* फैसला ये है कि 250 बलात्कार की सजा 10 साल। 
* ये रेप केवल प्रभावशाली परिवार की हिंदू लड़कियों से हुआ था ।
* इस कहानी में अजमेर है, चिश्ती हैं, रेप है और ब्लैकमेलिंग है।
* आशाराम और राम रहीम पर सवाल करने वाले क्या अजमेर कांड में कठोर सजा कराएंगे? या केवल धर्म के नाम पर चासनी दी जाएगी?

अशोक कुमार कौशिक 

सन् 1992 लगभग 25 साल पहले सोफिया गर्ल्स स्कूल अजमेर की लगभग 250 से ज्यादा हिन्दू लडकियों का रेप। जिन्हें लव जिहाद/प्रेमजाल में फंसा कर,न केवल सामूहिक बलात्कार किया बल्कि हर लड़की का रेप कर उसकी फ्रेंड/भाभी/बहन आदि को लाने को कहा। एक पूरा रेप चेन सिस्टम बनाया जिसमें पीड़ितों की न्यूड तस्वीरें लेकर उनका व्यावसायिक रूप से प्रयोग भी किया गया।

90 के दशक का अजमेर। पत्रकार संतोष गुप्ता अपने दफ्तर में बैठे रहते थे। वहाँ लोगों का आना-जाना लगा रहता था, जो अचानक से ही बढ़ गया था। पूरे 90 के दशक में लोग लड़की की तस्वीर लेकर आते और पूछते थे- “क्या ये वही लड़की है?” दरअसल, वो ऐसे लोग होते थे, जिनकी शादी होने वाली होती थी और वो पहले ही इस बात की पुष्टि करना चाहते थे कि कहीं उनकी होने वाली पत्नी बलात्कार की शिकार तो नहीं। इस कहानी में अजमेर है, चिश्ती हैं, रेप है और ब्लैकमेलिंग है।

यह क्रम अजमेर रेप-कांड का भाँडाफोड़ किए जाने के बाद से लेकर पूरे 90 के दशक के अंत तक चला था। उस समय भले इंटरनेट नहीं था लेकिन इस रेप व ब्लैकमेल स्कैंडल की ख़बरें लोगों के बीच आग की तरह फैली थी। डिप्रेस्ड होकर इन लड़कियों ने आत्म- हत्या जैसा कदम उठाया। एक ही स्कूल की लड़कियों का एक साथ सुसाइड करना खौफनाक सा था।  एक समय अंतराल में 6-7 लड़कियां ने आत्महत्या की थी। सब लड़कियां नाबालिग और 10वी,12वी में पढने वाली मासूम बच्चियां थी। आश्चर्य की बात यह थी कि रेप की गई लड़कियों में आईएएस, आईपीएस की बेटियां भी थीं। ये लड़कियां किसी गरीब या मिडिल क्लास बेबस घरों से नहीं,बल्कि अजमेर के जाने-माने घरों से आने वाली बच्चियां थीं। 

फरवरी 15, 2018, पुलिस ने इसी दिन इस केस के मुख्य आरोपित सुहैल गनी चिश्ती को गिरफ़्तार किया। इस ख़बर के बाद ही लोगों के बीच लगभग 3 दशक पहले की यादें ताज़ा हो गईं। अजमेर के लोग इस केस पर आज भी बात करने से हिचकिचाते हैं। आखिर बात करें भी तो क्या? ये वो केस है, जिसके बारे में वो समझते हैं कि इसने इस शहर को पूरी दुनिया में बदनाम कर के रख दिया।

ये यहीं के लोग थे, खादिम थे। प्रभावशाली थे, अमीर थे और सफेदपोश थे। राजनीति में पैठ रखते थे। वो अपराधी नहीं दिखते थे, वो समाजसेवी के कलेवर में थे। कुल 8 लोगों के खिलाफ शुरुआत में मामला दर्ज किया गया था। इसके बाद जाँच हुई और 18 आरोपित निकले।ये वही लोग थे, जिन पर सूफी फ़क़ीर कहे जाने वाले ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती दरगाह की देखरेख की जिम्मेदारी थी। ये वही लोग थे, जो ख़ुद को चिश्ती का वंशज मानते हैं। उन पर हाथ डालने से पहले प्रशासन को भी सोचना पड़ता। अंदरखाने में बाबुओं को ये बातें पता होने के बावजूद इस पर पर्दा पड़ा रहा। फारूक चिश्ती, नफीस चिश्ती और अनवर चिश्ती, इस बलात्कार कांड के मुख्य आरोपी थे जो कांग्रेस के कद्दावर नेता भी थे। 

अजमेर दरगाह अनुमान कमिटी के जॉइंट सेक्रेटरी मोसब्बिर हुसैन ने एक बार ‘इंडियन एक्सप्रेस’ से बात करते हुए कहा था कि ये हमारे शहर पर लगा एक बदनुमा धब्बा है। संतोष गुप्ता ने इस केस का खुलासा अप्रैल 1992 को किया था। उन्होंने लड़कियों पर हुए अत्याचार की व्यथा को देश के सम्मुख रखा था। इसे भारत का अब तक का सबसे बडा सेक्स स्कैंडल माना गया था।

ओमेंद्र भारद्वाज तब अजमेर के डीआईजी थे, जो बाद में राजस्थान के डीजीपी भी बने। उनका कहना था कि आरोपित वित्तीय रूप से इतने प्रभावशाली थे और राजनीतिक और सामाजिक रूप से ऐसी पहुँच रखते थे कि पीड़िताओं को बयान देने के लिए प्रेरित करना पुलिस के लिए एक चुनौती बन गया था। जो भी लड़ने के लिए आगे आता, उसे धमका कर बैठा दिया जाता, उनकी आवाज उठाने वाली स्वयंसेवी संस्था को भी भागना पड़ा। अधिकारियों ने कम्युनल टेंशन न हो जाये, इसका हवाला दे कर आरोपियों को बचाया। 

18 आरोपितों में से एक ने आत्महत्या कर ली। फारूक चिश्ती तब यूथ कांग्रेस का नेता हुआ करता था, जिसे मानसिक रूप से विक्षिप्त घोषित कर दिया गया। ऐसा नहीं है कि सुनवाई नहीं हुई। सेशन कोर्ट ने 1998 में 8 आरोपितों को आजीवन कारावास की सज़ा तो सुनाई लेकिन इसके 3 सालों बाद 2001 में राजस्थान हाईकोर्ट ने इनमें से 4 को बरी कर दिया।

2003 में सुप्रीम कोर्ट ने मोइजुल्लाह उर्फ पट्टन, इशरत अली, अनवर चिश्ती और शमशुद्दीन उर्फ मैराडोना की सज़ा ही कम कर डाली। इन सबको मात्र 10 वर्षों का कारावास मिला। इनमें से 6 के ख़िलाफ़ अभी भी मामला चल रहा है। सुहैल चिश्ती 2018 में शिकंजे में आया था। एक आरोपित अलमास महाराज फरार है, जिसके ख़िलाफ़ सीबीआई ने रेड कॉर्नर नोटिस तक जारी कर रखी है। लोगों का मानना है कि वो अमेरिका में हो सकता है।

2007 में मानसिक विक्षिप्त घोषित आरोपित फारूक चिश्ती को अजमेर की एक फ़ास्ट ट्रैक अदालत ने दोषी मान कर सज़ा सुनाई और राजस्थान हाईकोर्ट ने इस निर्णय को बरकरार भी रखा। लेकिन, हाईकोर्ट ने उसके द्वारा तब तक जेल में बिताई गई अवधि को ही सज़ा मान लिया। चिश्तियों में अभी सिर्फ़ सलीम और सुहैल ही जेल में है। 

एक और चीज जानने लायक है कि उस समय पी वी नरसिम्हा राव देश के प्रधानमंत्री थे और कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष भी वही हुआ करते थे। पूरे 5 सालों तक उन्होंने सरकार और संगठन को चलाया था। फारूक चिश्ती इंडियन यूथ कांग्रेस के अजमेर यूनिट का अध्यक्ष था। नफीस चिश्ती कांग्रेस की अजमेर यूनिट का उपाध्यक्ष था। अनवर चिश्ती अजमेर में पार्टी का जॉइंट सेक्रेटरी था। ऐसे में ये कहा जा सकता है कि शक्तिशाली पार्टी, उसकी तुष्टिकरण की नीति और आरोपितों का समाजिक व वित्तीय प्रभाव- इन सबने मिल कर न्याय की राह में रोड़े खड़े कर दिए थे।

अक्टूबर 1992 में एक पत्रकार मैदान सिंह की हत्या कर दी गई थी, जो अजमेर में ‘लहरों की बरखा’ नामक दैनिक पत्रिका का संचालन करते थे। हॉस्पिटल में घुस कर उन्हें मार डाला गया था। इस हत्याकांड के लिंक इसी सेक्स स्कैंडल से जुड़े थे। इससे पहले भी उन पर गोलीबारी हुई थी, जिसमें उन्होंने कांग्रेस के पूर्व विधायक डॉक्टर राजकुमार जयपाल को आरोपित बनाया था। इसके अलावा नेता के दोस्त सवाई सिंह को भी आरोपित बनाया गया था, जो अजमेर का लोकल माफिया था।

इन सबके बावजूद पुलिस ने उनके बयान को नज़रअंदाज़ किया और पत्रकार मैदान सिंह की हत्या कर दी गई। एक अन्य आरोपित नरेंद्र सिंह की गिरफ़्तारी के बाद ही पुलिस ने कांग्रेस नेता को गिरफ्तार किया। इसके पीछे पुलिस को एक बड़े राजनीतिक-आपराधिक गठजोड़ की बू आई थी।

इस स्कैंडल को सामने लाने वाले ‘नवज्योति’ के संपादक रहे दीनबंधु चौधरी ने कहा था कि वो इसी उलझन में थे कि लड़कियों के खिलाफ हुए अत्याचार को तस्वीरों के जरिए बयाँ किया जाए या नहीं। फिर उन्होंने आगे बढ़ने का निश्चय किया और इन तस्वीरों के सामने आने के बाद ही प्रशासन की तंद्रा टूटी और वो भी तब, जब लोग सड़कों पर उतर आए।

उस वक़्त अजमेर में 350 से भी अधिक पत्र-पत्रिका थी और इस सेक्स स्कैंडल के पीड़ितों का साथ देने के बजाए स्थानीय स्तर के कई मीडियाकर्मी उल्टा उनके परिवारों को ब्लैकमेल किया करते थे। आरोपितों को छोड़िए, इस पूरे मामले में समाज का कोई भी ऐसा प्रोफेशन शायद ही रहा हो, जिसने एकमत से इन पीड़िताओं के लिए आवाज़ उठाई हो। 

फारूक चिश्ती ने सोफिया गर्ल्स स्कूल की 1 हिन्दू लड़की को प्रेमजाल में फंसा कर एक दिन फार्म हाउस पर ले जा कर सामूहिक बलात्कार करके, उसकी न्यूड तस्वीरें लीं और तस्वीरो से ब्लैकमेल कर उस लड़की की सहेलियों को भी लाने को कहा । एक के बाद एक लड़की के साथ पहले वाली लड़की की तरह फार्म हाउस पर ले जाना बलात्कार करना न्यूड तस्वीरें लेना, ब्लैकमेल कर उसकी भी बहन/सहेलियों को फार्म हाउस पर लाने को कहना और उन लड़कियों के साथ भी यही घृणित कृत्य करना। 

उस समय कैमरे डिजिटल नहीं अपितू रील वाले होते थे, जिसे स्टूडियो में ले जाकर प्रिंट (फोटो) निकलवाना पड़ता था । इन लोगों में लैब के मालिक के साथ-साथ नेगटिव से फोटोज डेवेलप करने वाला टेकनिशियन भी था। यह ब्लैकमेलर्स स्वयं तो बलात्कार करते ही, अपने नजदीकी अन्य लोगों को भी “ओब्लाइज” करते थे। वो जगह भी मुसलमानों कि थी। मौके का फायदा उठा इन्होंने भी उनका बलात्कार किया और बाद में इनके मुस्लिम पड़ोसियों ने भी रेप किया।

 ये भी कहा जाता है कि स्कूल की इन लड़कियों का व्यावसायिक प्रयोग होने लगा था, किसी को कोई काम करवाना होता तो वो इन बच्चियों को उन्हें सौंप देता, जिससे रेप करने में नेता,सरकारी अधिकारी भी शामिल हो गए थे । पीड़ित लड़कियों और उनके परिवारों से सबने रकम ऐंठे। ऐसे में भला कोई न्याय की उम्मीद करे भी तो कैसे? कभी 29 पीड़ित महिलाओं ने बयान दिया था, आज गिन कर इनकी संख्या 2 है। सिस्टम ने हर तरफ से इन्हें तबाह किया।

सामाजिक स्तर पर इस केस का एक बुरा असर ये पड़ा था कि अजमेर की लड़कियों की शादी कराने में काफी मशक्कतें करनी पड़ती थीं। लोग उनके चरित्र पर सवाल उठाते थे। पूरे शहर को एक ही नज़र से देखा जाने लगा था।

जब ये केस सामने आया था, तब अजमेर कई दिनों तक बन्द रहा था। लोग सड़क पर उतर गए थे और प्रदर्शन चालू हो गए थे। जानी हुई बात है कि आरोपितों में से अधिकतर समुदाय विशेष से थे और पीड़िताओं में सामान्यतः हिन्दू ही थीं। 28 साल से केस चल रहा है। कई पीड़िताएँ अपने बयानों से भी मुकर गईं। कइयों की शादी हुई, बच्चे हुए, बच्चों के बच्चे हुए। 30 साल में आखिर क्या नहीं बदल जाता?

हमारी सामाजिक संरचना को देखते हुए शायद ही ऐसा कहीं होता है कि कोई महिला अपने बेटे और गोद में पोते को रख कर 30 साल पहले ख़ुद पर हुए यूँ जुर्म की लड़ाई लड़ने के लिए अदालतों का चक्कर लगाए। शायद उन महिलाओं ने भी इस जुल्म को भूत मान कर नियति के आगोश में जाकर अपनी ज़िंदगी को जीना सीख लिया है और उनमें से अधिकतर अपने हँसते-खेलते परिवारों के बीच 30 साल पुरानी दास्तान को याद भी नहीं करना चाहतीं।

भाजपा मुख्यमंत्री भैरों सिंह शेखावत की सरकार ने जाँच के आदेश तो दिए लेकिन तब तक काफ़ी देर हो चुकी थी। इस केस पर बाद में टीवी मीडिया पर शो से लेकर किताबें तक लिखी गईं लेकिन एक चीज जो आज तक कहीं नहीं दिखा, वो है- न्याय। अगर उस समय पुलिस ने इस केस में आरोपितों पर शिकंजा कसा होता तो शायद उन्हें फाँसी की सज़ा भी मिल सकती थी।

एक बलात्कार की सजा 10 साल तो लगभग 250 बलात्कार की सजा कितनी होनी चाहिए थी? आशाराम और राम रहीम को बलात्कारी हिन्दू कहकर बदनाम किया गया था। बिकाऊ मिडिया ने तो इन मामलों पर एक से बढ़कर एक जानकारी परोसने की होड़ मची थी। खेद है कि आज विकाऊ मीडिया वाला इसे दरगाह के खादिमों द्वारा बलात्कार और मुस्लिम बलात्कारी नहीं कहता । 

सबसे बड़ी बात सरकार और उनकी शीर्ष जांच एजेंसियों के ईमानदार अधिकारियों पर भी लागू होती है जो एक ना मालूम द्वारा लिखी गई चिट्ठी को आधार बनाकर राम रहीम को शिकंजो के पीछे डाल सकते हैं। वह अब तक इस मामले में चुप क्यों हैं? शीर्ष अदालत भी स्वत संज्ञान क्यों नहीं लेती । वास्तव में कानून की आंख पर पट्टी बंधी हुई है? सदा से हर चीज को केवल राजनीति इस्तेमाल के लिए उपयोग में लाया जाता है। 

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