उमेश जोशी

बीजेपी के बैनर पर दो बार ऐलनाबाद सीट से क़िस्मत आजमा चुके पवन बेनीवाल की 145 दिन बाद नींद टूटी है। बहुत गहरी नींद में सोए हुए थे। 26 नवंबर 2020 को किसान आंदोलन शुरू हुआ और 20 अप्रैल 2021 तक किसानों की परेशानियों से बेफिक्र होकर सोते रहे। इन 145 दिनों में उन्होंने किसानों के पक्ष में अपनी सरकार को झुकाने का एक बार भी प्रयास नहीं किया; एक भी बयान किसानों के पक्ष में नहीं दिया। फिर कैसे मान लिया जाए कि पवन बेनीवाल बेफिक्र होकर नहीं सो रहे थे; कैसे यकीन कर लें कि किसानों की परेशानियों को लेकर उनका चैन छिन गया था। अब अचानक किसानों की पीड़ा को लेकर उनकी नींद टूटी है और किसानों के मसीहा की मुद्रा में बीजेपी का घर छोड़कर बाहर आ गए हैं। 

  पवन बेनीवाल खुद कहते हैं कि बीजेपी छोड़ने का फैसला करने में देरी हुई है। फिर खुद ही अपने देर से किए फैसले की शर्मिंदगी पर लीपापोती करते हुए कहते हैं-जब जागो तभी सवेरा। पवन बेनीवाल से बेहतर कौन जानता है कि एक राजनेता को कब जागना चाहिए और कब नई पार्टी में शामिल होना चाहिए। एक राजनेता अपने राजनीतिक स्वार्थ बखूबी जानता है इसलिए पार्टी छोड़ने और दूसरी पार्टी जॉइन करने की टाइमिंग में कभी चूक नहीं करता। जब उन्होंने 2014 में विधानसभा चुनाव से पहले इनेलो छोड़कर बीजेपी का दामन थामा था तब तनिक भी देर कर देते तो बीजेपी के टिकट से चूक जाते। इसका मतलब है कि वे भलीभांति जानते थे कि पार्टी कब छोड़नी चाहिए और कब नई पार्टी में शामिल होना चाहिए। इस बार 145 दिन की देरी जानबूझकर की गई है। किसानों की पीड़ा तो एक बहाना है। किसानों की तकलीफ से सचमुच व्यथित होते तो बहुत पहले बीजेपी को अलविदा कह चुके होते जैसे कि बीजेपी के कई नेता जनवरी और फरवरी के महीनों में पार्टी छोड़ चुके थे। उस समय भी पवन बेनीवाल को किसानों का दर्द महसूस नहीं हुआ। 

 पवन बेनीवाल गले ना उतरने वाला एक तर्क यह भी देते हैं कि उनके इलाके में सरकार कोई खास विकास कार्य नहीं कर रही है। बेनीवाल ने यह नहीं बताया कि उन्होंने अपने इलाके में कौन-से विकास कार्यों की मांग की थी और कब कब की थी।  ऐलनाबाद में निकट भविष्य में होने वाले उपचुनाव से पहले उन्हें विकास कार्य याद आए हैं। 2019 के चुनाव से पहले भी विकास कार्य नहीं हुए थे तब पवन बेनीवाल ने पार्टी क्यों नहीं छोड़ी।

 पवन बेनीवाल ने राज्य में बीजेपी के खिलाफ बह रही पवन का रुख पहचान कर ही इस्तीफा दिया है। उन्हें समझ आ गया था कि बीजेपी के खिलाफ माहौल लगातार बिगड़ रहा है; 145 दिन प्रतीक्षा के बाद भी माहौल में कोई सुधार नहीं हुआ और ना ही निकट भविष्य में सुधार की कोई उम्मीद है इसलिए उन्होंने किसानों का हमदर्द बन कर अपनी पार्टी छोड़ दी। पवन बेनीवाल उस समय भी ऐलनाबाद को फतह नहीं कर पाए थे जब बीजेपी के अनुकूल माहौल था। वे उस समय भी चुनाव नहीं जीत पाए थे जब 20 अक्टूबर 2019 को प्रधानमंत्री मंत्री नरेंद्र मोदी ने खुद मल्लेकां गाँव में उनके लिए वोट मांगे थे। उन परिस्थितियों में भी उनके भाग्य का ताला नहीं खुला तो आज तो परिस्थितियां बिल्कुल विपरीत हैं। इन हालात में अंधकार में डूबा अपना भविष्य देख कर किसानों के दर्द को बहाना बनाया और भोलेभाले किसानों की आड़ लेकर मसीहाई अंदाज में बीजेपी से अलग हो गए। 

  पूरा प्रदेश जानता है कि बरोदा उपचुनाव में बीजेपी की कितनी किरकिरी हुई थी। पार्टी को मज़बूरन अपने उम्मीदवार योगेश्वर दत्त की साफ सुथरी छवि पर वोट मांगने पड़े थे। बीजेपी के बड़े नेताओं के नाम पूरे चुनाव से नदारद थे। यहाँ तक कि पार्टी ने अपने कथित विकास कार्यों पर भी वोट नहीं मांगे। पवन बेनीवाल जानते थे कि बीजेपी की टिकट पर ऐलनाबाद में बरोदा से ज़्यादा किरकिरी होने वाली है क्योंकि उनके पास वहाँ कोई योगेश्वर दत्त नहीं है और पवन बेनीवाल तीसरी बार हार कर अपना भाग्य हमेशा के लिए सील नहीं करना चाहते थे।