सनातन धर्म में यजमान,शिष्य और सेवक का दायित्व : डा. महेंद्र शर्मा

वैद्य पण्डित प्रमोद कौशिक

डॉ. महेन्द्र शर्मा “महेश”

पानीपत : शास्त्री आयुर्वेदिक अस्पताल के संचालक प्रख्यात ज्योतिषाचार्य डा. महेंद्र शर्मा ने बताया कि भारतीय सनातन धर्म और सनातन संस्कृति में मातापिता, गुरु, पति, कुलपुरोहित (ब्राह्मण), तीर्थपुरोहित, गौमाता, गीता, आश्रम और साधु संतों का विशेष स्थान हैं, इन्हीं के आशीर्वाद के कारण हमारी सभ्यताएं, परंपराएं, संस्कृति और सनातन धर्म जीवन्त है। हम पाश्चात्य संस्कृति में विवाह का विवेचन करें तो वह उनकी संस्कृति में एक प्रकार का समझौता है तो इस्लाम के महिला एक भोग्या और खिलौना मात्र है लेकिन भारतीय संस्कृति में नारी को देवी के रूप में मान्यता प्राप्त है। जब भी हम कोई यज्ञ ,पूजा या अनुष्ठान करते हैं तो देवी के आवाहन में यह कहते है … हे देवी! आप प्रकृति की स्वामिनी हो। इस लिए हम को किसी को भी बदलने की वैदिक अनुमति नहीं है। माता पिता ही हमारे अस्तित्वj का कारण हैं, हम को उन्हीं से नाम और गोत्र मिला है, इन्होंने ही हमारा पालन पोषण शिक्षण और विवाहादि कार्य सम्पन्न करवाए हैं। इसीलिए भद्रसूक्त के सप्तम श्लोक में यह आया कि हमारे पुत्र हमारे पितृ हों और हम इन पित्रों के पुत्र बने, सुसंस्कारों का यह क्रम सौ जन्मों तक बना रहे।

कुलगुरु और कुलपुरोहित हमारे जीवन और सुसंस्कारों को स्थापित करने वाले हैं, इन्हीं से हमें ईश्वरत्व का ज्ञान हुआ जो मोक्ष का कारण बन सकता है और कुलपुरोहित ने हमारे पितरों से लेकर हम तक समस्त यज्ञों, अनुष्ठानों, नामकरण उपनयन, विवाह और पितृ तर्पण कर्म आदि संपन्न करवा कर हमें धर्म और मर्यादा से जोड़े रखा इन के सुकृत्यों के ऋण से हम कभी भी उऋण नहीं हो सकते। हमारे उत्तर भारत की संस्कारों की स्थापन परंपरा में जिन ब्राह्मणों ने हमारे पूर्वजों परदादा दादा पिता और हम सब में समस्त धार्मिक संस्कार स्थापित किए और तीर्थपुरोहित जिन्होंने हमारे वंश को अपने ग्रंथों में जीवंत रखा इनको कदापि नहीं बदला जा सकता। ग्रंथ अध्ययन और संत प्रवचन श्रवण करता रहता हूं उसी संदर्भ यह विषय आया कि यदि कोई यजमान इन को बदलने का प्रयास करता है तो उस के पूर्वजों की गति नहीं होती और उनके परिवारों में पितृ कारक दोष समाप्त नहीं होते, निकृष्ट पुत्र जन्म लेते हैं जो पूर्वजों के नाम, यश , ख्याति, मानसम्मान और धनसंपदा को नष्ट कर देते हैं। इनके घरों से दरिद्रता और रोग भी समाप्त नहीं होते, इन का धन तीर्थों पर खर्च न हो कर आधुनिक तीर्थ हॉस्पिटल्स में खर्च होता है।

कुलपुरोहित और तीर्थ पुरोहितों की सेवा के अभाव में हमारे पंजाबी क्षत्रिय वर्ण के लोग अपने गोत्र, कुलदेवी और कुलदेवता के नाम को नहीं जानते। कश्यप गोत्र तो उन्हीं का होता है, जिन को अपना वास्तविक गोत्र ज्ञात नहीं है। मेरे अनुभव में यह भी आया है कि 95 % पंजाबी क्षत्रिय वर्ण वर्ग अपने गोत्र, कुलदेवी और कुलदेवता का नाम ही नहीं जानता जब कि कोई भी अनुष्ठान या सुकृत्यों में कुलदेवी और कुल देवता के नाम के नाम उच्चारण बिना सम्पन्न ही नहीं माना जाता। आप के कल्याणक कुल पुरोहित और तीर्थ पुरोहित सदैव आपका ही कल्याण चाहते हैं , ईश्वर ने यजमान और शिष्यों को ही इन के पालनपोषण करने का दायित्व सौंपा है। यदि आप का कुलगुरु कुलपुरोहित और तीर्थपुरोहित गौमाता साधुसंत भूखा बैठा है और आश्रम वित अभाव के कारण अव्यवस्थित हो रहे हैं तो आप अपने दायित्व का निर्वहन करें, इस लिए अपने घर परिवारों में होने वाले समस्त सुकृत्यों में इनको यज्ञ का भाग, दानदक्षिणा आदि दे कर करें , इनको तृप्त और प्रसन्न किए बिना आप का यज्ञ अधूरा रहेगा और अन्यथा परिणाम घटित हो सकते हैं।

दक्ष प्रजापति ने यज्ञ में शिव को स्थान नहीं दिया था तो उसके परिणाम से हम भली भांति परिचित हैं। आप के कुल पुरोहित तो श्मशान की अग्नि की तरह पवित्र हैं यथा श्मशाने दीप्तौजा पावको नैव दुष्यती। एवं विद्वानाविद्वानो ब्राह्मणो देवतं महत्।। यदि आप के कुलपुरोहितों के बालक उच्च शिक्षा नहीं ले सके और उनके यहां अन्न और धनाभाव है तो वेदाज्ञानुसार आप अपने ब्राह्मण की गौ माता की तरह सेवा करें, कुल पुरोहित/ ब्राह्मण की सेवा करने से आप के जीवन की समस्त प्रकार की आधिव्याधियां दूर होंगी, व्यापार व्यवसाय में भी लाभ होंगे, भूमि लाभ भवन निर्माण बच्चों के विवाह में विलम्ब और परिवार में पितृकारक दूर होंगे। इसी प्रकार तीर्थ पर जा कर यदि तीर्थ पुरोहित के दर्शन न किए तो हमारे पितृ जो उनके पास शब्द रूप में विराजित हैं वह रुष्ट हो जाते हैं। तीर्थों पर हमारे पितृ इन्हीं पुरोहित के यहां विराजमान रहते हैं। जब हम अपने पुरोहितों के पास जाते है तो हम पितृ प्रसन्नता प्राप्त करते हैं। इसी तरह यदि आप गुरु बदलते हैं तो ईश्वर रुष्ट होते हैं कि जिस दिव्य आत्मा ने जीव का आत्मा से साक्षात्कार करवाया उसको यह लोग छोड़ रहे हैं। इसी लिए समस्त अनुष्ठानों में देवपूजन से पहले कुलगुरु और कुलब्राह्मण पूजा की जाती है।

पति और पत्नी द्वारा एक दूसरे द्वारा त्याग करने के परिणाम को हम गरुड़ पुराण से जान सकते हैं। अंत में तीर्थ आश्रमों और साधुसंत का वर्णन करते हैं, तीर्थ स्थलों पर आश्रम स्थापित करना भी हमारा धर्म है जिन में तीर्थ यात्री आकर विश्राम करते हैं और इन आश्रमों के संचालक सब को भोजन प्रसादी भी उपलब्ध करवाते हैं। यह आश्रम हैं जिन में धनाढ्य और श्रद्धालु गरीब व्यक्ति जो होटल आदि का खर्च वहन नहीं कर सकता, जब वह यहां आ कर भोजन करते हैं और आश्रय पाते हैं तो हमारे द्वारा दिया गया दान सफल हो जाता है। साधु सन्त ही हमारे जीवन में संतोष और मोक्ष का साधन है। इन की महता साधु और सन्त शब्द में ही व्याप्त है। हमारे जीवन में जिन के आगमन से स अद्य अर्थात शुचिता और पवित्रता का आगमन हो जाए और सन्त अर्थात जो अन्त बढ़िया कर मोक्ष का मार्ग प्रशस्त कर दें इन की पालना करना भी हमारा धर्म और कर्तव्य बनता है। गौ माता की पूजा और गौ संवर्धन भी हमारे जीवन का प्रथम अंग है क्यों कि गौ माता में 84 करोड़ देवी देवताओं का वास है। गीता का अध्ययन श्रवणन मनन और क्रियान्वन भी परमावश्यक है। तीन बार गीतगीतगीता कहने से दो बार आवाज आती है त्यागी त्यागी। गीता हम को जीवन में धर्म न्याय संतोष प्रदान करती है।

अतः सारांश यही है यह सब ध्रुव की तरह अटल हैं। इनका विधिवत सम्मान करें।
आचार्य डॉ. महेन्द्र शर्मा “महेश” ।।

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