लघुकथा : छलावा

डा. सुरेश वशिष्ठ, गुरुग्राम 

मुझे शास्त्र का ज्ञान नहीं परंतु अनुभव से समझता हूं–“परम-आत्मा जब देह सजाते हैं, तब सर्वप्रथम उसमें प्राण फूँकते हैं । अंतर्मन के भाव सूरत में छलकाते हैं । रुचि-वर्धन मुखाकृति देते हैं ।” यह कितना सत्य है, नहीं जानता ।   

  इतना ज्ञान मुझे है कि आचार-विचार के अनुसार ही व्यक्तित्व प्रकार साकार में प्रकट होते हैं । अंदर जो है वही बाहर आता है । कितना भी छुपा रहे, कभी वह जरूर प्रकट होगा । 

  “उसकी सूरत मोहनी है । काया कोमलांगी और श्वेता है ।बातों में भोलापन है, मधुरता है । हंसी की फुंहार में मद-मस्तता है । जब बतियाती है तो शब्द-फूल शीतल वर्षा की फुहार के समान परिलक्षित होते हैं । होठों से रस टपकता है । मासूमियत दिल को बांध लेती है ।”   

 “ऐसी छलक मुखाकृति में उसके सौन्दर्य के संग उसका रूप-श्रृगांर भी मन को मोह लेता है ।”   

 मैं इस अनूठी प्रवृति में खिंचने लगा था । उसका लावण्य मुझे मोहने लगा था । आलंबन की छाया संग मेरा हर पोर भी महकने लगा था । प्यार था परन्तु उससे मिलने में अनेक बार भ्रम उत्पन्न हुआ था । मुझे लगा था कि यह कौतुक-कलालोक कहीं अतृप्त पिपासा तो नहीं?    ” खैर !”  

   अनुराग बढ़ता रहा । भाव उद्दीप्त और उतृप्त होते रहे ।मिलन रुका नहीं । मुझे यानी उसके पुरुष मित्र को काम बाणों ने बींध दिया । काव्य-कविता उदीग्नता देने लगी । पुरुष हृदय में कहीं कोई जन्म लेने लगा । उसे निद्रा में भी उसके रूप दर्शन होने लगे । उठते-बैठते, हंसते-खेलते ललक रूप-राशि और उदात्त छलकन आत्मा तक को कैद करने लगी ।     

 आसक्ति बढ़ने लगी और अन-अपेक्षित झुरझुरी देह में दौड़ने लगी । भोर भए और रात गए तक उसकी मूरत अंतरंग कोनों में दमक देने लगी । कल्पनालोक में वही एक दिखने और बार-बार प्रकट होने लगी थी ।   

  आज उससे मिलने के बाद पुरुष मित्र के सारे स्वप्न धराशाई हो गए । लुढक गए । निद्रा हटने लगी । लगने लगा कि वह निद्रा मृग-मारीची तन्द्रा थी । भ्रमजाल था । आगे बढ़ा तो दूर छिटक गई । छूने लगा कि काट खाने वाली भृकुटि का दंश झेला । आंदोलित उसके शब्द-बाणों और व्यवहार ने उसके मूल व्यक्तित्व को नग्न खड़ा कर दिया ।     

 कृत्रिम वह लावण्य बिखरने लगा । छलावा छिटकने लगा था । सुन्दरतम् प्रवृत्ति के बीच जीने वाली एक ‘हवसा’ थी वह ।    

” हवसा ?” हाँ, वही थी । हवस पूर् हुई तो दुत्कार दिया ।

 उसे ऊब होने लगी थी । दिल निढाल हुआ और घायल पुरुष-देह वहीं गिर पड़ी । हवसा एक जगह नहीं टिक पाती। उसे तो जाना ही था ।

      अगले रोज लोगों ने देखा–‘ एक दीन-हीन अस्थिपिंजर  मिट्टी में तब्दील पड़ा था । उसमें श्वांसे नहीं थी । आंखें खुली और देह हाड के समान कठोर थी ।’     

 लोगों ने उसे जब बतलाया तो वह मोहक मुस्कान में मुस्कराई । अनोखी रूप-राशि में महकाई । करवट बदली और चंचल नयनों से भ्रम बिखराती किसी दूसरे शिकार की तलाश में निकल पड़ी थी ।

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