हरियाणा में बीजेपी-जेजेपी गठबंधन सरकार के लगातार बढ़ रहे विरोध के चलते बरोदा में होने वाले उपचुनाव में बीजेपी की जीत मुश्किल ही नहीं, बल्कि नामुमकिन है। इसीलिए बीजेपी किसी तरह मुकाबले में आने के लिए लुक्का छुपी की रणनीति पर काम कर रही है। राजनीतिक गलियारे में चर्चा है कि बरोदा उपचुनाव के लिए बीजेपी, कांग्रेस के वोट काटने और विरोधी वोटों को बांटने के लिए ज्यादा से ज्यादा डमी उम्मीदवारों को चुनाव मैदान में उतारेगी। ये डमी उम्मीदवार वैसे तो चुनाव में बीजेपी विरोध के नारे लगाएंगे लेकिन असल में इनका मकसद बीजेपी की मदद करना होगा।

बरोदा उपचुनाव में बीजेपी की ओर से एक बार फिर से 2019 की रणनीति अपनाई जा सकती है। याद कीजिए किस रणनीति के तहत इनेलो से अलग होकर दुष्यंत चौटाला ने अलग से जननायक जनता पार्टी बनाई थी। फिर विधानसभा चुनाव में दुष्यंत चौटाला ने जमकर बीजेपी के खिलाफ प्रचार किया। उन्होंने मनोहर लाल खट्टर सरकार पर कई घोटालों को अंजाम देने और 80 लोगों की हत्या के आरोप लगाए। खट्टर को यमुना पार भेजने के नारे दिए। लेकिन चुनाव परिणाम आते ही वो सबसे पहले खट्टर की गोद में जाकर बैठ गए। BJP का प्लान कामयाब रहा और जनता द्वारा नकारे जाने के बावजूद, वो फिर सत्ता में आ गई।

विधानसभा चुनाव में जेजेपी के सहारे बीजेपी ने उन वोटों को बांट दिया, को बीजेपी विरोध में कांग्रेस के खाते में जा सकती थीं। अगर ये वोट नहीं बांटते तो आज बीजेपी सत्ता से बाहर होती। चुनाव के दौरान भूपेंद्र सिंह हुड्डा ने लोगों को समझाने की कोशिश भी की थी कि बीजेपी ही जेजेपी है। लेकिन 10 हलकों में लोग दुष्यंत के जाल में फंस चूके थे और गुमराह हो कर jjp को वोट दे दिया। लेकिन उन्ही लोगों के विश्वास को कुचलते हुए चुनाव के बाद जब दुष्यंत चौटाला खट्टर के सामने नतमस्तक हुए, तब लोगों को सारा खेल समझ आ गया।

लेकिन खट्टर दुष्यंत को लगता है कि बरोदा के लोग अब तक इस खेल को नहीं समझ पाए हैं, इसलिए वह बरोदा में वही खेल दोहराना चाहते हैं।

इतना ही नहीं जो बलराज कुंडू कई साल से बीजेपी और मनोहर लाल खट्टर के भगत बने हुए थे। वो बीजेपी से टिकट नहीं मिलने पर उसी खट्टर के विरोधी बन गए। उन्होंने बीजेपी के खिलाफ चुनाव लड़ा। लोगों को लगा कि बलराज कुंडू पूरी तरह बीजेपी से अलग हो चुके हैं। इसलिए उन्होंने बीजेपी विरोध में महम से कुंडू को अपना विधायक बना दिया।

लेकिन विधायक बनते ही बलराज कुंडू ने फिर पलटी मारी। वो दुष्यंत से भी पहले खट्टर की शरण में हाजिरी लगाने पहुंच गए और खट्टर सरकार को समर्थन दे दिया। वो फिर से खट्टर की जय-जयकार करने लगे। कुंडू को उम्मीद थी कि खट्टर अपने जयकारे सुनकर उन्हें मंत्री बनाएंगे। लेकिन खट्टर कुंडू को भविष्य के प्लान के तौर पर सुरक्षित रखना चाहते हैं। इसलिए जब कुंडू की मंत्री बनने की उम्मीद पूरी नहीं हुई तो बलराज कुंडू एक बार फिर खट्टर के कट्टर विरोधी बन गए। अब कुंडू लगातार बीजेपी के खिलाफ मोर्चा खोले हुए हैं और बीजेपी उन्हें भाव नहीं दे रही है। क्योंकि बीजेपी को ऐसे लोगों की जरूरत सरकार से ज्यादा सरकार से बाहर है। बीजेपी को ऐसे लोगों की ज़रूरत है जो बीजेपी विरोध का झंडा बुलंद करें और बीजेपी विरोधी वोटों को बांटे। अगर ऐसे लोग जीतते भी हैं तो भी वो बीजेपी के दरवाजे पर ही सलामी ठोकेंगे और अगर हारते भी हैं तो भी बीजेपी विरोधी वोटों को बांट कर बीजेपी को है फायदा पहुंचाएंगे।

इसी प्रकार से आप इनेलो को देख लें। बीजेपी इनेलो का चोली दामन का साथ रहा है। जब बीजेपी ने इनेलो को दरकिनार कर दिया और खुद नरेंद्र मोदी ने ओपी चौटाला के ऊपर चुनावी रैली में जमकर हमले किए, तब भी इनेलो, बीजेपी के सामने नतमस्तक नजर आई। 2014 लोकसभा चुनाव में दो सांसद जीतने के बाद इनेलो ने बीजेपी को बिना मांगे समर्थन दिया।

2019 विधानसभा चुनाव के बाद जब खट्टर निर्दलीयों के सहारे सरकार बनाने जा रहे थे, तब अभय सिंह चौटाला समर्थन देने की आतुर थे। लेकिन इससे पहले दुष्यंत चौटाला खट्टर दरबार में शीश झुका चुके थे, इसलिए अभय की एंट्री सरकार में नहीं हो पाई।

ये बात जगजाहिर है कि 2019 के चुनाव में जेजेपी के स्थान पर इनेलो की सीट ज्यादा आ जाती तो वो आज बीजेपी के साथ सरकार में होती। अगर आज भी खट्टर इनेलो को मंत्री पद ऑफर करें तो शायद वो आज भी सरकार का हिस्सा बनने से गुरेज ना करें। लेकिन बात वही है कि बीजेपी को ऐसे लोगों की जरूरत सरकार की बजाय सरकार के बाहर ज्यादा है, जो बीजेपी विरोधी वोटों को बांटने का काम करे।

अब बरोदा के उपचुनाव को लेकर राजनीतिक गलियारों में केवल यहीं चर्चा है कि कल तक जो नेता मनोहर लाल खट्टर के सामने नतमस्तक थे या होना चाहते थे, वो डमी कैंडिडेट चुनाव मैदान में उतारकर सिर्फ BJP की मदद करना चाहते हैं। उनका मकसद सिर्फ और सिर्फ बीजेपी विरोधी वोटों को बांटना है। लगातार बढ़ रहे विरोध के चलते अब खट्टर दुष्यंत की राजनीति इसी पुराने फार्मूले पर टिकी है। लेकिन बरोदा की जनता इसे कितना समझ पाएगी, ये देखने वाली बात होगी।

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