भारत सारथी/ऋषि प्रकाश कौशिक
गुरुग्राम। हरियाणा की राजनीति में कई दिनों से मुद्दा छाया हुआ है कि अधिकारी विधायकों की सुनते नहीं हैं। पहले विधायक विधानसभा अध्यक्ष के पास गए, फिर अनिल विज बोले और फिर मुख्यमंत्री मनोहर लाल भी बोले कि सचिवों को आदेश दिया जाए कि वे विधायकों का सम्मान करें। सवाल बड़ा है कि ऐसी स्थिति आई क्यों और क्या वह पत्र लिखने से सुधर जाएगी?

इस विषय पर हमने अनेक राजनैतिक विश्लेष्कों से बात की। अलग-अलग प्रकार से सभी के विचार सामने आए लेकिन सभी के विचारों में एक बात प्रमुखता से उभरकर आई कि यह मामला प्रोटोकॉल से संबंध रखता है और प्रोटोकॉल जबरन निभाया नहीं जा सकता, निभाया जाए तो भी उसमें मिठास नहीं रहती है और वर्तमान में हरियाणा की राजनीति में प्रोटोकॉल तो है ही नहीं। कारण मुख्यमंत्री खट्टर तो नहीं? सरकार में मंत्रीमंडल का गठन होता है। मंत्रीमंडलों को विभाग सौंपे जाते हैं और उसी के आधार पर काम बांटकर सरकार चलती है। परंतु वर्तमान में मुख्यमंत्री हर विभाग में दखल देते रहते हैं। अपने आदेश देते रहते हैं। माना कि मुख्यमंत्री मंत्रीमंडल के हैड हैं। अत: मंत्रियों में सबसे वरिष्ठ मंत्री अनिल विज ने भी कई बार कहा है कि मुख्यमंत्री तो मुख्यमंत्री है। यह बात उनके मुंह से सार्वजनिक रूप से निकलना अपने आपमें दर्शा देता है कि वह कितने दुखी मन से बोल रहे होंगे।

जैसा कि बताया कि प्रोटोकॉल के अनुसार माना कि मुख्यमंत्री सबसे ऊपर हैं परंतु वह अपनी बात विभाग के मंत्री को कहेंगे और विभाग का मंत्री उस पर कार्यवाही करेगा, यह तो है प्रोटोकॉल। लेकिन मुख्यमंत्री यदि स्वयं ही कार्यवाही करेंगे और मंत्री को यह बात समाचार पत्रों से पता चलेगी तो जाहिर ही बात है कि मंत्री मजबूरी में बोल तो नहीं सकेगा लेकिन आहत जरूर होगा।
वर्तमान में एक बात और बहुत अधिक नजर आ रही है कि अधिकारियों में वरिष्ठता के पैमाने को ताक पर रख मंत्री या उनके सचिव अपने पसंद के व्यक्ति को प्रमोशन देकर जिम्मेदार पदों पर बिठा देते हैं। उससे भी अधिकारियों का मनोबल तो टूटता ही है। अब यह विचारनीय विषय है कि जिन अधिकारियों को अन्य अधिकारियों की वरियता को ठुकराते हुए ऊपर के पद पर बिठाया जाता है, उसमें क्या योग्यता होती है। क्या वह चाटुकार होता है, क्या वह कार्य में विशेष सक्षम होता है या फिर जैसा कि बातों में प्रचलित है कि वह सब लक्ष्मी की माया से संभव होता है?

यह लिखना इसलिए आवश्यक है कि हम कोशिश कर रहे हैं ढूंढने की वह कारण जिनकी वजह से सवाल यह उठ रहा है कि अधिकारी विधायकों का कहना नहीं मानते। इसी कड़ी में हमने देखा कि आइपीएस ही एसपी बनता है लेकिन एचसीएस भी एसपी बने हुए हैं। इसी प्रकार इजीनियरिंग में बिना डिप्लोमा के कोई जेई नहीं लगते लेकिन यहां जेई भी लग जाते हैं, एससी भी बन जाते हैं। इससे भी बड़ी बात देखिए, जैसी कि मेरी जानकारी है कोई भी एक्सइएन या एससी बिना सिविल इंजीनियरिंग की डिग्री के नहीं बनता लेकिन वरीयता और योग्यता को ताक पर रखकर अनेक बिना डिग्री के एक्सइएन और एससी भी बनाए हुए हैं। ये तो सभी छोटी बाते कह सकते हैं, उसके मुकाबले में।

हरियाणा सचिवालय जोकि कानून का मुहाफिज माना जाता है, वहां भी कहा जाता है कि निदेशक, उप निदेशक आदि आइएएस बनते हैं लेकिन ऐसे अधिकारी भी वहां विराजमान हैं, जो आइएएस तो छोड़ो, एचसीएस भी नहीं हैं। अब इस प्रकार जब अधिकारियों में हो रहा है तो दिल तो उनका टूटेगा ही।

प्रश्न यह है कि अधिकारियों के सामने कि वे किसकी बात मानें, मुख्यमंत्री की, विभाग के मंत्री की या उसकी जिसकी या लक्ष्मी की कृपा से उसे वह पद मिला है? नियम-कायदों की तो कीमत इस समय दिखाई नहीं दे रही। अभी ताजा घटना ही देख लो, दिल्ली भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष सोनीपत में आकर क्रिकेट खेलते हैं। उन पर कोई कार्यवाही नहीं होती। इसी प्रकार के अनेक उदाहरण मिल जाएंगे। और फिर एक प्रश्न यह भी है कि विधायक और मुख्यमंत्री का आपसी तालमेल होता है लेकिन यहां दिखाई देता है कि विधायकों को शायद मुख्यमंत्री समय ही नहीं देते, तभी तो उनको शिकायत विधानसभा अध्यक्ष और गृह मंत्री को करनी पड़ी और मुख्यमंत्री भी तब बोले जब विधानसभा अध्यक्ष बोल चुके थे और गृह मंत्री तो यहां तक कह चुके थे कि अगर हरियाणा में नौकरी करनी है तो विधायक की सुननी होगी। इस तरह से दिखाई देता है कि प्रोटोकॉल बिगाडऩे की शुरुआत मुख्यमंत्री से ही हो रही है, तो फिर और से शिकायत क्यों।

error: Content is protected !!