उमेश जोशी 

बरोदा उपचुनाव के बाद बीजेपी की नज़रों में जेजेपी की कोई अहमियत नहीं दिख रही है।  चुनाव से पहले तक बीजेपी को जेजेपी तारणहार लग रही थी। साधारण गणित समझने वाला भी कह रहा था कि बीजेपी को जेजेपी विजय दिला देगी। उम्मीद और आकलन के विपरीत जेजेपी पूरी तरह बेअसर रही। अब बीजेपी के वरिष्ठ नेता और गृह मंत्री अनिल विज गाना गा कर उपमुख्यमंत्री दुष्यंत चौटाला और उनके भाई दिग्विजय चौटाला की खिल्ली उड़ा रहे हैं। विज के गाने का वीडियो वायरल हो रहा है।

 विज गा रहे हैं- दो बेचारे, बिना सहारे, देखो पूछ पूछ कर हारे, बिन ताले की चाबी लेकर फिरते मारे मारे।  इस लाइनों के बाद वे दुष्यंत का नाम लेते हैं। उनके साथ बैठे किसी ने दिग्विजय का नाम लिया। दो बेचारे यानी दोनों भाई दुष्यंत और दिग्विजय। बिना सहारे भी दोनों भाई हैं। बिन ताले की चाबी लेकर मारे मारे फिरने वाले भी यही दोनों भाई हैं। इससे ज़्यादा दुष्यंत और दिग्विजय पर और क्या तंज हो सकता है। ऐसा लगता है कि अनिल विज हार के लिए दोनों भाइयों को ज़िम्मेदार मान रहे हैं। अपनी गलतियों का ठीकरा दोनों भाइयों के माथे फोड़ रहे हैं। 

 हार के बाद एक रस्म होती है। हारने वाली पार्टी हार के कारणों का विश्लेषण करती है। यह दीगर बात है कि उस विश्लेषण से आज तक किसी पार्टी को फायदा होते नहीं देखा क्योंकि विश्लेषण में उभरे कारणों से कोई भी पार्टी सबक नहीं सीखती। हर पार्टी की काम करने की शैली और संस्कृति अलग होती है; पार्टी पूरी तरह उसमें ढल जाती है। हार का कोई कारण उसे उसके ढर्रे से नहीं डिगा सकता। सब ज्यों का त्यों रहता है। इस बात का जवाब कभी नहीं मिला कि जब पार्टी का ढर्रा बदलना ही नहीं है तो हार के कारणों का विश्लेषण क्यों किया जाता है। 

रस्मअदायगी के तौर पर बीजेपी और सहयोगी जेजेपी ने भी आत्ममंथन किया है और हार के कारणों का विवेचन और विश्लेषण भी किया है। सीधा-सा फॉर्मूला होता है। मत नहीं मिले इसलिए हार गए। मत क्यों नहीं मिले क्योंकि मतदाता नाराज़ थे। मतदाता क्यों नाराज़ थे, इसकी वजह की पड़ताल की जाती है। बरोदा उपचुनाव में बीजेपी से मतदाताओं की नाराजगी स्पष्ट थी; तीन काले कृषि कानूनों से किसान बेहद नाराज थे। उनकी नाराज़गी को लेकर किसी को कोई शक नहीं था। मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर समेत बीजेपी के सारे तथाकथित बड़े नेता मतदाताओं की नाराजगी देख रहे थे और उस नाराज़गी के नतीजे भुगतने के लिए मानसिक रूप से तैयार भी थे। चुनावी राजनीति में पार्टियों की मजबूरी होती है कि सौ फीसदी हार की संभावनाएं देख कर भी मैदान छोड़ कर नहीं भाग सकते क्योंकि रणछोड़ को हार से ज़्यादा फजीहत झेलनी पड़ती है। चाहे कुछ हो, उसे मैदान में लड़ना है और हार का वरण करना है। इसके अलावा एक और मजबूरी भी है जो सम्मान बचाने के लिए झेलनी पड़ती है। आखिरी पल तक हार स्वीकार नहीं करनी होती है। आधी मतगणना होने तक भी यही कहते हैं कि अभी तेल देखो तेल की धार देखो; हम जीत रहे हैं। उनके छद्म आत्मविश्वास पर कुर्बान होने का मन करता है।

बरोदा उपचुनाव में बीजेपी की हार के बाद असली सवाल यह है कि जेजेपी की क्या भूमिका रही। गणित यह कहता था कि बीजेपी और जेजेपी का गठजोड़ काँग्रेस का असली तोड़ है। लेकिन, यह गणित कामयाब नहीं हो पाया। परिणामस्वरूप बीजेपी के पहलवान योगेश्वर दत्त बुरी तरह धूल चाट गए। जेजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अजय चौटाला इस हार से असहज हैं क्योंकि उनसे यही सवाल किया जा रहा है कि जेजेपी की मदद के बावजूद बीजेपी क्यों हार गई; क्या जेजेपी के वोट नहीं मिले। इस पर अजय चौटाला का गले ना उतरने वाला तर्क है- जेजेपी सहयोग कर रही थी; खुद चुनाव नहीं लड़ रही थी। चौटाला के इस जवाब से यह अर्थ निकल रहा है कि पिछले चुनाव के सारे वोट तभी मिलते जब जेजेपी चुनाव लड़ती। साथ ही, अजय चौटाला यह भी कहते हैं कि बीजेपी के 15 हज़ार वोट बढ़े हैं, वो कहाँ से आए; वो जेजेपी के ही वोट थे। अजय  चौटाला की दलील से यह अर्थ भी निकलता है कि पछले चुनाव के 32 हज़ार से अधिक मतदाताओं में से जेजेपी ने बीजेपी को सिर्फ 15 हज़ार वोट दिलवाए। ऐसा कह कर अजय चौटाला परोक्ष रूप से यह स्वीकार कर रहे हैं कि जेजेपी ने 17 हज़ार से अधिक मतदाता गंवा दिए हैं। 

अजय चौटाला अपनी खिसकी हुई ज़मीन पर कम और इनेलो की दुर्गति पर अधिक अफसोस करते नज़र आए। उन्होंने कहा कि इनेलो उम्मीवार के लिए बड़े चौटाला सभी 54 गाँवों में गए; वोट देने की अपील की फिर भी कोई असर नहीं हुआ। उनकी बात में दम है। लेकिन, इससे यह निष्कर्ष भी निकलता है कि पूरे क्षेत्र में चौटाला परिवार ही बेअसर हो गया है जबकि करीब तीन दशक तक इस सीट पर इसी परिवार ने राज किया है।

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