घर तब तक नहीं टूटता, जब तक फैसला बड़ों के हाथ में होता है
– हर कोई बड़ा बनने लगे तो घर टूटने में देर नहीं लगती
एडवोकेट किशन सनमुखदास भावनानी

भारतीय संस्कृति और संयुक्त परिवार की महत्ता
भारत प्राचीन काल से ही संस्कृति, सभ्यता, और पारिवारिक मूल्यों का केंद्र रहा है। बड़े बुजुर्गों का सम्मान, संयुक्त परिवार की परंपरा, और सामंजस्य की भावना भारतीय समाज की विशेषताएं रही हैं। हमारे पूर्वजों ने परिवार को स्वर्णलोक और स्वर्ग का अनुभव करने का साधन माना, जहां प्रेम, अनुशासन और एकजुटता के साथ जीवन व्यतीत होता था।
संयुक्त परिवारों में बड़ों के छत्रछाया में रहकर उनके अनुभवों और निर्णयों का सम्मान करना, समर्पित भाव से जीवन जीने का सुखद एहसास कराता था। लेकिन वर्तमान परिप्रेक्ष्य में, युवा पीढ़ी पश्चिमी संस्कृति के प्रभाव में “एकला चलो रे” की नीति पर चलने लगी है। यही कारण है कि संयुक्त परिवार धीरे-धीरे विघटन की ओर बढ़ रहे हैं।
संयुक्त परिवार के टूटने के प्रमुख कारण
- बड़ों के निर्णयों की अनदेखी
जब तक परिवार में निर्णय लेने का अधिकार बड़ों के पास रहता है, तब तक परिवार की नींव मजबूत बनी रहती है। लेकिन जैसे ही परिवार का हर सदस्य स्वयं को बड़ा समझकर निर्णय लेने लगता है, परिवार में फूट पड़ने लगती है। - पारिवारिक मूल्यों में अंतर
अलग-अलग पीढ़ियों के विचारों में अंतर होना स्वाभाविक है। यदि बड़े धार्मिक और परंपरागत होते हैं, तो जरूरी नहीं कि उनकी अगली पीढ़ी भी उन्हीं संस्कारों को माने। विचारों का यह टकराव अक्सर अलगाव का कारण बन जाता है। - संवाद की कमी
परिवार में अलगाव की एक बड़ी वजह संवादहीनता भी है। अक्सर माता-पिता और बच्चों के बीच संवाद की कमी होने के कारण मतभेद गहराते जाते हैं और अंततः परिवार बिखर जाता है। - आर्थिक आत्मनिर्भरता
शहरों और विदेशों में रोजगार की तलाश में जाने से परिवारों में दूरी बढ़ जाती है। आर्थिक आत्मनिर्भरता होने के कारण युवा पीढ़ी अपने फैसले खुद लेने लगती है और बुजुर्गों की सलाह को कम महत्व देने लगती है। - आधुनिक जीवनशैली और स्वार्थ भावना
आज के दौर में व्यक्तिगत स्वतंत्रता और स्वार्थ भावना ने संयुक्त परिवार व्यवस्था को कमजोर कर दिया है। शहरों में बढ़ती व्यस्तता और व्यक्तिगत इच्छाओं को प्राथमिकता देने की प्रवृत्ति ने परिवारों को छोटे-छोटे हिस्सों में बांट दिया है।
संयुक्त परिवार के लाभ और सामाजिक समरसता
पुराने समय में समाज का ताना-बाना संयुक्त परिवारों पर टिका था। संयम, बड़े-बुजुर्गों की कद्र, और परस्पर सहयोग के कारण पूरा गांव एक परिवार की तरह रहता था। मोहल्ले के बुजुर्गों का सम्मान हर किसी के लिए अनिवार्य था, जिससे एकजुटता बनी रहती थी।संयुक्त परिवारों में रहने से न केवल आर्थिक सहयोग मिलता है, बल्कि हर सदस्य भावनात्मक रूप से भी सशक्त महसूस करता है। घर का कोई भी सदस्य अकेला नहीं रहता, हर खुशी बड़ी हो जाती है और हर दुख छोटा लगने लगता है।
संयुक्त परिवार को बचाने के उपाय
- बड़ों का सम्मान और उनकी राय का सम्मान करें
पारिवारिक निर्णयों में बुजुर्गों की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। उनकी सलाह और अनुभवों का आदर करना चाहिए। - स्वार्थ भावना से दूर रहें
खुद से पहले परिवार की जरूरतों को प्राथमिकता दें। जब परिवार खुश रहेगा, तो व्यक्तिगत सुख भी स्वतः मिलेगा। - संवाद बनाए रखें
परिवार के सभी सदस्यों को खुलकर संवाद करना चाहिए। समस्याओं को चर्चा के माध्यम से सुलझाने की प्रवृत्ति होनी चाहिए। - सहयोग और सहनशीलता विकसित करें
संयुक्त परिवार में रहने के लिए सहनशीलता जरूरी है। दूसरों की गलतियों को माफ करने और छोटी-छोटी बातों कोनजरअंदाज करने की क्षमता होनी चाहिए।
- साझा दायित्व निभाएं
परिवार में कार्यों का उचित विभाजन करें, जिससे सभी को जिम्मेदारी का एहसास हो और किसी एक पर अधिक बोझ न पड़े।
निष्कर्ष
यदि हम भारतीय पारिवारिक मूल्यों की पुनर्स्थापना करना चाहते हैं, तो हमें संयुक्त परिवार प्रणाली को अपनाना होगा। परिवार तब तक नहीं टूटता जब तक फैसला बड़ों के हाथ में होता है। जब हर कोई खुद को बड़ा समझने लगे, तो परिवार का बिखरना तय होता है।आज का दौर एक ऐसे समाज की ओर बढ़ रहा है, जहां कोई बड़ों के लिए तरस रहा है, तो कोई बड़ों पर गुस्से से बरस रहा है। यह स्थिति चिंताजनक है। हमें अपने मूल्यों को सहेजने और परिवार की नींव को मजबूत करने के लिए मिलजुलकर प्रयास करना होगा।
“करो दिल से सजदा तो इबादत बनेगी,
बड़े बुजुर्गों की सेवा अमानत बनेगी।
खुलेगा जब तुम्हारे गुनाहों का खाता,
तो बड़े बुजुर्गों की सेवा जमानत बनेगी।।
-संकलनकर्ता लेखक – क़र विशेषज्ञ स्तंभकार साहित्यकार अंतरराष्ट्रीय लेखक चिंतक कवि संगीत माध्यमा सीए(एटीसी) एडवोकेट किशन सनमुखदास भावनानीं गोंदिया महाराष्ट्र