उमेश जोशी

जननायक चौधरी देवीलाल की विरासत की दावेदार पार्टी जेजेपी से निराश मतदाताओं का एक बड़ा वर्ग बरोदा उपचुनाव की दिशा तय करेगा। वही मतदाता हार-जीत का फैसला करेंगे। काँग्रेस और बीजेपी दोनों के पास अपने अपने प्रतिबद्ध मतदाता हैं जो टूट कर कहीं जाने वाले नहीं हैं। पिछले चुनाव के आंकड़े बताते हैं कि दोनों पार्टियों के मतों में बड़ा अंतर नहीं था, महज 4840 का फासला था। करीब 11 महीने के अंतराल के बाद यह अंतर कोई मायने नहीं रखता। यह अंतर इसलिए भी बौना हो जाता है कि जेजेपी चुनाव मैदान से बाहर है और उसके मतदाता अब 12 उम्मीदवारों में से किसी एक का चयन कर वोट डालेंगे।            

काँग्रेस, बीजेपी और इनेलो की ललचाई नज़रें उन 32480 मतदाताओं पर टिकी हैं जो अक्तूबर 2019 में जेजेपी की झोली में गए थे। जेजेपी अब बीजेपी के साथ है लेकिन मतदाता जेजेपी के साथ नहीं हैं।उपमुख्यमंत्री दुष्यंत चौटाला खुद मन ही मन मान चुके हैं कि 11 महीने पहले जो हमारे थे  वो अब हमसे किनारा कर चुके हैं। यदि उन मतदाताओं पर भरोसा होता तो दुष्यंत चौटाला बहुत पहले उनके बीच जाकर उनका समर्थन और सहयोग माँगते। अभी तक दुष्यंत चौटाला बरोदा की सीमा के पास से भी नहीं गुज़रे हैं।

लेकिन अब मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर के साथ उपमुख्यमंत्री की हैसियत से दुष्यंत चौटाला 29 अक्तूबर से प्रचार के लिए गावों का दौरा करेंगे। इसके बाद दो दिन 30 और 31 अक्तूबर को भी प्रचार करेंगे। यह दौरा एक रस्म अदायगी लग रहा है। एक नवंबर को शाम 5 बजे प्रचार बंद हो जाएगा। क्या दुष्यंत चौटाला प्रचार करने के लिए मुख्यमंत्री की प्रतीक्षा कर रहे थे? अकेले निकलने में दुष्यंत चौटाला क्यों हिचकिचा रहे थे। जेजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अजय चौटाला भी 28 अक्तूबर से प्रचार करेंगे। पिता-पुत्र  एक साथ क्यों निकले? यह भी एक अहम सवाल है। इससे पहले बड़े नेताओं का दौरा ही नहीं हुआ। क्षेत्र में यह रिक्तता क्यों रही। मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री आगे पीछे जाते तो प्रचार में पहले ही तेज़ी आ चुकी होती। क्या पिता-पुत्र नाराज़ मतदाताओं को फिर से अपने साथ जोड़ पाएँगे, यह पहाड़-सा सवाल सभी के सामने है।

इनेलो के प्रधान महासचिव अभय चौटाला मान रहे हैं कि जेजेपी का मतदाता मूलतः इनेलो का मतदाता है। इनेलो से टूट कर जेजेपी में गया था। अभय के भरोसे का आधार यह कि इन मतदाताओं की आस्था ताऊ देवीलाल की विचारधारा में है। कोई शक नहीं है कि वे चौधरी देवीलाल की  राजनीतिक विचारधारा के  समर्थक हैं इसलिए इनेलो से जुड़े रहे। जब उन्हें यह एहसास हुआ कि इनेलो के बजाय जेजेपी ताऊ की नीतियों को ईमानदारी से लागू करेगी तो उन्होंने इनेलो की कश्ती छोड़ कर जेजेपी की कश्ती में सवार हो गए। सीधा-सा अर्थ है कि जेजेपी से जुड़ने वाले मतदाता पहले ही इनेलो से भरोसा खो चुके थे। अब जेजेपी से भी मोहभंग हो गया। वे नए सिरे से नए आधार की तलाश में हैं।

 जेजेपी से किनारा कर चुके मतदाताओं को समझाने, बहकाने, रिझाने और ललचाने की प्रतियोगिता में अब बीजेपी और काँग्रेस ही हैं। बीजेपी सत्ता में है और सत्तारूढ़ पार्टी अपेक्षाकृत अधिक साधन संपन्न होती है इसलिए उसकी ओर से मतदाताओं को रिझाने, लुभाने और लालच देने के लिए कोई कमी नहीं है। हालांकि काँग्रेस भी मतदाताओं को रिझाने, लुभाने और लालच देने के सारे गुर जानती है इसलिए वो भी कसर नहीं छोड़ेगी।

बीजेपी और काँगेस जिन मतदाताओं पर डोरे डाल रही हैं वे सभी किसान हैं या किसान परिवार से हैं। फिलहाल, किसानों और उनके परिजनों का एक ही एजेंडा है, किसान विरोधी तीन काले कानून लागू करने  वाली बीजेपी को शिकस्त देना। सारे किसान गुस्से में हैं और बीजेपी को हराने के लिए कमर कस चुके हैं। वे राजनीतिक समीकरण समझने में माहिर हैं। वे जानते हैं कि यदि इनेलो और काँग्रेस में वोट बंट गया तो बीजेपी स्वतः जीत सकती है। लिहाजा, वे किसी भी सूरत में इनेलो की ओर नहीं जाएँगे। जहाँ तक बीजेपी की ओर से लालच देने की बात है तो उसकी संभवनाएं नगण्य हैं क्योंकि जिन्हें लालच दिया जाएगा वो पहले किसान है, मतदाता बाद में है। किसान अपना संकल्प भूल कर किसी लोभ लालच के गड्ढे में नहीं जाएगा। इन हालात में सभी किसानों के पास काँग्रेस का ही विकल्प बचता है। लिहाजा, काँग्रेस को मतदाता रिझाने में कोई मशक्कत नहीं करनी पड़ेगी।

बीजेपी लगातार तुरुप चाल चल रही है। सीधे नहीं तो टेढ़े रास्ते से ही सही, किसी भी कीमत पर मतदाताओं को अपनी ओर खींचने में जुटी हुई है। काफी हद तक कामयाबी मिली भी है। मलिक मतदाताओं  को लुभाने में बीजेपी को आज एक और बड़ी सफलता मिली है। दो मालिक नेता काँग्रेस छोड़ कर बीजेपी में आ गए।

इनमें पूर्व विधायक किताब सिंह मलिक और जगबीर सिंह मलिक शामिल हैं। दूसरे मलिक यानी जगबीर सिंह टिकट के दावेदार थे इसलिए असंतोष से भरे हुए हैं। दोनों ही नेता असंतुष्ट थे। बीजेपी को ऐसे नेताओं की तलाश थी। इससे माहौल बदलने में मदद मिलती है। जिस पार्टी को छोड़ते हैं उस पर मनोवैज्ञानिक दबाव बनता है। यह भी सच है कि असंतुष्ट नेता खास करिश्मा नहीं दिखा पाते हैं। इससे पहले भूपेंद्र मलिक और महेंद्र सिंह मलिक ने बीजेपी का दामन थामा था। ये चार मलिक किसानों की नाराजगी दूर कर देंगे तो बीजेपी के लिए  करिश्मा ही हो जाएगा। लेकिन, मलिक नेता  मलिक गोत्र के किसानों को तीन कानूनों के बारे में क्या समझाएंगे? यही कि मलिक किसानों पर कानूनों का कोई असर नहीं पड़ने देंगे।

उधर, दुष्यंत और दिग्विजय अब बरोदा में विजय-पराजय को लेकर चिंतित नहीं है। हार होगी तो बीजेपी की; जेजेपी की साख पर तो बट्टा लगेगा नहीं। वो जानते हैं कि बरोदा में हार के बावजूद गठबंधन की सरकार पर कोई संकट भी नहीं आएगा। यदि बीजेपी बरोदा सीट जीतती है तो उसकी साख मजबूत होगी जो अगले चुनाव में जेजेपी के लिए संकट खड़ा करेगी। यदि बीजेपी से मिलकर जेजेपी चुनाव लड़ेगी सीटों के बंटवारे पर अपने पक्ष में समीकरण बैठाना मुश्किल होगा। यदि अलग चुनाव लड़ती है तो वह कहीं नहीं टिक पाएगी क्योंकि वह अपने सारे मतदाता नाराज़ कर चुकी है। लिहाजा, बरोदा सीट पर बीजेपी की हार जेजेपी के लिए छुपा हुआ वरदान साबित होगी।

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