“पैदल चलना पड़ा, बड़ा कष्ट हुआ लेकिन मोदी ने देश को बचा लिया, वोट तो हम फिर भी मोदी को ही देंगे। “
चाटूकारिता की ऐसी भी क्या मजबूरी कि मरते बिलखते लोगों को देखकर भी पत्रकारिता ज़िंदा नहीं हो पा रही है?
जनता की आफ़त पर भारी सुर्खियों की चाहत।
पूछना यह चाहिए कि आपने कितने ऑक्सीजन प्लांट खोले और कितने सिलेंडरों को बनाया?
हद है, हम पुलिस से कोरोना का इलाज करवा रहे है।

अशोक कुमार कौशिक

 अब फिर वही पुरानी नौटंकी शुरू हो गयी। मजदूर पैदल घर लौट रहे हैं, गाड़ी नहीं मिल रही, तीन दिनों से भूखे स्टेशन में बैठे हैं, हजार किलोमीटर पैदल चलकर घर पहुँचे। वगैरह वगैरह। ये सब वही लोग हैं जो कहते थे, “पैदल चलना पड़ा, बड़ा कष्ट हुआ लेकिन मोदी ने देश को बचा लिया। वोट तो हम फिर भी मोदी को ही देंगे। ” शायद सत्ताधारी दल को इसकी भनक है इसीलिए वह जनता की ज्यादा परवाह नहीं करता।

इन्होंने जो चुना इन्हें मिल रहा है, इनके लिए दुखी होने की कोई आवश्यकता नहीं। इंसानियत उसी दिन मर गयी, जब देश लूटने और बेचने वालों को जनता ने दोबारा सत्ता सौंपी थी। अब लोग मर रहे हैं, अच्छी बात है जनता ने स्वयं चुना था अपनी मौत। अब लोगों को अस्पताल नहीं मिल रहे, इलाज नहीं मिल रहा, डॉक्टर नहीं मिल रहा अच्छी बात है, जनता को ये सब चाहिए भी नहीं था। मंदिर-मस्जिद, शमशान, कब्रिस्तान चुना था, वही मिल रहा है। देश की वर्तमान हालत को देखकर भी चुप्पी साधे रखने वाले चुल्लू भर पानी मरना चाहिए उन सभी एंकर, एडिटर, पॉलिटिकल एडिटर और सरकार भक्त पत्रकारों को, जो इतना होने के बाद भी मोदी सरकार से एक सवाल नहीं पूछ पा रहे। चाटूकारिता की ऐसी भी क्या मजबूरी कि मरते बिलखते लोगों को देखकर भी पत्रकारिता ज़िंदा नहीं हो पा रही है?

अब बात करे नेताओं में सुर्खियां बटोरने की चाहत की जो जनता की जान पर आई आफ़त से भारी है। उन्हें हर मौके को एक इवेंट बनाना और उसका श्रेय लेना ज़रूरी लगता है, भले ही कोई उपलब्धि हो या न हो और उसमें उनका कोई योगदान हो या न हो। ऐसे समय जब जनप्रतिनिधियों से ज़्यादा गंभीर, ज़्यादा संवेदनशील होने की अपेक्षा की जाती है, उनका तमाशेबाज बन जाना निराश ही करता है। हमने कल भी इस सिलसिले में लिखा था ।

रविवार को जिस वक़्त सोशल मीडिया पर शहडोल की यह घटना चर्चा में थी, पल-पल ऑक्सीजन की किल्लत से जूझते इंदौर में उसी समय अलग ही प्रहसन खेला जा रहा था। गुजरात के जामनगर से ऑक्सीजन लेकर आ रहे एक टैंकर को शहर के चंदननगर चौराहे पर रोका गया। भाजपा के नगर अध्यक्ष गौरव रणदिवे के नेतृत्व में उनकी पार्टी के कुछ और लोगों ने टैंकर पर फूल-मालाएं चढ़ाईं, इस बीच मंत्री तुलसी सिलावट भी वहां पहुँच गए। मीडिया को चूंकि पहले ही इत्तला कर गई थी, तो फ़ोटो-शोटो हुए, वीडियो बनाए गए। थोड़ी देर बाद कलेक्टर और उनके अधीनस्थ वहां पहुंचे और टैंकर अपने साथ ले गए। लेकिन ये किस्सा यहीं ख़त्म नहीं हुआ।

यह टैंकर जब ऑक्सीजन प्लांट पर पहुंचा, तो भाजपा के सांसद शंकर लालवानी, विधायक रमेश मेंदोला और आकाश विजयवर्गीय वहां मौजूद थे। उन्होंने भी टैंकर को सफ़ेद – नीले गुब्बारों से सजाया और एक पंडित को बुलाकर बाकायदा उसकी पूजा वगैरह करवाई। फ़ोटो और वीडियो तो यहाँ भी होना ही थे, सो हुए। इसके बाद कहीं जाकर ऑक्सीजन को टैंकर से प्लांट में डालने की कार्रवाई शुरू हो सकी, जिसमें तकरीबन दो घंटे का वक़्त लगता है। गौरतलब है कि 7 सौ किलोमीटर का सफ़र टैंकर के ड्राइवर और उसके साथी ने बिना रुके पूरा किया। उन्होंने खाना तक नहीं खाया कि वे समय पर अपने गंतव्य को पहुँच सकें। उन्हें अंदाज़ नहीं था कि इंदौर में उन्हें ऐसे तमाशे से दो-चार होना पड़ेगा।

और यह सब तब हुआ जब देश में चारों तरफ ऑक्सीजन के लिए हाहाकार मच रहा है, ऑक्सीजन न मिलने से या कम मिलने से कोरोना मरीजों का दम निकला जा रहा है। मध्यप्रदेश में कहीं गुजरात से, कहीं छत्तीसगढ़ से ऑक्सीजन मंगवाई जा रही है। दूरदराज के शहरों से ख़ाली टैंकरों का बंदोबस्त किया जा रहा है। उन्हें मंज़िल तक पहुँचने में कोई रूकावट न आये, इसके लिए मुख्यमंत्री ने उन्हें एम्बुलेंस का दर्जा दे दिया है। सैकड़ों किलोमीटर के ग्रीन कॉरिडोर बनाए जा रहे हैं। ऑक्सीजन को लेकर सरकार की गंभीरता का उदाहरण यह है कि भोपाल आते हुए एक ऑक्सीजन टैंकर पलट गया तो आनन-फानन में क्रेनों का इंतज़ाम कर उसे सीधा करवाया गया और पुलिस-प्रशासन की सुरक्षा में उसे भोपाल लाया गया। ऐसा नहीं है कि कोई ऑक्सीजन टैंकर पहली बार इंदौर आया हो। लेकिन इस दफ़ा उसका ‘स्वागत’ क्या इसलिए किया गया कि वह ‘गुजरात’ से आया था ? 

ऑक्सीजन प्लांट खोलना कोई बहुत बड़ा काम नहीं है। हमारी मूर्खता देखिये, सालभर से यह तांडव चल रहा है और हम जानते थे कि ऑक्सीजन ही इस बीमारी का इलाज है। अगर सरकार सालभर में कुछ प्लांट स्वयं खोल लेती और छोटे छोटे प्लांट खोलने के लिए निजी लोगों को कर्ज पर अनुदान दिए देती तो आज ऑक्सीजन की बरसात होती, इतनी ऑक्सीजन होती कि रखने की जगह नहीं होती। इसकी मांग नहीं है इसलिए लोग इस धंधे में कम हाथ डालते है पर सरकार को तो सोचना चाहिए था यह जीवन रक्षक है हमे ही इसे बनाना होगा। सरकार पूरी तरह निजी लोगों के ही जिम्मे बैठी थी। 

पूछना यह चाहिए कि आपने कितने ऑक्सीजन प्लांट खोले और कितने सिलेंडरों को बनाया? इतनी खतरनाक महामारी से निपटने के लिए हम केवल हवलदारों के जिम्मे बैठे थे, तौबा है। हवलदार लोगों को लाठियां मारते रहे और कोरोना का इलाज करते रहे। हद है, हम पुलिस से कोरोना का इलाज करवा रहे है। अब जब हाहाकार मचा तो बेचारे चार ऑक्सीजन बेचने वालों की कॉलर पकड़ ली है और उनसे मार मार कर ऑक्सीजन मांग रहे है। तुम क्या घास चरने गए थे?

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