उमेश जोशी

अर्थव्यवस्था शिथिल है। सारे प्रयासों के बावजूद अभी तक कोई हलचल नहीं हुई है।  वजह साफ है। कोई भी उद्योगपति, भले ही छोटा है या बड़ा, उत्पादन करने का जोखिम तब तक नहीं उठाएगा जब तक मार्केट में वस्तुओं के मांग पैदा नहीं होगी। मांग अर्थव्यवस्था की रीढ़ है। मांग के बिना किसी भी देश की अर्थव्यवस्था खड़ी नहीं हो सकती। 

मांग पैदा करने के लिए दुधारी नीति अपनाना ज़रूरी है। एक तरफ वस्तुओं के दाम कम किए जाएं और दूसरी तरफ ग्राहक पैदा किए जाएं। ग्राहक खेतों और कारखानों में अनाज और वस्तुओं की तरह पैदा नहीं होते हैं। खेतों और कारखानों में रोजगार पैदा करके ग्राहक पैदा किए जाते हैं। मांग पैदा करने की दोनों ही नीतियों के मोर्चे पर निराशा दिखाई देती है। ना वस्तुओं के दाम कम हुए और ना ही रोजगार सृजित हो रहे हैं। रोजगार देने और रोजगार पाने वाले दोनों ही चुप बैठे हैं। कोई रोजगार देना नहीं चाहता तो कोई रोजगार लेना भी नहीं चाहता।

 रोजगार देने वाले उद्यमियों की मूल समस्या यह है कि बाजार में कोई मांग नहीं है क्योंकि ग्राहक नहीं हैं। ग्राहक नहीं हैं क्योंकि लोगों के पास पैसा नहीं है। पैसा नहीं है क्योंकि रोजगार नहीं है। रोजगार इसलिए नहीं है कि उद्यमी रोजगार देने की स्थिति में नहीं हैं और मज़दूर रोज़गार लेने के मूड में नहीं हैं कयोंकि उनके सामने रोटी का संकट नहीं है। यक्ष प्रश्न यह है कि लोगों की जेब में पैसा ही नहीं होगा तो माल बिकेगा कैसे और माल नहीं बिकेगा तो कोई उत्पादन क्यों करेगा? इस पेचीदा स्थिति में उद्यमी चुप करके बैठा हुआ है। भविष्य में कुछ बेहतर होने की प्रतीक्षा कर रहा है। सभी उद्यमी यह भी जानते हैं कि निकट भविष्य में लड़खड़ाती अर्थव्यवस्था में कोई करिश्मा होने वाला नहीं है इसलिए बहुत जल्दी हालात सुधरने के आसार भी नहीं हैं।  

उद्योगों और व्यापारिक प्रतिष्ठानों से बेरोजगार हुए लोग 30 जून को प्रधानमंत्री की घोषणा से पहले तक दो जून की रोटी की चिंता में डूबे हुए थे। उनके पास कोई आय का साधन नहीं है। ऐसे लोगों से यह उम्मीद करना बेमानी है कि वे बाज़ार में ग्राहक बन कर जाएंगे और वस्तुओं की मांग पैदा कर देंगे और बढ़ी मांग को पूरा करने के लिए कारखाने फिर से चालू हो जाएंगे। इस तरह का सपना देखना भी अपराध-सा लगता है। 

  प्रधानमंत्री ने 30 जुन को यह घोषणा की थी कि नवंबर में छठ पूजा तक देश के 80 करोड़ लोगों को हर महीने पांच किलो गेहूं या चावल और एक किलो चना  मुफ्त मुहैया कराया जाएगा। अंधे को क्या चाहिए, दो आंखें। संतोषी मज़दूर को दो वक्त की रोटी बिना विघ्न बाधा मिल जाए तो उसे कुछ करने की ज़रूरत नहीं है। इसका अर्थ यह हुआ कि नवंबर तक 80 करोड़ लोगों को भूख से निजात मिल गई है। वे नवंबर तक कोई काम नहीं करेंगे और ना ही काम की तलाश में इधर उधर भटकेंगे। कोई भी व्यक्ति अपना घर छोड़कर काम करने के लिए उस समय बाहर निकलता है जब उसे भूख सताती है क्योंकि भूख का भय मौत के भय से भी बड़ा होता है। जब तक दो वक्त की रोटी का जुगाड़ है तब तक वे घर से बाहर नहीं निकलेंगे। दिल्ली के एक बड़े उद्योगपति के बारे में मज़दूर कुछ रोचक किस्से सुनाते थे। उद्योगपति कहा करते थे कि मजदूर का कनस्तर आटे से नहीं भरा होना चाहिए। जिस दिन उसका कनस्तर आटे से भर जाएगा वो काम पर नहीं आएगा। प्रधानमंत्री ने मज़दूरों का कनस्तर आटे से भर दिया है इसलिए अब वह घर में ही रहेगा।

प्रधानमंत्री को भी घोषणा करते समय यह अंदाजा रहा होगा कि मज़दूर घर से बाहर निकलने के मूड में नहीं हैं, कम से कम दीपावली और छठ पूजा तक कोई बाहर निकल कर जान जोखिम में नहीं डालना चाहेगा। लिहाजा, उनके लिए रोटी का मुफ्त बंदोबस्त कर दिया। इस बीच, वे मनरेगा में भी काम कर कमाएंगे। उस पैसे से राशन का सस्ता अनाज खरीद कर और कई महीने गुज़ारा कर सकते हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि कई महीनों तक मज़दूर उपलब्ध नहीं होंगे। कोई उद्यमी हिम्मत जुटा कर काम शुरू करना भी चाहे तो मज़दूर ही नहीं मिलेंगे। मजदूरों की आपूर्ति कम होने से मजदूरी की दरें भी बढ़ जाएंगी। महंगा मज़दूर लेकर काम करेंगे तो उत्पादन लागत बढ़ेगी। नतीजतन, उत्पादों के दाम बढ़ाने पड़ेंगे। ऐसी स्थिति में मांग बढ़ने की बजाए और गिर जाएगी और अर्थव्यवस्था ज़्यादा लड़खड़ाने लगेगी। इस विषैले दुष्चक्र से अर्थव्यवस्था को बाहर निकालने का कोई रास्ता नहीं दिखाई दे रहा है।

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