यज्ञ और युद्ध के गर्भ में छिपी है शांति: धर्मदेव

यज्ञ हो अथवा युद्ध हो दोनों में ही बुराइयों से संघर्ष.
बुराइयों और शत्रुओं पर विजय प्राप्त करना श्रेष्ठ कार्य
भारतीय सनातन संस्कृति समरसता शांति की समर्थक

फतह सिंह उजाला

पटौदी ।   बीते माह 14 जनवरी को आरंभ की गई 17वीं कठोर कल्पवास साधना के समापन के मौके पर शनिवार को महामंडलेश्वर स्वामी धर्मदेव महाराज ने कहा कि युद्ध हो अथवा यज्ञ हो, इन दोनों के अपने विधि-विधान और नियम हैं । यज्ञ अनुष्ठान करें या फिर युद्ध का मैदान हो , इस के गर्भ में केवल और केवल शांति ही छिपी हुई है । यह बात अलग है की यज्ञ और युद्ध के समापन के बाद एकमात्र  परिणाम शांति के रूप में ही सामने आता है । यह बात संस्कृत भाषा के विद्वान, वेदों और धर्म ग्रंथों के मर्मज्ञ महामंडलेश्वर धर्मदेव ने खास बातचीत के दौरान कही ।

इससे पहले माघ माह में अनादि काल से की जाती आ रही कल्पवास साधना के संदर्भ में उन्होंने इस साधना के बारे में विस्तार से चर्चा भी की । उन्होंने बताया कि माघ माह में की जाने वाली कल्पवास साधना का भारतीय धर्म-कर्म और सनातन संस्कृति में एक अपना अलग ही महत्व और स्थान है । साधु संत जन कल्याण के लिए ही कल्पवास साधना करते आ रहे हैं । शनिवार को कल्पवास साधना के अंतिम दिन प्रातः के समय देवी देवताओं का आह्वान कर अनेक श्रद्धालुओं की मौजूदगी में भगवान शंकर महादेव का रुद्राभिषेक किया जाने के साथ ही हवन करते हुए देश के समग्र विकास, प्रत्येक मनुष्य की समृद्धि का संकल्प लेकर और खासतौर से कोरोना की महामारी से छुटकारा पाने के लिए सामुहिक आहुतियां अर्पित की गई।

महामंडलेश्वर धर्म देव ने कहा की साधु संत कठोर तपस्या करते हुए विभिन्न प्रकार के विकारों से समाज को छुटकारा दिलाने के लिए कठोर जब तक करते हुए स्वयं भी कहीं ना कहीं दुख और पीड़ा को भी सहन करते हुए हरण करते हैं । इसी प्रकार से युद्ध के दौरान एक सैनिक केवल मात्र इसी लक्ष्य को लेकर दुश्मन से लोहा लेता है कि उसे भी समाज और राष्ट्र की रक्षा करते हुए सुख समृद्धि को बनाए रखने में अपना योगदान देना है । यज्ञ और युद्ध को परिभाषित करते हुए महामंडलेश्वर धर्मदेव ने कहा की यज्ञ और युद्ध दोनों में ही परोक्ष-अपरोक्ष विभिन्न प्रकार के शत्रुओं का नाश करके अथवा विजय प्राप्त कर केवल मात्र शांति को स्थापित करना ही मुख्य उद्देश्य रहता है ।

उन्होंने अपने 1 माह की कठोर कल्पवास साधना के प्राप्त होने वाले ईश्वरीय आशीर्वाद और फल का सबसे अधिक हिस्सा  अथवा भाग अयोध्या में बन रहे भगवान श्री राम के मंदिर और इस कार्य में जुटे सभी राम भक्तों के लिए समर्पित किया । उन्होंने कहा जो कुछ भी एक माह की कठोर साधना के बाद फल प्राप्त हुआ है , उसमें से रत्ती भर भी अपने किसी भी लाभ अथवा फायदे के लिए नहीं चाहिए। इस मौके पर दिल्ली , उत्तर प्रदेश ,उत्तराखंड , राजस्थान सहित अन्य स्थानों से आए हुए हजारों श्रद्धालुओं को ही अपनी तपस्या का फल प्रसाद के रूप में भेंट कर दिया । लेकिन महामंडलेश्वर धर्मदेव को इस बात का भी कहीं ना कहीं कमी का एहसास हुआ कि कोरोना महामारी की वजह से अन्य वर्षो की भांति इस बार अनेक श्रद्धालु विभिन्न प्रेरणादाई प्रसंगों को लेकर प्रवचनों से वंचित रह गए हैं ।

अंत में उन्होंने कहा कि हम सभी भोले भगवान शंकर के भी पुजारी हैं । उन्हें भोला-भाला भी कहा जाता है । इसका भावार्थ यही है कि भोले के साथ भाला भी है , इस बात को इस प्रकार से भी समझा जा सकता है कि शास्त्र के साथ शस्त्र की शिक्षा हिंदू संस्कृति के मानने वाले और हिंदू धर्मावलंबियों के लिए अति आवश्यक है । उन्होंने ब्रह्मांड के प्रत्येक जीव के कल्याण की कामना करते कहा की हमारे सभी के जीवन का यह सौभाग्य है कि हमारे रहते हुए ही भगवान श्री राम का मंदिर बन रहा है । भारतीय सनातन में हमारी प्रत्येक सुबह राम-राम के संबोधन से ही आरंभ होती है । राम और रावण के बीच में जो भी युद्ध हुआ , हमेे यह नहीं भूलना चाहिए कि ऐसे युद्ध में जहां अनगिनत राक्षस और देवताओं को अपना बलिदान देना पड़ा । वही विभीषण जैसा राम भक्त आम जनमानस के कल्याण के लिए प्राप्त हुआ । यही यज्ञ और युद्ध का भी सार है । इसी मौके पर श्रद्धालुओं और भक्तों के लिए स्वरुचि भंडारे का प्रसाद वितरण किया गया।

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