उमेश जोशी बरोदा में बीजेपी की हार मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर की नाकामी है क्योंकि वे अपनी छवि और सरकार की उपलब्धियों पर चुनाव लड़ रहे थे। एक कहावत है- हर दिन रविवार नहीं होता। इस कहावत से यह समझ आ जाना चाहिए कि हर उपचुनाव जींद का उपचुनाव नहीं होता। जींद में खट्टर की छवि ही थी जिसने काँग्रेस के कद्दावर नेता रणदीप सुरजेवाला की छवि को ग्रहण लगा दिया था; राजनीति में नौसिखिए ने सुरजेवाला को धोबीपाट मारकर चित कर दिया था। बरोदा में स्थिति उलट थी। बीजेपी के अंतरराष्ट्रीय पहलवान के सामने काँग्रेस का एकदम नया चेहरा था। मेडल जीतने वाला पहलवान भी काँग्रेस के नौसिखिए को चित नहीं कर सका। जींद की तरह बरोदा में भी मुख्यमंत्री खट्टर ही चुनाव लड़ रहे थे, योगेश्वर दत्त का सिर्फ चेहरा सामने था। उधर, पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह काँग्रेस के इंदुराज नरवाल का चेहरा सामने रखकर चुनाव लड़ रहे थे। असली टक्कर खट्टर और हुड्डा के बीच थी। यूँ कहें कि बरोदा उपचुनाव की आड़ में दो दिग्गजों का शक्ति परीक्षण था। हुड्डा बार बार यही कह रहे थे कि यह बरोदा का नहीं चंडीगढ़ का चुनाव है। यह सच है कि 2019 में स्पष्ट बहुमत जुटा सकने में नाकाम बीजेपी हरियाणा में अपना धरातल खो रही है। मजबूरन धुर विरोधी जेजेपी के साथ मिलकर सरकार बनानी पड़ी। बरोदा उपचुनाव से बीजेपी को यह भी समझ आ गया है कि जेजेपी भी जनाधार खो चुकी है। जेजेपी की स्थिति मजबूत होती तो साख बचाने के लिए एड़ी से चोटी तक ज़ोर लगाने वाली बीजेपी को करारी शिकस्त का सामना ना करना पड़ता। आम चुनाव के एक साल बाद दो पार्टियां मिलकर अपना एक उम्मीदवार नहीं जिता सकीं जबकि दोनों पार्टियों के उम्मीदवारों को 2019 के आम चुनाव में अच्छे खासे मत मिले थे। दोनों के मत मिला लिए जाएं तो काँग्रेस किसी भी सूरत में नहीं जीत पाती। बीजेपी और जेजेपी की यही सबसे बड़ी हार है कि उसका वोट बैंक खिसक गया। योगेश्वर दत्त को जो वोट मिले हैं उसमें बीजेपी और जेजेपी का कितना शेयर है, इसे लेकर भी दोनों पार्टियों के नेता मुगालते में रहेंगे। अगले आम चुनाव में क्या तस्वीर बनेगी यानी चंडीगढ़ की कुर्सी किसको मिलेगी, इस चुनाव से स्पष्ट संकेत मिल रहे हैं। इस चुनाव ने खुल्लमखुल्ला मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर को नकार दिया है। उनके विकास के वायदों पर मतदाताओं ने भरोसा नहीं किया। इसका मतलब है कि मुख्यमंत्री अपनी साख खो चुके हैं। इस चुनाव में बीजेपी ने पूरी ताकत झोंक दी थी क्योंकि मुख्यमंत्री हार-जीत के बाद राजनीतिक में संभावित बदलाव की आहट सुन पा रहे थे। बरोदा में हार के बाद मुख्यमंत्री के प्रभाव का ग्राफ और नीचे आएगा; 2019 में कमज़ोर प्रदर्शन के कारण यह ग्राफ पहले ही नीचे आ चुका था। गिरे ग्राफ की वजह से खट्टर को अपनी ही पार्टी के नेताओं से परेशानी झेलनी पड़ सकती है। बीजेपी के नेता हार की झेंप मिटाने के लिए यह दलील भी दे रहे हैं कि 2019 के मुकाबले पार्टी उम्मीदवार को अधिक वोट मिले हैं। वो यह भूल गए हैं कि वोट अधिक मिलने के बावजूद हार का अंतर भी बढ़ा है। 2019 में योगेश्वर दत्त 4840 मतों से हारे थे और यह उपचुनाव 10566 मतों से हारे हैं। मतदान से पहले पार्टी के स्टार प्रचारक दावा कर रहे थे कि बीजेपी चुनाव जीतेगी क्योंकि वे चुनाव ‘मैनेज’ करने बात कह रहे थे। ‘मैनेज’ करने का क्या मतलब है, इसका खुलासा उन्होंने कभी नहीं किया। पार्टी अध्यक्ष ओमप्रकाश धनखड़ और कृषि मंत्री जेपी दलाल ने बाकायदा प्रेस कॉन्फ्रेंस कर यही दावा किया था। आज उनके दावों की हवा निकल गई है। इस चुनाव ने इनेलो की भी कलई खोल दी। कई दशक तक इस सीट पर चौधरी देवी लाल की पार्टी का उम्मीदवार लगातार जीतता रहा है। इस उपचुनाव में उन्हीं चौधरी साहब के पोते अभय चौटाला की पार्टी इनेलो 5003 (4.07 प्रतिशत) मतों के साथ न सिर्फ चौथे नंबर पर चली गई बल्कि जमानत भी गंवा दी। फिर से ज़मीन तैयार करने में जुटी इनेलो को यह बड़ा झटका है। लोकतंत्र सुरक्षा पार्टी के राजकुमार सैनी 5611 (4.56 प्रतिशत) मतों के साथ तीसरे स्थान पर रहे। उनकी भी ज़मानत ज़ब्त हो गई। पिछले आम चुनाव में गोहाना में अच्छा प्रदर्शन कर राजकुमार सैनी ने जो प्रतिष्ठा बनाई थी वो धूल में मिला दी। Post navigation बरोदा उपचुनाव में कांग्रेस प्रत्याशी की जीत किसान, व्यापारी, मजदूर व आम जनता की जीत है- बजरंग गर्ग हरियाणा पुलिस को मिली बड़ी कामयाबी