यही तो विधि का विधान है, कि “पाप” कभी छिप नहीं सकता ।
सरकार इस भ्रष्टाचार के बारे में न कुछ सुनना चाहती है, न कहना चाहती है।
एक याचिका को सुप्रीम कोर्ट ने 14 नवंबर, 2019 को यह कहते हुए ख़ारिज कर दिया था कि इस मामले की जांच की ज़रूरत नहीं।
राहुल गांधी से अधिक नुकसान जनता का हुआ, जो तर्कों की कसौटी पर किसी चीज को परखने की आदत छोड़ रही है।
जवाब आर्थिक डील पर मांगा गया न कि निर्माण में लगने वाली सामग्रियों का तो फिर सुरक्षा पर खतरा कैसे?
जिस कंपनी को खुले ही 27 दिन हुए, एक जहाज़ तक नहीं बनाया उसे अचानक ही इतनी बड़ी डील कैसे मिली? 
मुख्यधारा के बड़े पत्रकारों, मीडिया चैनलों और सबसे अधिक सरकार की चुप्पी सौदे में अंधेरे को और गहरा रही है।

अशोक कुमार कौशिक

 याद है, राफेल सौदे से पहले प्रिवेंशन आफ करप्शन एक्ट को कमजोर किया गया। लोकपाल कानून को लुंजपूंज बनाया गया, और राफेल के सीबीआई जांच अधिकारी आलोक वर्मा को जबरन हटाया गया ताकि “दलाली” छिपी रहे । लेकिन यही तो विधि का विधान है, कि “पाप” कभी छिप नहीं सकता ।

राफेल में इतने झोल हैं जितने बोफोर्स में भी नहीं थे लेकिन फिर भी मंत्रमुग्ध होना नया राजकीय धर्म है तो, हुए रहिए। फ्रांस में “मीडियापार्ट” नाम के पब्लिकेशन ने कुछ ऐसा छापा कि फिर से राफेल की दाल में काला दिखने लगा है । अब “राष्ट्रीय सुरक्षा”, “राष्ट्रीय गौरव”, “राष्ट्रीय सम्मान” जैसे जुमलों का झुरमुट छांट दें तो जो दिखेगा उसमें जो दिखेगा तो वो है बोफोर्स जैसी दलाली का शक़।

भारतीय वायुसेना के बेड़े में अब तक 14 जंगी राफ़ेल विमान शामिल हो चुके हैं। इसे भारत की बड़ी ताकत माना जा रहा है। लेकिन इस जंगी विमान की सौदेबाजी में जिस तरह की भ्रष्टाचार की खबरें सामने आ रही हैं, उससे ऐसा लगता है कि हमारी सेनाएं भले मजबूत हो जाएंगी, देश इस भ्रष्टाचार के कारण भीतर से खोखला हो जाएगा। उससे भी बड़ा डर ये है कि सरकार न इस भ्रष्टाचार के बारे में कुछ सुनना चाहती है, न कहना चाहती है।

इस फाइटर जेट विमान को लेकर घोटाले के आरोप लग रहे हैं। इसके लिए आवाज़ उठाने वाली काँग्रेस को भ्रष्ट व नेता राहुल गांधी को पप्पू कहकर इग्नोर किया जाता रहा। सबसे पहले यह मुद्दा मनीष तिवारी ने उठाया था। यदि उन्हीं को आगे भी रखा जाता तो शायद इसका सच पिछली सरकार के वक्त ही नँगा हो जाता। क्योंकि राहुल की इमेज बीजेपी ने करोड़ों रुपयों के दम पर गलत पेश की हुई है, वे कोई भी बात करते हैं तो मध्यम वर्ग उन्हें गम्भीरता से लेने के बजाय मज़ाक करने लगता है। तब ऐसे व्यक्ति की आवश्यकता चाहिए जो इसकी काट बने, जिसे कोई मज़ाक में न ले। क्या है पूरा मामला? पूरा पढ़ियेगा तब समझ आएगा और आप समझेंगे भारत में वह नारा क्यों बना।

कांग्रेस सांसद राहुल गांधी फ्रांस से राफ़ेल के सौदे में गड़बड़ी की बात शुरु से उठाते रहे हैं। यूपीए सरकार के वक्त ही यह तय कर लिया गया था कि फ्रांस से राफ़ेल विमान ख़रीदना है। लेकिन तब जितने विमानों का, जितनी कीमत पर सौदा हुआ था, एनडीए सरकार में उसके काफी फेरबदल हो गया। राहुल गांधी ने दो साल पहले ही कहा था कि जिस लड़ाकू विमान को यूपीए सरकार ने 526 करोड़ रुपए में लिया था, उसे एनडीए सरकार ने 1670 करोड़ प्रति विमान की दर से लिया।

कांग्रेस ने यह भी सवाल उठाया था कि सरकारी एयरोस्पेस कंपनी हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड को इस सौदे में शामिल क्यों नहीं किया गया। इस फ़ैसले के ख़िलाफ़ लगाई गई याचिका को सुप्रीम कोर्ट ने 14 नवंबर, 2019 को यह कहते हुए ख़ारिज कर दिया था कि इस मामले की जांच की ज़रूरत नहीं है। भाजपा तो अपने ऊपर लगे आरोपों को नकारती ही थी, सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद वह कुछ और दिलेरी के साथ यह बताने में लग गई कि राफ़ेल सौदे में कहीं कोई गड़बड़ी नहीं हुई है।

जो वाजिब सवाल कांग्रेस की ओर से उठाए गए थे, उन्हें न केवल ख़ारिज किया गया, बल्कि जनता के सामने यह साबित करने की कोशिश की गई कि कांग्रेस गुमराह कर रही है। वैसे यहां ज़िक्र करना उचित होगा कि राहुल गांधी ने नोटबंदी, जीएसटी, कोरोना का प्रसार रोकने की रणनीति, लॉकडाउन आदि फैसलों को लेकर भी जो आशंकाएं जतलाईं, वे बाद में सही साबित हुईं। लेकिन भाजपा और सरकार भक्तों ने एक नौसिखिए राजनेता के रूप में उनकी छवि बनाने की कोशिश जनता के बीच की। हालांकि इसमें राहुल गांधी से अधिक नुकसान जनता का हुआ, जो तर्कों की कसौटी पर किसी चीज को परखने की आदत छोड़ रही है।

उसके बाद एक वर्ष तक इस पर कोई चर्चा नहीं होती, जो सरकार आते से ही इस पर काम करती चली वह अचानक से सुस्त हो जाती है। फिर अनिल अंबानी  पिपावाव, गुजरात में 6 सितम्बर 2017 को रिलायंस डिफेंस की स्थापना करते हैं और 27वें दिन ही उन्हें भारत में राफेल निर्माण की डील मिल जाती है। सोचिए जिस कंपनी को खुले ही 27 दिन हुए, एक जहाज़ तक नहीं बनाया उसे अचानक ही इतनी बड़ी डील कैसे मिली? और एक वर्ष क्यों लगा? क्योंकि एचएएल के अलावा कोई अन्य विमान निर्माता कंपनी नहीं थी देश में, इन्हें तो अपने मालिकों के ही भला करना था। तब तय हुआ कि अनिल अंबानी एक कंपनी खोलेंगे और उसके बनते ही उन्हें डील सौंपी जाएगी। कंपनी निर्माण में एक वर्ष लग गए।

बहरहाल, राफ़ेल विमानों के सौदे में भ्रष्टाचार की बात एक बार फिर निकली है और इस बार खुलासा किया है फ्रांस की एक समाचार वेबसाइट ने। मीडियापार्ट नामक इस वेबसाइट ने अपनी सरकार पर भी सवाल उठाए हैं। मीडियापार्ट की रिपोर्ट के मुताबिक राफ़ेल बनाने वाली फ्रांसीसी कंपनी दसॉ ने भारत में एक बिचौलिये को एक मिलियन यूरो ‘बतौर गिफ़्ट’ दिए थे। साल 2017 में दसॉ ग्रुप के खाते से 5 लाख 8 हजार 925 यूरो ‘गिफ्ट टू क्लाइंट्स’ के तौर पर ट्रांसफ़र हुए थे। इस बात का खुलासा तब हुआ, जब फ्रांस की भ्रष्टाचार निरोधक एजेंसी एएफ़ए  ने दसॉ के खातों का ऑडिट किया। मीडियापार्ट की रिपोर्ट के मुताबिक, खुलासा होने पर दसॉ ने सफाई में कहा था कि इन पैसों का इस्तेमाल राफ़ेल लड़ाकू विमान के 50 डमी ‘मॉडल’ बनाने में हुआ था लेकिन ऐसे कोई मॉडल बने ही नहीं थे।

एएफ़ए की जांच के दौरान दसॉ एविएशन ने बताया कि उसने राफेल विमान के 50 मॉडल एक भारतीय कंपनी से बनवाए। इन मॉडल के लिए 20 हजार यूरो यानी 17 लाख रुपए प्रति पीस के हिसाब से भुगतान किया गया। हालांकि यह मॉडल कहां और कैसे इस्तेमाल किए गए, इसका कोई प्रमाण नहीं दिया गया है। रिपोर्ट के मुताबिक मॉडल बनाने का काम कथित तौर पर भारत की कंपनी डेफ़सिस साल्यूशंस को दिया गया। फ्रांसीसी रिपोर्ट का दावा है कि ऑडिट में ये बात सामने आने के बाद भी एजेंसी ने कोई कार्रवाई नहीं की, जो फ्रांस के राजनेताओं और न्याय व्यवस्था की मिलीभगत को भी दिखाता है।

रिपोर्ट सामने आने के बाद अब राफेल का मामला फिर गरमा गया है। कांग्रेस ने एक बार फिर मोदी सरकार से कुछ सवाल पूछे हैं जैसे 1.1 मिलियन यूरो के जो क्लाइंट गिफ़्ट दसॉ के ऑडिट में बताया गया है, क्या वो राफ़ेल डील के लिए बिचौलिये को कमीशन के तौर पर दिए गए थे? जब दो देशों की सरकारों के बीच रक्षा समझौता हो रहा है, तो कैसे किसी बिचौलिये को इसमें शामिल किया जा सकता है? क्या इस पूरे मामले की जांच नहीं की जानी चाहिए, ताकि पता चल सके कि डील के लिए किसको और कितने रुपए दिए गए?

अभी फ्रांस की वित्तीय मामलों की जाँच ऐजेंसी ने पाया कि दसॉल्ट ने भारतीय दलाल को €1 Million (₹8.26 करोड़) गिफ्ट के तौर पर दिए। एक तरफ बवाल है तो दूसरी तरफ मज़ाक में लिया जा रहा है कि इतनी बड़ी डील में एजेंट को सिर्फ सवा 8 करोड़ मिल गया, इससे ज़्यादा तो यूपीए के वक्त मिलता था। गौरतलब है कि हमारे प्रधानमंत्री दावा करते हैं कि उन्होंने दलाल सिस्टम खत्म कर दिया है और 1 पैसे भी दलाली में नहीं जाते, फिर यह क्या है? और तो और यह खुलासा तो सिर्फ फ्रांस की तरफ से हुआ है। कैग इसकी ईमानदारी से जाँच करे तो यहाँ कितनी दलाली मिली और कितनी वित्तीय गड़बड़ी हुई सबकी कलई खुल सकती है।

काँग्रेस ने आपत्ति दर्ज की, कहा कि कोई घोटाला हुआ है। अम्बानी को एक ही माह में डील मिलने से लेकर विमानों के पहले से महंगे भाव पर खरीदने तक पर आवाज़ उठाई। सरकार ने हर तरह से जवाब देने में आनाकानी की, कोर्ट को मिसलीड किया, जवाब देने से देश की सुरक्षा को खतरा बताया। कमाल की बात है, जवाब आर्थिक डील पर मांगा गया न कि निर्माण में लगने वाली सामग्रियों का तो फिर सुरक्षा पर खतरा कैसे? इस पर जवाब तो हर सरकार को देना पड़ता है।

कांग्रेस, प्रधानमंत्री मोदी से जवाब मांग रही है, लेकिन उनकी प्राथमिकता फिलहाल भाजपा के लिए चुनाव प्रचार करना है। फ्रांस के मीडिया ने तो इस सौदे पर नए सिरे से सवाल उठाए हैं, लेकिन भारत में मुख्यधारा के कई बड़े पत्रकारों और मीडिया चैनलों और सबसे अधिक सरकार की चुप्पी सौदे में अंधेरे को और गहरा रही है।

अब एक बार फिर से राफेल खरीदने की वो हड़बड़ी, एन राम का खुलासा कि पीएमओ अलग से हस्तक्षेप कर रहा था, लोकसभा का हंगामा, बोफोर्स से लेकर सारे रक्षा सौदे याद आने लगे हैं। हालांकि कोई नई ख़बर फिर इसे ढक देगी इसमें क्या शक़ है।

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