अज्ञातवास में पांडवो की तपस्थली रहा काम्येश्वर तीर्थ।

महाभारतकालीन है तीर्थ।

जन्मों जन्मों के पाप धुल जाते है इस दिन तीर्थ में स्नान और पूजा से।

देश- विदेश से पहुंचते है श्रद्धालु , होती है मनोकामना पूर्ण।

वैद्य पण्डित प्रमोद कौशिक

कुरुक्षेत्र : कुरुक्षेत्र ढांड रोड पर कुरुक्षेत्र से लगभग 12 किलोमीटर कमोदा गाँव में 11 अगस्त को आयोजित होगा रविवारीय शुक्ला सप्तमी मेला सावन मास की 11 अगस्त को रविवारीय शुक्ला सप्तमी मेला आयोजित होगा। इस दिन तीर्थ में स्नान करने से पुण्य का सौ गुणा ज्यादा फल मिलेगा और मोक्ष प्राप्त होगी। धार्मिक मान्यता के अनुसार रविवारीय शुक्ल सप्तमी के दिन तीर्थ में स्नान करने से मोक्ष व पुत्र रत्न की प्राप्ति होती है।

महर्षि पुलस्त्य जी और महर्षि लोमहर्षण ने वामन पुराण में काम्यकवन तीर्थ की उत्पत्ति का वर्णन करते हुए बताया कि इस तीर्थ की उत्पत्ति महाभारत काल से पूर्व की है। एक वार नैमिषारण्य के निवासी बहुत ज्यादा संख्या में कुरुक्षेत्र की भूमि के अंतर्गत सरस्वती नदी में स्नान करने हेतु काम्यक वन में आए थे। वे सरस्वती में स्नान न कर सके। उन्होंने यज्ञोपवितिक नामक तीर्थ की कल्पना की और स्नान किया, फिर भी शेष लोग उसमें प्रवेश न पा सके तब से मां सरस्वती ने उनकी इच्छा पूर्ण करने के लिए साक्षात् कुंज रूप में प्रकट होकर दर्शन दिए और पश्चिम-वाहनी होकर बहने लगी।

वामन पुराण के अध्याय 2 के 34वें श्लोक के काम्यक वन तीर्थ प्रसंग में स्पष्ट लिखा है कि रविवार को सूर्य भगवान पूषा नाम से साक्षात रूप से विद्यमान रहते हैं। इसलिए वनवास के समय पांडवों ने इस धरा को तपस्या हेतु अपनी शरणस्थली बनाया। वे द्यूत-क्रीड़ा में कौरवों से हारकर अपने कुल पुरोहित महर्षि धौम्य के साथ 10 हजार ब्राह्मणों के साथ यहीं रहते थे। उनमें 1500 के लगभग ब्राह्मण श्रोत्रिय-निष्ठ थे, जो प्रतिदिन वैदिक धर्मानुष्ठान एवं यज्ञ करते थे।

इसी पावन धरा पर पांडवों को सांत्वना एवं धर्मोपदेश देने हेतु महर्षि वेदव्यास, महर्षि लोमहर्षण, नीतिवेत्ता विदुर, देवर्षि नारद, संजय एवं महर्षि मार्कंडेय जी पधारे थे। इतना ही नहीं द्वारकाधीश भगवान श्रीकृष्ण जी अपनी पत्नी सत्यभामा के साथ पांडवों को सांत्वना देने पहुंचे थे। पांडवों को दुर्वासा ऋषि के श्राप से बचाने के लिए और तीसरी बार जयद्रथ द्वारा द्रौपदी हरण के बाद सांत्वना देने के लिए भी भगवान श्रीकृष्ण काम्यकेश्ववर तीर्थ पर पधारे थे। पांडवों के वंशज सोमवती अमावस्या, फल्गु तीर्थ के समान शुक्ला सप्तमी का इंतजार करते थे।

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