भारत सारथी/ऋषि प्रकाश कौशिक

प्रजातंत्र (Democracy) और राजतंत्र (Monarchy) दो प्रकार की शासन व्यवस्थाएँ हैं, जिनमें प्रमुख अंतर है—प्रजातंत्र में जनता का शासन होता है, जबकि राजतंत्र में सत्ता एक विशेष व्यक्ति, जैसे राजा या सम्राट के पास होती है। भारत में प्रजातंत्र की नींव भारतीय संविधान द्वारा रखी गई, जो एक लोकतांत्रिक देश के रूप में हमारे अधिकारों और कर्तव्यों की रक्षा करता है। लेकिन क्या सच में हम प्रजातंत्र से राजतंत्र की ओर बढ़ रहे हैं? यह सवाल आज के समय में एक गंभीर विचारणीय मुद्दा बन गया है।

1. प्रजातंत्र की जड़ें और विकास

भारत में स्वतंत्रता संग्राम के बाद 1950 में भारतीय संविधान लागू हुआ, जिसने प्रजातांत्रिक मूल्यों को सुनिश्चित किया। संविधान ने “जनता द्वारा, जनता के लिए और जनता के” सिद्धांत को आधार माना, और सार्वभौमिक मताधिकार के माध्यम से सभी नागरिकों को अपने सरकार के चुनाव में भाग लेने का अधिकार दिया। यह प्रजातंत्र की सबसे बड़ी विशेषता है कि शासन व्यवस्था में किसी एक व्यक्ति या वर्ग का अधिकार नहीं है, बल्कि यह जनता द्वारा चुने गए प्रतिनिधियों के माध्यम से संचालित होती है।

2. राजतंत्र की विशेषताएँ

राजतंत्र की परिभाषा इस बात से जुड़ी होती है कि सत्ता एक राजपरिवार या किसी विशेष वंश से संबंधित व्यक्ति के पास होती है। ऐतिहासिक दृष्टि से, जब एक राजा या सम्राट अपने कड़े कानूनों और नीतियों से शासन करता था, तो लोगों के पास प्रत्यक्ष रूप से सत्ता में भागीदारी का अधिकार नहीं था। हालांकि, आजकल कई देशों में राजतंत्र की स्थिति बदल चुकी है, और यह केवल सांकेतिक रूप में अस्तित्व में है, जैसे कि यूनाइटेड किंगडम, जहां राजतंत्र की भूमिका सीमित और सांस्कृतिक रूप में है।

3. क्या भारतीय प्रजातंत्र राजतंत्र की ओर बढ़ रहा है?

आज के भारत में लोकतांत्रिक प्रक्रिया के भीतर कई ऐसे तत्व देखे जा सकते हैं, जो इस सवाल को जन्म देते हैं कि कहीं हम अपने प्रजातांत्रिक मूल्यों से भटककर राजतंत्र की ओर तो नहीं बढ़ रहे। कुछ मुख्य बिंदुओं पर गौर करें:

नेतृत्व के प्रति अत्यधिक निष्ठा

कई बार यह देखा गया है कि कुछ राजनेता अपने नेतृत्व के प्रति जनता की निष्ठा को एक विशेष सीमा तक बढ़ाते हैं। यह निष्ठा न केवल उनके कार्यों को समर्थन देने के रूप में, बल्कि उन नेताओं के खिलाफ किसी भी आलोचना को अस्वीकार करने के रूप में प्रकट होती है। ऐसा वातावरण बनता है, जहां विरोध और आलोचना की आवाज़ को दबाया जाता है।

केन्द्रीयकरण और सत्ता का संकेंद्रण

जब सत्ता के प्रमुख केंद्र में एक ही व्यक्ति या छोटे समूह का प्रभुत्व बढ़ता है, तो यह लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं के लिए खतरे का संकेत हो सकता है। राज्य और केंद्रीय सरकारों में अधिकारों का केन्द्रीयकरण, और विपक्ष की आवाज़ को अनदेखा करना लोकतांत्रिक सिद्धांतों के खिलाफ जाता है, और यह एक तरह से राजतंत्रीय शासन के संकेत हो सकते हैं।

लोकतांत्रिक संस्थाओं की कमजोर होती भूमिका

हमारे लोकतंत्र की संस्थाएं जैसे न्यायपालिका, चुनाव आयोग, मीडिया और विपक्षी दल, प्रजातांत्रिक प्रक्रिया को बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। जब इन संस्थाओं की स्वतंत्रता को कमजोर किया जाता है, या उनके कार्यों में हस्तक्षेप किया जाता है, तो यह लोकतंत्र के खतरे में पड़ने का संकेत हो सकता है। यदि संस्थाएं अपनी भूमिका निभाने में असमर्थ होती हैं, तो यह प्रजातंत्र के संस्थागत पतन की ओर इशारा करता है।

व्यक्तिगत सत्ता का बढ़ता प्रभाव

जब एक व्यक्ति या नेतृत्व समूह के पास बहुत अधिक शक्ति और नियंत्रण होता है, तो यह प्रजातांत्रिक सिद्धांतों के लिए चुनौती बन सकता है। भारतीय राजनीति में कुछ उदाहरण ऐसे सामने आए हैं, जहां व्यक्तिगत नेतृत्व ने पूरी पार्टी और देश के निर्णयों को प्रभावित किया, और सत्ता का यह केंद्रीकरण लोकतांत्रिक मूल्यों के विपरीत जाता है।

4. निष्कर्ष

हालांकि भारत में वर्तमान में प्रजातांत्रिक व्यवस्था पूरी तरह से अस्तित्व में है, लेकिन कुछ घटनाएँ और प्रक्रिया के तत्व हमें यह सोचने पर मजबूर करते हैं कि कहीं हम राजतंत्र की ओर तो नहीं बढ़ रहे हैं। यह महत्वपूर्ण है कि हम अपने लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा के लिए सजग रहें और सुनिश्चित करें कि सत्ता का विकेन्द्रीकरण, जनता का अधिकार, और लोकतांत्रिक संस्थाओं की स्वतंत्रता बनी रहे।

लोकतंत्र को प्रोत्साहित करने के लिए हर नागरिक की जिम्मेदारी है कि वह अपने अधिकारों को समझे, अपनी आवाज़ उठाए और हर संभव तरीके से लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं का पालन करें। लोकतंत्र केवल चुनावों तक सीमित नहीं है, बल्कि यह हमारे दैनिक जीवन में शामिल हर फैसले, हर क्रियावली में होना चाहिए।

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