क्राइम रिफाॅर्मर एसोसिएशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष डाॅ. संदीप कटारिया ने बताया कि बिहार के 2015 के चुनाव को अगर आप याद करें तो पाएंगे कि लालू और नीतिश के गठजोड़ से कहीं ज्यादा निर्णायक फैक्टर आरएसएस चीफ मोहन भागवत का वह बयान बना था, जिसमें उन्होंने आरक्षण नीति की समीक्षा की वकालत की थी। उनका तर्क था कि जिस समय आरक्षण दिए जाने की बात तय हुई थी, तब की और अब की स्थितियों में बहुत फर्क आ चुका है। लालू प्रसाद यादव ने उनके इस बयान को बीजेपी के खिलाफ ऐसा हथियार बनाया, जिसने बीजेपी को न हंसने का मौका दिया और न ही रोने का। उस एक बयान से बिहार का पूरा राजनीतिक परिदृश्य बदल गया था और आरक्षित वर्ग के बीच एक आम धारणा बन गई थी कि अगर बिहार चुनाव जीतकर बीजेपी मजबूत हुई तो उसका अगला लक्ष्य आरक्षण को खत्म करना ही होगा। बीजेपी की छवि आरक्षण विरोधी पार्टी की स्थापित हो गई थी। लालू यादव अपनी सभाओं में एक सवाल करना नहीं भूलते थे कि ‘क्या आप लोग अपना आरक्षण खत्म कराने को तैयार हैं?’

बिहार जैसे राज्य में, जहां आरक्षित वर्ग का राजनीति में प्रभुत्व हो, वहां बीजेपी के लिए मुकाबले में बने रहना मुमकिन ही नहीं था। आखिर वही हुआ जिसकी संभावना जताई जा रही थी। बीजेपी चुनाव हार गई। इससे भी ज्यादा चैंकाने वाली बात यह रही थी कि लालू यादव को अपने तत्कालीन सहयोगी नीतिश कुमार की पार्टी से ज्यादा सीट मिली थी, जो कि चुनावी अभियान को ‘सुशासन’ पर केंद्रित किए थे और ‘महागठबंधन’ उन्हीं को सीएम उम्मीदवार के रूप में आगे कर चुनाव लड़ रहा था। सीटों की जो टैली थी, उससे एक बार फिर स्थापित हो गया था कि बिहार में अभी भी सबसे निर्णायक फैक्टर ‘जाति’ ही है। शायद उस वक्त खुद लालू को यह भरोसा नहीं रहा होगा कि उनकी पार्टी आरजेडी नीतिश की पार्टी जेडीयू से बेहतर ‘परफाॅर्म’ करेंगी, तभी उन्होंने नीतिश को चेहरा बनाने की बात स्वीकार की थी। नतीजो के बाद जैसे ही उन्हें अपनी ताकत का अहसास हुआ, वह महागठबंधन सरकार को अपने कब्जे में लेने में जुट गए थे। यह संयोग भी हो सकता है कि पांच साल बाद जब बिहार चुनाव सिर पर आए तो आरक्षण का मुद्दा फिर से बहस में आ गया है। आरक्षण को लेकर बहस की शुरूआत पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट की एक टिप्पणी से हुई है।

तमिलनाडु के मेडिकल काॅलेजों में पिछड़े वर्ग के आरक्षण कोटा को लेकर दाखिल याचिकाओं की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि आरक्षण मौलिक अधिकार नहीं है। याचिका में मेडिकल काॅलेजों में 50 फीसदी सीटें ओबीसी के लिए रिजर्व करने की मांग की गई थी। यह याचिका तमिलनाडू की कुछ पार्टियों ने दाखिल की थी। इसके बाद बिहार की सियासत को एक बार फिर आरक्षण के इर्द-गिर्द लाने की कोशिश शुरू हो गई है। इस नए प्रकरण में इसी साल फरवरी महीने में आए सुप्रीम कोर्ट के एक अन्य फैसले को भी जोड़ लिया गया है। यह फैसला भी आरक्षण से जुड़े एक मसले पर सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि ‘यह एक इनेबलिंग प्रावधान है, अधिकार नहीं है। यह राज्यों के विवेक पर निर्भर करता है कि नियुक्ति या प्रमोशन के समय आरक्षण देना है या नहीं? इन सबको कम्पाइल करते हुए वहां यह स्थापित करने की कोशिश हो रही है कि ‘आरक्षण खत्म किया जा रहा है और इसके पीछे बीजेपी की शह शामिल है।’आरजेडी इस लड़ाई में अपने को सबसे आगे खड़ी दिखाना चाहती है। पार्टी की तरफ से कहा भी गया है कि हम आरक्षण को खत्म नहीं होने देंगे। इसके लिए किसी भी स्तर तक जाने को तैयार हैं। तेजस्वी ने एक ट्वीट कर कहा भी कि, ‘ आरक्षण संवैधानिक प्रावधान है। अगर संविधान के प्रावधानों को लागू करने में ही किंतु-परंतु होगा, तो यह देश कैसे चलेगा? आरक्षण के बहाने बीजेपी के सामाजिक न्याय की पक्षधर जो सहयोगी पार्टियां है, उन्हें भी घेरा जा रहा है।

बिहार की सियासत में भले ही इस वक्त आरक्षण रूपी ईंधन पुरजोर तरीके से झांेका जा रहा हो, लेकिन 2015 और 2020 के फर्क को समझना होगा। 2015 में बीजेपी को इसलिए बैकफुट पर जाना पड़ा था कि वह बयान आरएसएस चीफ का था, जहां से खुद को बीजेपी के लिए अलग करना मुश्किल हो गया था। लेकिन आरक्षण को लेकर जो हालिया विवाद है, वह सुप्रीम कोर्ट के फैसलों से जन्मा है। उससे पल्ला झाड़ना बीजेपी के लिए आसान है। वह खुलकर खत्म होने का या किए जाने का सवाल ही नहीं है। पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा का बयान भी आ गया है कि , मोदी सरकार और बीजेपी आरक्षण के प्रति पूरी तरह कटिबद्ध है। सामाजिक न्याय के प्रति हमारी वचनबद्धता अटूट है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बार-बार इस संकल्प को दोहराया है कि सामाजिक समरसता और सभी को समान अवसर हमारी प्राथमिकता है। मैं स्पष्ट करता हूं कि बीजेपी आरक्षण व्यवस्था के साथ हैं।’ सहयोगी एलजेपी के राम विलास पासवान भी बोल रहे हैं, ‘लोक जनशक्ति पार्टी सभी राजनीतिक दलों से मांग करती है कि पहले भी आप सभी इस सामाजिक मुद्दे पर साथ देते रहे हैं, फिर से इकट्ठा हों। बार-बार आरक्षण पर उठने वाले विवाद को खत्म करने के लिए आरक्षण संबंधी सभी कानूनों को संविधान की 9वीं अनुसूची में शामिल करने के लिए मिलकर प्रयास करें।’यानी इस बार बीजेपी ओर उनकी सहयोगियों को उस तरह घेरा जाना आसान नहीं होगा, जैसा 2015 में हुआ था। क्रिकेट मैच में नतीजा पिच के व्यवहार पर भी निर्भर करता है, लेकिन पिच किस तरह का व्यवहार करती है, यह मैच शुरू होने के बाद ही पता चलता है। इसी तरह बिहार का चुनाव भी होगा। ‘आरक्षण की पिच’ का व्यवहार कैसा होगा, यह चुनावी अभियान शुरू होने पर ही पता चलेगा। तब तक राजनीतिक दलों के दांव देखते रहिए।

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