दीप्ति अंगरीश उम्मीद। सिर्फ एक शब्द नहीं एक अहसास, एक खुशी, एक ऊर्जा, एक सकरात्मक संचार है। भगवान से तो हम सभी उम्मीदें लगाए रहते हैं। कुछ परेशानी होगी तो नीली छतरी वाला हमने डगमगाने नहीं देगा। खैर, यह वाली उम्मीद तो कोई अनोखी नहीं है। हम जिसे अपना मान लेते हैं। फिर चाहे उसे रक्त संबंध न हो। उससे ही उम्मीद बांध लेते हैं। उम्मीद रखना कुछ गलत तो नहीं। यह एक भावना है। इसे रखना हमारा या आपका पंगुपन नहीं दर्शाता। ना ही इसका जाति या वर्ग से कुछ लेना-देना है। भले ही मालदार लोग अकड़ते माल की गर्मी से, पर कभी न कभी उन्हें ईश्वर या ईश्वर प्र्याय इनसान से उम्मीद लगानी पड़ती है। यह बताने का मकसद था कि ऐसा माना जाता है कि उम्मीद सिर्फ साधन विहीन या भाग्यवादी लोग ही रखते हैं। खैर यह गलत सोच है। उम्मीद का खूबसूरत उदारहरण है कोरोना काल। आप सोच रहे होंगे कि जहां हर कोई कोरोना को गरिया रहे हैं। वहीं इसे कोरोना को खूबसूरत कहना मूर्खता होगी। आप काफी हद तक सही कह रहे हैं। पर यह पूरा सच नहीं है। इसकी तह तक जाएं तो कोरोना की खूबसूरती नजर आएगी। यदि कोरोना के विकराल रूप को दरकिनार कर दें। तब इसका दूसरा पक्ष आप समझ पाएंगे। आप नहीं मानते कि कोरोना ने हम सब को बहुत पास ला दिया है। सब को एक-दूजे के करीब आ गए हैं। सब को एक-दूजे से उम्मीद है कि सामने वाला मदद का हाथ थामंगे। इस उम्मीद ने तो नफरतों को भुला दिया है। कारण कोरोना काल से उपजी उम्मीद ही तो है। सही मायने में उम्मीद ने कितनी रंजिशेें, अहम, गुरूर…सब मिटा दिए हैं। इस उम्मीद में छिपी है छोटी सी खुशी और सुकून। अब उम्मीद का सबसे सटीक उदाहरण है ऐक्टर सोनू सूद। याद सोनू ने पिछले साल क्या किया था? हमारे मजदूर वर्ग में उम्मीद की किरण जगाई थी। कोरोना जब पैर पसार रहा था साल 2020 में तो मजदूर वर्ग घबरा गया। उसे चिंता सताने लगी कि काम-धंधा छिन जाने पर वो क्या खाएंगे, कैसे घर चलाएंगे। उस दौर में उनकी चिंता थी कि जिंदा भी रहेंगे कि नहीं। और तो और लाॅकडाउन में वे कैसेे घर जाएंगे। उस दौर में सोनू सूद उनके लिए उम्मीद की किरण बनकर आए थे। सोनू रूपी उम्मीद ने मजदूरों का दिल जीत लिया। और उन्हें अपने खर्चे पर सुरक्षित घर भेजा। इस उम्मीद ने कितनी सकरात्मकता का संचार किया और मजदूरों के चेहरे पर ला दी खुशी। और बदले में उम्मीद ने दी असंख्य दुआएं, जो सोनू को सलामत रखे हुए है और रखेगी। वैसे कोरोना गया नहीं है। अप्रैल 2021 में कोराना कोहराम मचा रहा है। चारों ओर उदासी ही उदासी पसरी हुई है। पर उम्मीद का दामन आप नहीं छोड़ें। सच है, उम्मीद है तो हम हैं। क्या हम बिना किसी उम्मीद से जिंदा रह सकते हैं। शायद बिल्कुल नहीं। उम्मीद ही ऐसी आस है, जो हमें जीवित रखती है। वर्तमान दौर चुनौती है या कोई चक्र? यदि चुनौती है तो किसने दी है? यदि चक्र है तो किसने घुमाया? विज्ञान वरदान है या अभिशाप? यदि वरदान है तो कुछ अंतराल पर लाइलाज शब्द क्यों हमारे सामने आ जाता है? यदि आभिशाप है तो किसने शाप दिया है? भक्ति तीर्थ स्थल में है या अपनी आत्मा में? यदि तीर्थस्थल में है तो भक्ति का चक्र क्यों टूट गया? यदि आत्मा में है तो हम इतने दिनों तक भटक क्यों रहे थे? शक्ति कहां है? दृश्य में या अदृश्य में? प्रकृति और मनुष्य में ताकतवर कौन? तमाम प्रकार के द्वंद्व में फंसकर मनुष्य की हर सांस कोई न कोई सवाल लेकर आ खड़ी हो रही है। आखिर हर क्षेत्र में कुछ न कुछ अति तो अवश्य हुआ है, जिसका परिणाम दुनिया भुगत रही है। लेकिन, यह वक्त हायतौबा करने के बदले आत्मचिंतन का है। आत्मबल मजबूत करने का है। इस सत्य को स्वीकार करना ही होगा कि परिवर्तन का चक्र हमेशा चलता ही रहता है, जिसे हम चुनौती भी कह सकते हैं और सामान्य चक्र भी। जब भी वर्तमान की विकट स्थिति मन को व्यथित करने लगे तो इसे प्राकृतिक चक्र मानकर मनोबल बनाए रखें। लेकिन, तन के लिए इस समय को चुनौती के रूप में स्वीकार कीजिए। चुनौती, संयम बरतने की, सावधानी की, स्वयं को सीमित करने की। यदि हम इस चुनौती का मुकाबला कर लिए तो निश्चित तौर पर यह चक्र भी घूमते हुए सुखद स्थिति तक पहुंच जाएगा। जीवन को अलग थलग अकेले नहीं जिया जा सकता, इस संक्रमण ने हमारी आपसी निर्भरता को रेखांकित किया है। जो चीज कहीं किसी एक व्यक्ति को प्रभावित करती है वो सबको, सभी जगह प्रभावित करेगी, चाहे वह बीमारी हो या अर्थव्यवस्था। भौतिक सुखों और उपभोग की अंधी दौड़ में मनुष्य अकेला बन गया था। परिवार और समाज उसके लिए बंधन मात्र थे। उसका आत्मविश्वास अभिमान की सीमा तक बढ़ गया था जिसने उसे यकीन दिला दिया था कि दूसरों के जीवन को नजरंदाज करके भी, वह अकेले सिर्फ अपने लिए ही जी सकता है। पहले की महामारियों की तुलना में जीन एडिटिंग, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, बिग डाटा आदि कहीं बेहतर तकनीकों से लैस आज का मानव भगवान बनने की कोशिश कर रहा था। यदि उम्मीद को जिंदगी से निकाल फेंकें, तो क्या बचेगा हमारे पास कुछ नहीं। सिर्फ रोना और रोना। यह तो ऐसा हो जाएगा कि बिना पानी और हवा की जिंदगी के लिए जरूरत। बिना उम्मीद के जीएंगे, तो वो दिन दूर नहीं जब लाश बन जाएंगे। उम्मीद पर ही तो सब धरती पर हैं। इसका फिर से बेहरीन उदाहरण हैं सोनू सूद। कुछ दिन पहले खुद सोनू सूद ने टिवटर पर बताया कि वो कोराना पाॅजिटिव हो गए हैं। उनका जज्बा देखिए कैसे उन्होंने टिवटर पर लिखा कि चिंता नहीं करें। मैं बहुत जल्दी ठीक होकर आपकी मदद करूंगा। सोचिए इस पाॅजिटिव जज्बे में छिपी है उनकी उम्मीद। क्योंकि वो जानते हैं कि इस उम्मीद से लाखों मजदूरों की उम्मीद जुड़ी है। हर सभ्यता का उद्देश्य मानव जीवन के अवसरों, उसकी संभावनाओं का संरक्षण और संवर्धन करना होता है। कोरोना सिर्फ व्यक्ति के निजी जीवन के लिए ही नहीं बल्कि सभ्यता के लिए भी चुनौती है। वर्तमान सभ्यता को बचाने के लिए नए मूल्य और मानदंड अपनाने होंगे। Post navigation बेबी को मास्क पसंद और कोरोना को चुनाव भारत में अब तीसरी वैक्सीन की तैयारी, तीसरी वैक्सीन ZyCoV-D