राज्यसभा में कृषि बिल विपक्ष के ज़ोरदार हंगामे के बावजूद ध्वनिमत से पास हो गए (पास करा दिए गए पढ़ें)। अब इसे “लोकतंत्र की हत्या” या “किसानों के साथ धोखा” जो भी कह लें लेकिन प्रथमदृष्टया ये सीधे-सीधे संविधान की अवहेलना का काम है। 

संविधान की सातवीं अनुसूची में केंद्र और राज्यों के बीच सहकारी संघवाद के ज़रिए मुद्दों और अधिकारों के बंटवारे के लिए या आसान शब्दों में कहें तो केंद्र और राज्यों के बीच पावर बैलेंस करने के लिए तीन सूची ( list ) बनाई गईं हैं। 

1. संघ सूची ( Union list ) –  इसमें ऐसे विषय हैं जिन पर केवल संसद या केंद्र सरकार के पास ही कानून बनाने की शक्ति है जैसे रक्षा मामले, विदेश मामले, रेलवे आदि।  
2. राज्य सूची ( State list ) – इसमें वह विषय हैं जिन पर राज्य सरकार कानून बना सकती है। उदाहरण के लिए पुलिस, जेल, लोक स्वास्थ्य।
3. समवर्ती सूची ( Concurrent list ) – इस सूची के अंतर्गत आने वाले विषयों पर केंद्र और राज्य सरकार दोनों के अधीन आते हैं जैसे वन, आर्थिक और सामाजिक योजनाएं आदि। 

अब दिक्कत ये है कि जिन दो विषयों को लेकर केंद्र ने ये अधिनियम बनाएं हैं ( कृषि और बाज़ार ), यह दोनों राज्य सूची के अंतर्गत आने वाले विषय हैं ( कृषि- क्रमांक 14 पर और बाज़ार- क्रमांक  28 पर )। ऐसे में संविधान के जानकारों ( Constitutional experts ) का कहना है कि इन विषयों पर कानून बनाना केंद्र की शक्ति में नहीं है और केंद्र, संवैधानिक तौर पर इसमें हस्तक्षेप नहीं कर सकता। वहीं केंद्र सरकार का तर्क है कि खाद्यान्न के व्यापार और वाणिज्य से जुड़े मुद्दे समवर्ती सूची का विषय है। अतः केंद्र सरकार उस पर कानून बनाने को स्वतंत्र है। 

अब ऐसे में यह पूरा मामला संवैधानिक संकट की श्रेणी में आता है और यहाँ संविधान की व्याख्या करने की आवश्यकता है। सुप्रीम कोर्ट देश की सबसे बड़ी न्यायिक संस्था है और संविधान की व्याख्या का काम भी सुप्रीम कोर्ट का ही है और इसलिए ही सुप्रीम कोर्ट को Guardian of the Constitution कहा जाता है। 

क़ायदे से विपक्ष को यह मुद्दा उच्चतम न्यायालय में चैलेंज करना चाहिए और तमाम संवैधानिक पहलू देखने के बाद सुप्रीम कोर्ट संवैधानिक पीठ का गठन करने के बाद फैसला दे कि इस पर कानून क्या मानता है लेकिन देश में न्यायपालिका की जो वर्तमान स्थिति है वह किसी से छुपी नहीं है। चाहे जिला न्यायालय हो या सुप्रीम कोर्ट, लोगों में न्यायपालिका के प्रति भरोसा कम ही हुआ है और शायद यही वजह की इस मुद्दे को सुप्रीम कोर्ट  लेकर जाने की बात न विपक्ष की ओर से सुनने को मिली और न ही किसान संगठनों की तरफ से। 

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