उमेश जोशी

चुनाव छोटा हो या बड़ा, जीतने के लिए होंसला, रणनीति, मेहनत, एकजुटता, गंभीरता और जनता में साख होना ज़रूरी है। इन सारे मानदंडों पर शायद ही कोई पार्टी या निर्दलीय सौ फीसदी खरे उतरें लेकिन जो पार्टी इन मानदंडों पर जितने अधिक अंक अर्जित करेगी वही विजयश्री हासिल करेगी। बरोदा उपचुनाव के मद्देनजर बीजेपी इन मानदंडों पर काँग्रेस के मुकाबले काफी पिछड़ती नज़र आ रही है। 

काँग्रेस को किसानों का साथ मिलने से उसके हौंसले बुलंद हैं। वैसे भी बरोदा हलके में पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा का लंबे समय से सियासी दबदबा है। यह सीट लगातार तीन बार काँग्रेस ने ही जीती है। इस हक़ीक़त से काँग्रेस का आत्मविश्वास बढ़ा हुआ दिख रहा है। 

 निर्दलीयों में कोई ऐसा वजनदार उम्मीदवार  नहीं है जो काँग्रेस के वोट में सेंध लगा कर उसे नुकसान पहुंचा सके। एक कांटा कपूर नरवाल का था जिसे समय रहते हुड्डा ने निकाल दिया और उसे अपने पाले में ला कर बीजेपी का मनोबल भी गिरा दिया। बीजेपी ने खूब ज़ोर लगाया कि कपूर की कृपा बनी रहे और चुनाव मैदान में डटे रहें। कपूर जाटों के कुछ वोट काट कर बीजेपी को फायदा पहुंचा सकते थे लेकिन बीजेपी के मंसूबों पर पानी फिर गया। 

बीजेपी को उन उम्मीदवारों से ज़्यादा फायदा मिलने की आस थी जो जाटों के अधिक वोट काट सके। ऐसा उम्मीदवार अभय चौटाला की इनेलो ही दे सकती थी। इनेलो ने योगेंद्र मलिक को उतारा है। मलिक पार्टी के अच्छे कार्यकर्ता हो सकते हैं लेकिन इतने हैवीवेट नहीं हैं कि जाटों के मतों में भारी विभाजन कर काँग्रेस को हार की ओर धकेल सकें। ऐसा लगता है कि किसानों की नाराजगी का माहौल देख कर अभय चौटाला ने चुनाव में शिरकत करने की सिर्फ औपचारिकता निभाई है।

अभय चौटाला किसानों का मूड भांप गए थे कि बीजेपी को हराने का माहौल तैयार हो रहा है। ऐसे में काँग्रेस को नुकसान पहुंचाने वाला कोई उम्मीदवार उतार देते तो अभय चौटाला भी देर सबेर किसानों के निशाने पर आ जाते। कोई उम्मीदवार नहीं उतारते तो इनेलो पर काँग्रेस की ‘बी’ टीम का लेबल लग जाता जो भविष्य में इनेलो के लिए घातक साबित होता। इन हालात में चुनाव लड़ना इनेलो की मजबूरी थी। लेकिन बीजेपी को हराने के लिए संतुलित समीकरण बनाना ज़रूरी था। दरअसल, यह चुनाव किसानों की प्रतिष्ठा का चुनाव बन गया है। बहरहाल, इनेलो के कमज़ोर उम्मीदवार के कारण भी काँग्रेस के हौंसले की मशाल तेज़ लौ से जल रही है। उधर, बीजेपी को यहां भी मायूसी हाथ लगी। 

लोकतंत्र सुरक्षा पार्टी के कर्ताधर्ता राजकुमार सैनी आज तक कहीं भी लोकतंत्र की सुरक्षा करते नज़र नहीं आए; बरोदा में भी खास भूमिका नहीं है। जो नेता अपना पर्चा सही नहीं भर सकता, उससे लोकतंत्र की सुरक्षा की अपेक्षा रखना बेमानी है। बात बहुत पुरानी नहीं है। पिछले साल लोकसभा चुनाव में सोनीपत सीट के लिए सैनी साहब ने पर्चा दाखिल किया था लेकिन पर्चे में खामियाँ होने के कारण रद्द हो गया था।  खामी रह गई थी या जानबूझ कर रखी गई थी, इस पर चर्चा उचित नहीं है। राजकुमार सैनी गैर जाट वोटों में थोड़ी-सी सेंध लगाएंगे लेकिन हार जीत का रुख तय करने में उनकी कोई भूमिका नहीं होगी। काँग्रेस सैनी फैक्टर से कतई परेशान नहीं है।

उधर, बीजेपी की  साझीदार पार्टी जेजेपी के दुष्यंत चौटाला सिर्फ बयान दे रहे हैं; चुनाव क्षेत्र में जाकर कोई ठोस काम अभी तक नहीं किया है। दुष्यंत ने कहा कि हम पहले से ज़्यादा दमदार तरीके से जीतेंगे। लखनऊ में दो बाँकों की लड़ाई में जो  बयानबाजी होती है उसका एक प्रतिशत भी धरातल पर नहीं दिखता। दुष्यंत के बयान ने उन्हीं दो बाँकों की याद दिला दी।

बीजेपी अभी तक यह रणनीति भी तय नहीं कर पाई है कि चुनाव किस मुद्दे पर लड़ा जाएगा। मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर अपनी उपलब्धियों पर चुनाव लङने का मन बना चुके हैं लेकिन जनता को दिखाने और लुभाने के लिए अभी तक कोई उपलब्धि सामने नहीं आई है। 

 काँग्रेस का मनोबल बढ़ने और बीजेपी का टूटने के और भी कई कारण हैं। आशा वर्कर्स, रोडवेज कर्मचारी और बेरोजगार युवक एलान कर चुके हैं कि बरोदा हलके में घर घर जा कर जनता को बीजेपी का असली चेहरा दिखाएंगे। 

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