तो और भी चुकानी पड़ती है जिसके पीछे कोई समूह नही,कोई झंडा नही, कोई ताकत नही,कोई संरक्षण नही। लेकिन मैं फिर भी लिख रहा,इतना लिखना ही अपने समय की सबसे बड़ी लड़ाई में सीना ठोंक के जीना है।

अरे आज के समय में भला कौन सी बड़ी बात थी जो जरा से लाभ,नाम,यश के लिये सत्ता के चरण न लोट जाते। भला क्यों छोड़ता ये सब भी जो जरा सा भी मिल ही जाता अगर लोट जाता तो। कई लोगों को लगता है कि मोदी विरोध से नाम मिल जाता होगा, फेसबुक का लाइक मिल जाता होगा। हुजूर इतने से के लिये कोई अपना पूरा इज्जत, सार्वजनिक जीवन दांव पर नही लगायेगा। जिसे आप नाम और यश या लाइक समझते हैं उसके आगे जो गालियों और विद्वेष सहित घृणा का पात्र बन जब लोगों की मानसिकता से जूझना होता है,वो हम जैसे लिखने बोलने वालों से पूछिये। 

फेसबुक पे या जमीन पे मोदी विरोध वाले हर व्यक्ति का भाग्य जिन्ग्नेश मेवानी या कन्हैया कुमार का भाग्य नही है। हम जैसे लाखों साधारण लोगों के लिये मोदी विरोध का परिणाम है फेसबुक या चाय की दुकान पे गाली सुनना, देशद्रोही कहलाना,गद्दार कहलाना। आप चूंकि इस पाले में नही,उस मखमली कालीन की ओर हैं इसलिए ये सुनने का दर्द आपको नही पता।कितना झेलना होता है और उसका परिणाम केवल मानसिक सन्ताप ही होता है। लेकिन हम फिर भी लिख रहे,बोल रहे,क्यों?

क्योंकि हम अपने विवेक पर किसी का राज नही चाहते।मेरी सामान्य बुद्धि अगर मोदी की नीति और उनकी राजनीति को अस्वीकार करती है तो मैं निसन्देह उनके विरोध मे लिखूंगा। मैं पूरे होशो हवास में जानता हूँ कि लोकतंत्र में किसी दल का विरोध,नेता का विरोध जायज कृत्य है और निभाने वाला कर्तव्य है। अब ये कैसे किया जाय ये विरोधी के भी किये क्रियाकलाप पे निर्भर है कि उसके किस कृत्य का किस प्रकार जवाब देना है।

अन्त में इतना ही कहना चाहूँगा कि बतौर भारतीय मोदी या किसी के भी विचार के खिलाफ़ होना मेरा लोकतांत्रिक अधिकार है और कोई भी दल राष्ट्र का पर्याय नही हो सकता। देश पहले दल बाद में।

मुझे गर्व है कि मैं इस देश की सबसे मजबूत सत्ता के विरुद्ध अपना बहुत कुछ गंवा के भी लिख रहा था,बोल रहा था। मुझे इसके बदले रत्ती भर भी लाभ नही मिलना था,ये आप खुद अपनी दी हुई गालियों या असहमति से समझ सकते हैं। मुझे गर्व रहेगा कि जब एक सत्ता रेवड़ी बांट रही थी और अच्छे अच्छे उस लाईंन में खड़े थे,मैने किनारे खड़े हो मलाई वाले से सवाल पूछना चयन किया,लाईन में खड़ा हो मलाई खाना नही।

आज से 10 साल बाद जब मेरे सामने के बड़े लोग और भी बड़े हो चूके होंगे और मैं एक साधारण सी जिंदगी जीता हुआ कहीं गुमनाम सी जिंदगी काट रहा होऊँगा,मुझे तब भी चटाई पे लेटे हुए ये गुमान और फ़ख्र रहेगा कि मैं एक शक्तिशाली सत्ता के विरोध में लिखा था कभी। मेरी लिखाई से मुझे भले ही भर पेट खाना के साथ साथ भर पेट गाली मिले पर ये गुमान तो रहेगा ही कि कोई आंधी इसकी नोक तो न हिला सकी।

मात्र 50 दिनों का हिसाब जनता मांगे मोदी जी से।

कांग्रेस के 50 सालों का हिसाब 7 सालों से मोदी सहित पूरी भाजपा व भक्त बिरादरी मांगती रही है, जिसमें कोई बुराई भी नहीं। जो सत्ता में है या रहा, सवाल उसी से पूछे जाना चाहिए। नेहरू से लेकर मनमोहन सिंह के गड़े मुर्दे उखाडऩे वालों से देश की जनता अब मात्र 50 दिनों का हिसाब मांगे।

यह भी सच है कि कोरोना एक महामारी है, जिससे दुनिया की महाशक्ति भी नहीं बच सकी तो हम किस खेत की मूली हैं। लेकिन सवाल यह है कि इस महामारी से निपटने के हमने क्या प्रयास किए? जब मार्च की शुरुआत में महाराष्ट्र सहित कुछ हिस्सों में कोरोना संक्रमण बढऩे लगा और सारे विशेषज्ञ-डॉक्टर आगाह करते रहे कि कोरोना की सेकंड वेव अधिक घातक होगी। लेकिन मोदी सरकार ने इन चेतावनियों पर ध्यान नहीं दिया और चुनावी प्रबंधन में ही जुटे रहे और अपने साथ मोदी – शाह की जोड़ी ने मध्यप्रदेश सहित अन्य राज्यों के मुख्यमंत्रियों-मंत्रियों और अन्य नेताओं को भी इन चुनावों में झोंक दिया। इंदौर के ही कई बड़े नेता और कार्यकर्ता लम्बे समय से बंगाल में पड़े रहे, जो अब लौटे हैं । 
अगर मोदी मार्च के पहले या दूसरे पखवाड़े में ही चुनाव प्रचार छोड़ कोरोना प्रबंधन की बागडोर हाथ में ले लेते और ऑक्सीजन-इंजेक्शन से लेकर बेड की व्यवस्था करवाते तो आज जो भयावह हालात देशभर में दिख रहे हैं उसमें 50 प्रतिशत तक की राहत मिल जाती। मोदी  कहते हैं कि हमारा फार्मा सेक्टर बड़ा मजबूत है, तो यह बात गलत भी नहीं है लेकिन उसका उपयोग मोदी ने क्या किया ?अगर मार्च से ही दवाइयों-इंजेक्शनों का प्रोडक्शन तेज रफ्तार से शुरू करवा दिया होता तो अभी अप्रैल के पहले हफ्ते से ही इनकी सप्लाय बेहतर हो जाती और इंजेक्शन के लिए लोगों को मारे-मारे नहीं फिरना पड़ता और ना कालाबाजारी के शिकार होते । 

यही स्थिति ऑक्सीजन की है, जिसको लेकर पूरे देश में हाहाकार मचा है । इसका भी बंदोबस्त इन 50 दिनों में आसानी से हो जाता। यहां तक कि 15 से 20 दिन में ही नए ऑक्सीजन प्लांट लग जाते हैं और देश के कई स्थानों पर लग भी गए । लेकिन ये तब होता जब मोदी जी ने मार्च में मोर्चा संभाला होता । देश में जितनी भी मेडिकल या इंडस्ट्रियल ऑक्सीजन बन रही है, उसका उत्पादन बढ़वा दिया होता तो आज कई मरीजों की मौतें ऑक्सीजन की कमी या उससे जुड़ी अव्यवस्थाओं के चलते नहीं होती।

 यह भी सच है कि इस महामारी से हम सभी लोगों को नहीं बचा सकते और हजारों मौतें भी होंगी, लेकिन हम उनमे से कितनी जानें बचा पाते हैं, यह महत्वपूर्ण है। इस मेडिकल आपातकाल को अगर मार्च और अप्रैल की शुरुआत में समझ लिया होता तो आज 100 की बजाय 50 मरीज ही मर रहे होते, ये आधी जानें ऑक्सीजन, इंजेक्शन व बेड के महीने भर पहले किये बेहतर मैनेजमेंट से बच सकती थी। 

चुनाव के अलावा कुंभ का आयोजन भी मोदी की बड़ी विफलता रही, जिसे बाद में सुधारना पड़ा और कुंभ को प्रतीकात्मक करने का ट्वीट किया हालांकि उसके दो घंटे बाद ही मोदी भीड़ भरी सभा को संबोधित कर आनंदित होते भी दिखे । जब पूरा देश कोरोना की भीषण त्रासदी का सामना करता रहा तब मोदी और शाह की चुनावी रैली-रोड शो जारी रहे। इसी तरह वैक्सीनेशन में भी मोदी सरकार फिसड्डी साबित हुई। विश्वगुरु बनने के चक्कर में 7-8 करोड़ वैक्सीन डोज विदेशों में भिजवा दिए और यही गलती ऑक्सीजन सप्लाय के मामले में भी सामने आ रही है। इसी साल जनवरी तक इंडस्ट्रीयल ऑक्सीजन विदेशों में भेज दी गई और अब 50 हजार टन मंगवाना पड़ रही है।

 कई मूर्ख भक्त यह पोस्ट डाल रहे हैं कि मेडिकल नहीं, इंडस्ट्रीयल ऑक्सीजन भेजी। जबकि इन ढक्कनों को यह पता नहीं है कि अभी देशभर में कोरोना मरीजों को इंडस्ट्रीयल ऑक्सीजन ही दी जा रही है और केन्द्र-राज्य सरकारों व प्रशासन ने इसी कारण इंडस्ट्री को ऑक्सीजन रोक दी और जामनगर-भिलाई से लेकर अन्य स्थानों से इंडस्ट्रीयल ऑक्सीजन ही अस्पतालों को मिल रही है।

लिहाजा 7 साल का हिसाब भले ही मोदी ना दें, मगर इन 50 दिनों का तो जनता अवश्य मांगे । आज हम सब कोरोना की चपेट में आए अपने परिजनों, मित्रो सहित अन्य को हर पल मरता देख रहे हैं या हमेशा के लिए खो चुके हैं। अस्पतालों से श्मशानों तक का ये सफर पता नही कब खत्म होगा लेकिन जनता को शायद ये समझ आ गया होगा कि जिसे उन्होंने मसीहा समझा वो सत्ता का बेरहम सौदागर ही निकला ।

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