दिल्ली-एनसीआर की जमीन-आसमान और वायु प्रदूषण के लिए कौन जिम्मेदार? डीपीसीबी रिपोर्ट में खुलासा

कचरे से निकलने वाली गैस सेहत के लिए घातक है

पराली जलाने पर राज्य के किसानों पर जुर्माना लगाने और उन्हें जेल भेजने को अनुचित और घोर अन्याय: न्यायमूर्ति सुधीर अग्रवाल

अशोक कुमार कौशिक 

कहते हैं जान है तो जहान है, लेकिन भारत में बढ़ते प्रदूषण के कारण जान और जहान दोनों ही खतरे में हैं। देश की हवा में घुलते प्रदूषण का ‘जहर’ अनेक बार खतरनाक स्थिति में पहुंच जाना चिन्ता का बड़ा कारण हैं। प्रदूषण की अनेक बंदिशों एवं हिदायतों के बावजूद प्रदूषण नियंत्रण की बात खोखली साबित हो रही है। मौसम और पॉल्युशन के कारण प्रदूषणकारी तत्व हवा में से कम नहीं हो रहे, जिसकी वजह से दिल्ली एनसीआर में ये स्थिति देखने को मिल रही है। दिल्ली के प्रदूषण के लिए पंजाब हरियाणा में पराली जलाने को जिम्मेदार ठहराने वाला कोई वैज्ञानिक अध्ययन नहीं है। राष्ट्रीय हरित अधिकरण (एनजीटी) के सदस्य न्यायमूर्ति सुधीर अग्रवाल ने ये बात कही है। उन्होंने कहा कि इस दावे को पुष्ट करने के लिए कोई वैज्ञानिक अध्ययन नहीं किया गया है कि पंजाब हरियाणा में पराली जलाना दिल्ली के वायु प्रदूषण में योगदान देता है।

उन्होंने पराली जलाने पर राज्य के किसानों पर जुर्माना लगाने और उन्हें जेल भेजने को अनुचित और घोर अन्याय बताया। एनजीटी के वर्तमान न्यायिक सदस्य का यह बयान इसलिए भी अहम है, क्योंकि ज्यादातर न्यायिक कार्यवाहियों और सार्वजनिक विमर्श में पड़ोसी राज्यों, खासकर पंजाब में धान की फसल के अवशेषों को जलाए जाने को दिल्ली में वायु प्रदूषण की बदतर स्थिति के लिए जिम्मेदार ठहराया जाता रहा है।

‘किसानों पर केस चलाना ठीक नहीं’

न्यायमूर्ति अग्रवाल ने कहा कि दिल्ली में वायु प्रदूषण पर अंकुश लगाना सभी की साझा जिम्मेदारी है। उन्होंने कहा, ‘केवल किसानों पर (पराली जलाने के लिए) मुकदमा चलाना, जुर्माना लगाना और जेल भेजना घोर अन्याय होगा।

यह कैसा समाज है जहां व्यक्ति के लिए पर्यावरण, अपना स्वास्थ्य या दूसरों की सुविधा-असुविधा का कोई अर्थ नहीं है। जीवन-शैली ऐसी बन गयी है कि आदमी जीने के लिये सब कुछ करने लगा पर खुद जीने का अर्थ ही भूल गया, इस गंभीर होती स्थिति को यूनिसेफ और अमेरिका के स्वतंत्र अनुसंधान संस्थान ‘हेल्थ इफेक्ट्स इंस्टीट्यूट’ की साझेदारी में जारी रिपोर्ट ने बयां किया है, इस रिपोर्ट के आंकड़े परेशान एवं शर्मसार करने के साथ चिन्ता में डालने वाले हैं, जिसमें वर्ष 2021 में वायु प्रदूषण से 21 लाख भारतीयों के मरने की बात कही गई है। ज्यादा दुख की बात यह है कि मरने वालों में 1.69 लाख बच्चे हैं, जिन्होंने अभी दुनिया ठीक से देखी ही नहीं थी। निश्चय ही ये आंकड़े जहां व्यथित, चिन्तीत व परेशान करने वाले हैं। वहीं सरकार के नीति-नियंताओं के लिये यह शर्म का विषय होना चाहिए, लेकिन उन्हें शर्म आती ही कहा है? तनिक भी शर्म आती तो सरकारें एवं उनके कर्ता-धर्ता इस दिशा में गंभीर प्रयास करते। सरकार की नाकामयियां ही हैं कि जिन्दगी विषमताओं और विसंगतियों से घिरी होकर उसे कहीं से रोशनी की उम्मीद दिखाई नहीं दे रही है।

दिल्ली की सीमाओं पर कचरे के पहाड़ 

दिल्ली की तीन सीमाओं पर कचरे के ऊंचे पहाड़ बने हुए हैं। इन लैंडफिल साइटों पर कचरा डालने की अवधि बहुत पहले समाप्त हो चुकी है, लेकिन वैकल्पिक जगहों के अभाव में यहां पर लगातार कचरा डाला जाता रहा, जिसके चलते यहां पर लाखों टन कचरे का ढेर जमा हो गया। कचरे से जल-थल और वायु तीनों ही प्रदूषित होते हैं। आग लगने पर यहां से निकलने वाली गैस सेहत के लिए बेहद घातक साबित होती है। 

वहीं, वैश्विक तापमान में बढ़ोतरी के लिए भी इसे जिम्मेदार माना जाता है। कचरे के इस ढेर के चलते आस-पास के लोगों को तमाम तरह की परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है। वर्षों से जमा कचरे को साफ करने की कार्य योजना पर काम किया जा रहा है। दिल्ली प्रदूषण नियंत्रण समिति की एक रिपोर्ट के मुताबिक, जुलाई, 2019 में तीनों लैंडफिल साइट पर कुल 280 लाख टन कचरा जमा था। तब से ही इस कचरे को साफ करने के लिए तमाम प्रयास किए जा रहे हैं।

डीपीसीसी की रिपोर्ट के मुताबिक 31 जनवरी 2024 तक भालस्वा, ओखला और गाजीपुर लैंडफिल साइट पर जमा कचरे में से 119 लाख टन कचरे को साफ किया गया। वहीं, कचरे के इन ऊंचे पहाड़ों को हर तरह से ही नुकसान दायक माना जाता है। हाल ही में गाजीपुर लैंडफिल साइट पर लगी आग के चलते आसपास के पूरे इलाके में धुंआ भर गया था। इस दौरान लोगों को सांस लेने में परेशानी का सामना करना पड़ा।

तापमान में बढ़ोतरी के लिए भी जिम्मेदार

विज्ञान एवं पर्यावरण केन्द्र में विशेषज्ञ सुपर्णो बनर्जी बताते हैं कि भारत में निकलने वाला ज्यादातर कचरा गीला होता है। इस कचरे से पानी जैसा लीचेट रिसता रहता है। बारिश के समय यह लीचेट ज्यादा रिसने लगता है। यह भूमिगत को प्रदूषित करता है साथ ही लैंडफिल साइट की जमीन भी खराब हो जाती है। कचरे के पहाड़ों पर लगने वाली आग से बेहद घातक गैस निकलती हैं, जो लोगों की सेहत के लिए बेहद खतरनाक होती है। कचरे से मीथेन का उत्सर्जन होता है। इस गैस को वैश्विक तापमान में बढ़ोतरी के लिए भी जिम्मेदार माना जाता है।

दिल्ली सहित उत्तर भारत के ज्यादातर इलाकों में प्रदूषण का बेहद खतरनाक स्थिति में बना रहना चिन्ता में डालता है। हालत ये बनते हैं कि कभी-कभी सांस लेना मुश्किल हो जाता है और लोगों को घरों में ही रहने को मजबूर होना पड़ता है। दिल्ली, नोएडा, गाजियाबाद, फरीदाबाद, गुरुग्राम में प्रदूषण का बड़ा कारण पड़ोसी राज्यों से आने वाला पराली का धुआं होता है। पराली के बाद पटाखों का धुआं भी बड़ी समस्या है, इसके अलावा सड़कों पर लगातार बढ़ते निजी वाहन, गुणवत्ता के ईंधन का उपयोग न होना, निर्माण कार्य खुले में होना, उद्योगों की घातक गैसों व धुएं का नियमन न होने एवं बढ़ता धूम्रपान जैसे अनेक कारण वायु प्रदूषण बढ़ाने वाले हैं। वहीं दूसरी ओर आवासीय कॉलोनियों व व्यावसायिक संस्थानों का विज्ञानसम्मत ढंग से निर्माण न हो पाना भी प्रदूषण बढ़ाने की एक वजह है। यह कैसी शासन-व्यवस्था है? यह कैसा अदालतों की अवमानना का मामला है? यह सभ्यता की निचली सीढ़ी है, जहां तनाव-ठहराव की स्थितियों के बीच हर व्यक्ति, शासन-प्रशासन प्रदूषण नियंत्रण के अपने दायित्वों से दूर होता जा रहा है। 

यूनीसेफ की रिपोर्ट में वायु प्रदूषण से 1 लाख 69 हजार बच्चे जिनकी औसत आयु पांच साल से कम बतायी गई है, मौत के शिकार होते हैं। जानलेवा प्रदूषण का प्रभाव गर्भवती महिलाओं पर होने से बच्चे समय से पहले जन्म ले लेते हैं, इनका समुचित शारीरिक विकास सही ढ़ंग से नहीं हो पाता। इससे बच्चों का कम वजन का पैदा होना, अस्थमा तथा फेफड़ों की बीमारियां से पीड़ित होना हैं। हमारे लिये चिंता की बात यह है कि बेहद गरीब मुल्कों नाइजीरिया, पाकिस्तान, बांग्लादेश, इथोपिया से ज्यादा बच्चे हमारे देश में वायु प्रदूषण से मर रहे हैं। विडंबना यह है कि ग्लोबल वार्मिंग तथा जलवायु परिवर्तन के संकट ने वायु प्रदूषण से होने वाली मौतों की संख्या को बढ़ाया ही है। एक अरब चालीस करोड़ जनसंख्या वाले देश भारत के लिये यह संकट बहुत बड़ा है। 

दिल्ली सहित देश के कई महानगरों में प्रदूषण जीवन का अभिन्न हिस्सा बन गयी है। हर कुछ समय बाद अलग-अलग वजहों से हवा की गुणवत्ता का स्तर ‘बेहद खराब’ की श्रेणी में दर्ज किया जाता है और सरकार की ओर से इस स्थिति में सुधार के लिए कई तरह के उपाय करने की घोषणा की जाती है। हो सकता है कि ऐसा होता भी हो, लेकिन सच यह है कि फिर कुछ समय बाद प्रदूषण का स्तर गहराने के साथ यह सवाल खड़ा होता है कि आखिर इसकी असली जड़ क्या है और क्या सरकार की कोशिशें सही दिशा में हो पा रही है? इस विकट समस्या से मुक्ति के लिये ठोस कदम उठाने हांेगेे। सिर्फ दिल्ली ही नहीं, देश के कई शहर वायु प्रदूषण की गंभीर मार झेलते हैं। इसका पता तब ज्यादा चलता है जब वैश्विक पर्यावरण संस्थान अपने वायु प्रदूषण सूचकांक में शहरों की स्थिति को बताते हैं। पिछले कई सालों से दुनिया के पहले बीस प्रदूषित शहरों में भारत के कई शहर दर्ज होते रहे हैं। जाहिर है, हम वायु प्रदूषण के दिनोंदिन गहराते संकट से निपट पाने में तो कामयाब हो नहीं पा रहे, बल्कि जानते-बूझते ऐसे काम करने में जरा नहीं हिचकिचा रहे जो हवा को जहरीला बना रहे हैं।

जानलेवा वायु प्रदूषण न केवल भारत के लिये बल्कि दुनिया के लिये एक गंभीर समस्या है। चीन में भी इसी कालखंड में 23 लाख लोग वायु प्रदूषण से मरे हैं। जहां तक पूरी दुनिया में इस वर्ष मरने वालों की कुल संख्या का प्रश्न है तो यह करीब 81 लाख बतायी जाती है। चिंता की बात यह है कि भारत व चीन में वायु प्रदूषण से मरने वालों की कुल संख्या के मामले में यह आंकड़ा वैश्विक स्तर पर 54 फीसदी है। जो हमारे तंत्र की विफलता, गरीबी और प्रदूषण नियंत्रण में शासन-प्रशासन की कोताही एवं लापरवाही को ही दर्शाता है। इसमें आम आदमी की लापरवाही भी कम नहीं है। आम आदमी को पता ही नहीं होता है कि किन प्रमुख कारणों से वह प्रदूषण फैला रहा है और किस तरह वे इस जानलेवा प्रदूषण को नियंत्रित करने में सहयोगी हो सकते हैं। प्रश्न है कि आम आदमी एवं उसकी जीवनशैली वायु प्रदूषण को इतना बेपरवाह होकर क्यों फैलाती है? क्यों आदमी मृत्यु से नहीं डर रहा है? क्यों भयभीत नहीं है? देश की जनता दुख, दर्द और संवेदनहीनता के जटिल दौर से रूबरू है, प्रदूषण जैसी समस्याएं नये-नये मुखौटे ओढ़कर डराती है, भयभीत करती है। विडम्बना तो यह है कि विभिन्न राज्यों की सरकारें इस विकट होती समस्या का हल निकालने की बजाय राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप करती है, जानबूझकर प्रदूषण फैलाती है ताकि एक-दूसरे की छीछालेदर कर सके। प्रदूषण के नाम पर भी कोरी राजनीति का होना दुर्भाग्यपूर्ण है।

चिंता की बात यह है कि दक्षिण एशिया में मृत्यु दर का सबसे बड़ा कारण वायु प्रदूषण ही है। उसके बाद उच्च रक्तचाप, कुपोषण तथा तंबाकू सेवन से होने वाली मौतों का नंबर आता है। दरअसल, गरीबी और आर्थिक असमानता के चलते बड़ी आबादी येन-केन- प्रकारेण जीविका उपार्जन में लगी रहती है, उसकी प्राथमिकता प्रदूषण से बचाव के बजाय रोटी ही है। वहीं ढुलमुल कानूनों, तंत्र की का ढ़िली तथा जागरूकता के अभाव में वायु प्रदूषण रोकने की गंभीर पहल नहीं हो पाती। मुश्किल यह है कि वायुमंडल के घनीभूत होने की वजह से जमीन से उठने वाली धूल, पराली की धुंध और वाहनों से निकलने वाले धुएं के छंटने की गुंजाइश नहीं बन पाती है। नतीजन, वायु में सूक्ष्म जहरीले तत्व घुलने लगते हैं और प्रदूषण के गहराने की दृष्टि से इसे खतरनाक माना जाता है। 

हमारा राष्ट्र एवं दिल्ली सहित अन्य राज्यों की सरकारें नैतिक, आर्थिक, राजनैतिक और सामाजिक एवं व्यक्तिगत सभी क्षेत्रों में मनोबल के दिवालिएपन के कगार पर खड़ी है। और हमारा नेतृत्व गौरवशाली परम्परा, विकास और हर प्रदूषण खतरों से मुकाबला करने के लिए तैयार है, का नारा देकर अपनी नेकनीयत का बखान करते रहते हैं। पर उनकी नेकनीयती की वास्तविकता किसी से भी छिपी नहीं है, देश में वायु प्रदूषण से होने वाली मौतों के हेल्थ इफेक्ट्स इंस्टीट्यूट के आंकड़े इस वास्तविकता को उजागर करते हुए प्रदूषण की समस्या का कोई दीर्घकालिक और ठोस हल निकालने के लिये चेता रहे हैं।

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