जालियाँवाला बाग के अमर शहीदों को शत् शत् नमन।

वो मरे नहीं थे, वो देश को जगा गए थे।

श्रीमती पर्ल चौधरी

13 अप्रैल 1919—इस दिन को याद करना केवल इतिहास का पाठ नहीं, बल्कि वर्तमान को आईना दिखाना है। जलियांवाला बाग में कायर जनरल डायर ने निर्दोष भारतीयों को घेरकर गोलियों से छलनी कर दिया, क्योंकि उन्होंने रौलट एक्ट जैसे दमनकारी कानून का विरोध किया था। यह घटना केवल एक नरसंहार नहीं, बल्कि सत्ता की असंवेदनशीलता और अहंकार की पराकाष्ठा थी।

आज, जब भारत स्वतंत्र है, एक लोकतंत्र है, तो सवाल उठता है—क्या उस बलिदान का मोल हमने चुकाया है? या वही मानसिकता, नया चेहरा और नया वेश पहनकर सत्ता के गलियारों में फिर लौट आई है?

तानाशाही का नया वेश: ‘फैक्ट चेक यूनिट’ और विचारों की सेंसरशिप

वर्तमान सरकार द्वारा अप्रैल 2023 में सूचना प्रौद्योगिकी नियमों में लाया गया संशोधन इसका जीता-जागता प्रमाण था। इसमें केंद्र सरकार को यह अधिकार दिया गया कि वह अपने “कारोबार” से जुड़ी किसी भी जानकारी को “फेक, झूठी या भ्रामक” बताकर हटवा सके। एक ऐसी फैक्ट चेक यूनिट, जो खुद सरकार के अधीन हो—यह लोकतंत्र का नहीं, तानाशाही का संकेत था

बॉम्बे हाईकोर्ट की फटकार: अभिव्यक्ति की आज़ादी पर हमला अस्वीकार्य

बॉम्बे हाईकोर्ट ने सितंबर 2024 में इस संशोधन को असंवैधानिक ठहराया। कोर्ट ने कहा कि ये शब्द – “फेक, फॉल्स या मिसलीडिंग” – अस्पष्ट हैं, और यह प्रावधान संविधान के अनुच्छेद 19(1)(a) यानी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला करता है।

आज की गोलीबारी: पत्रकारों पर आर्थिक प्रहार

पर क्या केवल एक अदालत का फैसला लोकतंत्र की रक्षा के लिए पर्याप्त है?

जलियांवाला बाग में गोलियां चली थीं, आज विचारों पर बंदिशें लगती हैं। आज पत्रकारों को गोली नहीं मारी जाती, लेकिन उन्हें नौकरी से निकलवा दिया जाता है, मीडिया संस्थानों को कॉरपोरेट घरानों को बिकवा दिया जाता है। असहमति दर्ज करना देशद्रोह ठहराया जाता है, और सत्ता पर सवाल उठाना “एंटी-नेशनल” करार दिया जाता है।

आंदोलन की राजधानी में भी दमन का अंधकार

आज दिल्ली में भी वही होता है जो 1919 में अमृतसर में हुआ था— प्रदर्शनकारियों को राजधानी में घुसने से रोका जाता है, इंटरनेट बंद किया जाता है, सीमाएं सील होती हैं। किसानों, छात्रों, शिक्षकों और महिलाओं की आवाज़ों को इस डर से कुचला जाता है कि कहीं वे सत्ता की चूलें न हिला दें।

शिक्षा का गला घोंटकर खामोशी थोपने की साजिश

देश का युवा, जो देश का भविष्य है, उसे शिक्षा से दूर होना पड़ रहा है। सरकारी स्कूलों और कॉलेजों की संख्या घटती जा रही है, ताकि गरीब का बच्चा सोचने और सवाल करने लायक ही न बन सके। जब शिक्षा नहीं होगी, तो स्वतंत्र विचार नहीं होंगे। और जब विचार नहीं होंगे, तो विरोध नहीं होगा। यही है सत्ता की सबसे खतरनाक रणनीति—एक वैचारिक जलियांवाला बाग।

महिलाओं के सपनों पर लगी सरकारी बेड़ियाँ

महिलाओं की शिक्षा के रास्ते में अड़चनें खड़ी की जा रही हैं। गाँव से कॉलेजों की दूरी, महँगी फीस का बोझ, और सरकारी उपेक्षा—यह सब कुछ एक साजिश के तहत किया जा रहा है ताकि महिला अपने सपनों को पंख न दे सके। ये सब आधुनिक गुलामी के नए चेहरे हैं।

साँसों की क़ीमत और चुप्पी का बोझ: राजधानी की विडंबना

देश की राजधानी दिल्ली—जहां देश के सर्वश्रेष्ठ संस्थान हैं, वहीं आज यह सबसे प्रदूषित शहरों में भी शामिल है। लोग साँसों के लिए जूझ रहे हैं, और बोलने की हिम्मत रखने वाले लोग कम होते जा रहे हैं। यह स्थिति उस समय की याद दिलाती है जब जलियांवाला बाग में लोग अपने हक की बात करने आए थे, और उन्हें हमेशा के लिए चुप कर दिया गया।

श्रीमती पर्ल चौधरी का सन्देश: जनरल डायर अब भी ज़िंदा है

श्रीमती पर्ल चौधरी, वरिष्ठ कांग्रेस नेत्री, जलियांवाला बाग के शहीदों को नमन करते हुए कहती हैं:

“जलियांवाला बाग केवल इतिहास नहीं है, वह चेतावनी है। जब भी सत्ता आलोचना से डरती है, जब भी विरोध को अपराध बना दिया जाता है, जब भी मीडिया को नियंत्रित किया जाता है—तब जनरल डायर फिर से जीवित हो उठता है। फर्क इतना है कि अब उसके हाथ में बंदूक नहीं, बल्कि नियम, आदेश, और सेंसरशिप की कलम है।”

“लोकतंत्र में सत्ता की सबसे बड़ी परीक्षा आलोचना को झेलने की क्षमता होती है। जो सरकार खुद के खिलाफ फैक्ट चेक करने का अधिकार मांगती है, वह लोकतंत्र नहीं, नियंत्रण चाहती है।”

श्रद्धांजलि नहीं, संकल्प बनाइए

आज 2025 में जलियांवाला बाग के शहीदों को सच्ची श्रद्धांजलि यही होगी कि हम उनकी दी हुई आज़ादी को बर्बाद न जाने दें। हम अपने संविधान की रक्षा करें, सवाल पूछने की हिम्मत रखें, और उस हर कानून, हर नीति का विरोध करें जो विचारों को बाँधती है।

जालियाँवाला बाग के अमर शहीदों को शत् शत् नमन। वो मरे नहीं थे, वो देश को जगा गए थे।

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