भारत सारथी/ऋषि प्रकाश कौशिक

वर्तमान में हरियाणा में एक ही मुद्दा छाया हुआ है और वह है बरोदा उपचुनाव। बरोदा उपचुनाव के चलते ही भाजपा में जाट प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया है और उसी के चलते भाजपा आज फिर लोक-लुभावन घोषणाएं करने में लगी है। दूसरी ओर सभी अधिकांश कर्मचारी संगठन संघर्ष की राह पर चल रहे हैं। ऐसी अवस्था में नए प्रदेश अध्यक्ष के लिए भी पार पाना आसान नहीं होगा।

हरियाणा में यह कहा जाता रहा है कि कांग्रेस में कुछ क्षेत्रीय छत्रप हैं, जिनका अहम आपस में टकराता है, जिसके चलते वे एक होकर चुनाव नहीं लड़ पाते। परंतु वर्तमान में कांग्रेस तो इस बात से काफी कुछ पार पा चुकी है लेकिन भाजपा में शासन आने के बाद क्षेत्रीय छत्रप बन गए हैं, जिसे चाहे भाजपा का सत्ता का अहंकार कहें या इसका कारण मुख्यमंत्री की कार्यशैली को मानें, क्योंकि सत्ता संभालने के बाद से ही प्रदेश अध्यक्ष और मुख्यमंत्री दोनों का काम मुख्यमंत्री मनोहर लाल ही संभाल रहे थे।

आइए नजर डालते हैं, राव इंद्रजीत सिंह और मुख्यमंत्री का 36 का आंकड़ा तो सर्व विदित है। वैसे तो जब मुख्यमंत्री की ताजपोशी हुई, तब भी मुख्यमंत्री की दौड़ में प्रो. रामबिलास शर्मा, कैप्टन अभिमन्यु और वर्तमान प्रदेश अध्यक्ष ओमप्रकाश धनखड़ थे। पहली दफा बने विधायक को प्रधानमंत्री मोदी की इच्छा से मुख्यमंत्री की कुर्सी पर आसीन देख मन तो मसोस कर रह गए लेकिन बोल कुछ नहीं पाए। हालांकि कभी-कभी इनकी झलक जरूर दिखाई दे जाती थी। इसी प्रकार पहला कार्यकाल गुजर गया परंतु वर्तमान चुनाव में इन सभी को हार का मुंह देखना पड़ा और उसके पीछे कारण वही बताए गए, चाहे दबे-छिपे शब्दों में कि मुख्यमंत्री की वजह से हार का सामना करना पड़ा है।

अब वर्तमान कार्यकाल की बात करें तो प्रदेश अध्यक्ष के चुनाव में मुख्यमंत्री ने जिस प्रकार रायता फैलाया, वह शायद नए प्रदेश अध्यक्ष के लिए संभालना मुश्किल होगा। कभी नायब सैनी को, कभी संजय भाटिया को तो कभी कृष्णपाल गुर्जर को, कभी कमल गुप्ता को तो कभी सुभाष बराला को ही रिपीट करने की बात चलती रहीं। अंतत: प्रधानमंत्री मोदी और हाइकमान की इच्छा से ओमप्रकाश धनखड़ को प्रदेश अध्यक्ष की जिम्मेदारी सौंपी गई। जिस पर इन सभी उम्मीदवारों को ऐसा लगा जैसे उनके सामने रखी भोजन की थाली उठा ली गई हो। मुखर होकर कुछ बोलें या न बोलें लेकिन मन में ठीस जबरदस्त है।

चलिए यह भाजपा की चर्चा अगले लेख में करेंगे। फिलहाल भाजपा की दूसरी मुसीबत की ओर देखिए कि जजपा से इनका गठबंधन है। जजपा बरोदा सीट पर अपना उम्मीदवार चाहती है, जबकि भाजपा बड़ी पार्टी होने के नाते अपना उम्मीदवार खड़ा करेगी। ऐसी स्थिति में ऐसी आशाएं कम हैं कि जजपा का कार्यकर्ता भाजपा को वोट करेगा। वह छिटक कर कांग्रेस की ओर से भी जा सकता है, क्योंकि पहले भी जिन वोटरों ने जजपा को वोट दिए थे, वे भाजपा के विरूद्ध ही तो दिए थे और ऐसा ही कुछ भाजपा के कार्यकर्ताओं के साथ भी है। वह भी जजपा उम्मीदवार को वोट देकर शायद प्रसन्न नहीं होंगे, क्योंकि सत्ता में तो भागीदारी दोनों की हो गई है परंतु जमीनी स्तर पर भाजपा और जजपा के कार्यकर्ता अभी तक कभी इकट्ठे देखे नहीं गए हैं। अत: चुनाव में इकट्ठे वोट डालेंगे, यह कल्पना ही हास्यास्पद नजर आती है।

उधर कांग्रेस में भूपेंद्र सिंह हुड्डा एकमात्र नेता उभरकर आ गए हैं और इस चुनाव की बागडोर उन्हीं के हाथों में है। इस बात को हम ही नहीं कह रहे, भाजपा के दिग्गज यानी मुख्यमंत्री मनोहर लाल, प्रदेश अध्यक्ष ओमप्रकाश धनखड़ व अन्य भी कह रहे हैं कि हमारा मुकाबला भूपेंद्र सिंह हुड्डा से है। यह उनकी प्रतिष्ठा की सीट है। अर्थात वह यह मानते हैं कि कांग्रेस ही भूपेंद्र सिंह हुड्डा हैं और भूपेंद्र सिंह हुड्डा ही कांग्रेस है। अब समय का तमाशा देखिए जो बात कांग्रेस पर लागू होती थी आज वही भाजपा पर लागू हो रही है कि इतने टुकड़ों में बंटी भाजपा चुनाव लड़ेगी तो लड़ेगी कैसे। अन्य बहुत कारण हैं, आगे चर्चा जारी रहेगी।

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