वक्त की हर शय गुलाम, वक्त का हर शय पर राज
कौन जाने किस घड़ी, वक्त का बदले मिजाज़

आचार्य डॉ महेंद्र शर्मा “महेश”

धर्म नियम संविधान संस्कृति और कानून आदि से शिक्षा लें और अपने इतिहास को याद रखें कि जो उपजे सो बिनस है जैसा करेंगे वैसा ही फल भुगतेगें। ईश्वर जब वसुंधरा पर मानस बन कर प्रकट हुए तो उन्हें भी कर्मों का फल भुगतना पड़ा था … तो फिर हम …

भारतीय सांस्कृतिक साहित्य और जीवन दर्शन के अनुसार सब कुछ काल के अधीन है। श्रीमद्भगवत गीता के दशम अध्याय में सब कुछ स्वयं ईश्वर ही हैं, सारे चित्रों के चरित्र नायक और खलनायक वही हैं सब कुछ जगत नियंता की इच्छानुसार घटित होता है, समस्त घटनाओं के कारण और परिणाम स्वयं ईश्वर है। कालिया मर्दन के समय कालिया ने इसी बात को लेकर भगवान से प्रश्न किया कि जब इस आप संसार सभी भूमिकाओं का निर्वहन आप करते हैं तो फिर इस कालिया को किस ने बनाया ? भगवान इस प्रश्न से निरुत्तर हो गए। कालिया बोला कि जब सभी के स्वभाव का निर्माण आप ही ने किया है … शेर दहाड़ता है, गाय रंभाती है, घोड़ा हिनहिनाता है बकरी मैं मैं करती है और सांप अर्थात कालिया फुंकारता है तो यह गुण दुर्गुण मुझ में कहां से आया। भगवान इस प्रश्न से हिल गए और भगवान को भी यह मानना पड़ा कि यह सब कृत्य उन्हीं का है। भगवान तो कौतुकी हैं, उन्होंने अपनी इच्छा से सृष्टि का निर्माण किया और जीव को विवेक देकर संसार में शुभाशुभ कर्म करने और उन कर्मों से जीव का प्रारब्ध बना कर दुनियां में भेज रखा है।

विषय 25 जून 1975 का चल रहा है कि आज आपातकाल को घोषित हुए 50 वर्ष हो गए हैं और हमारे देश के नेता अभी तक निर्णय नहीं कर पा रहे है कि क्या इस को स्वर्ण जयंती उत्सव माने या काला दिन क्योंकि तब के और अब के घटनाक्रम में एक विषमता को छोड़ कर सब कुछ एक है और पूर्ण समानताएं है। वह अंतर केवल यही है कि तब यह घोषित अपातकाल था, जिस में इस कि पूर्व रात्रि को देश के समस्त विपक्षी नेताओं को जेल में नजरबंद कर दिया गया था, संचार व्यवस्था को सरकार ने अपने नियंत्रण में ले लिया था, तब यह घोषित आपात काल 25 जून 1975 से लेकर 21मार्च 1977 (21 महीने) तक चला था।

इस से पूर्व भी देश में राष्ट्रीय आपातकाल 1962 में भारत और चीन के मध्य हुए युद्ध के समय और 1971 में भारत पाकिस्तान युद्ध के समय आपातकाल बाहरी शक्तियों के आक्रमण के कारण लगा था लेकिन 1975 में अंतरिक उथलपुथल अशान्ति और अराजकता की बात को लेकर संविधान के अनुच्छेद 352 को लेकर ऐसा किया गया। निश्चित वह एक बुरा दौर था जिसमें हम सत्ता के गुलाम रहे, हमको मौलिक अधिकारों से वंचित रखा गया, किसी भी प्रकार का कोई विरोध या प्रश्न नहीं किया जा सकता, सरकार ने विपक्ष को कुचलने के लिए सारे हथकंडे अपनाए और 1977 के आम चुनाव में इस कुकृत्य का परिणाम भी भुगता कि श्रीमति इन्दिरा गांधी स्वयं चुनाव हार गई थी।

स्वतंत्रता किसको प्यारी और अज़ीज़ नहीं। आप अपने घर में पालतू कुकर को भी अधिक देर कर चेन से बांध कर नहीं रख सकते, एक बेजान नन्हीं सी च्यूंटी के सिर को सुई की नोक से दबाएं तो वह भी जीवन के लिए फड़फड़ाने लगती है और हम तो विवेकी मनुष्य ठहरे तो हम कैसे पुनः पराधीनता स्वीकार कर सकते थे, भारतीय जनमानस ने सत्ताधीशों को दो वर्षों बाद सबक सीखा दिया। अब हम शुद्ध अंतर्मन से उस समय और इस समय की तुलना करें कि आप को देश की तत्कालीन और वर्तमान की राजनैतिक स्थिति में एक समानता ही दिखाई देगी। आज हमारे देश में कौन सा और कितना प्रजातंत्र है, मीडिया को तब दबाया गया था, आज खरीदा गया है, जिन स्थानों पर इन्हें बहुमत मिलता रहा वहां तो इन्होंने सरकार बनाई ही लेकिन जहां पर इन्हें बहुमत नहीं मिला तो वहां पर क्या क्या खेल नहीं किया गया। तब उस समय तो मैं केवल 17 वर्ष का बालक था, राजकीय संस्थाओं का तब भी दुरुपयोग हुआ था और इन गत 10 वर्षों को देखें। तब की न्यायपालिका स्वतंत्र थी , चुनाव आयोग कठपुतली नहीं था, सीबीआई और ई डी अवश्य मौजूद थी लेकिन कुछ न कुछ निर्णय लेने में सक्षम थी, आज तो न्यायधीश भी डरे हुए हैं कि कहीं उनका ही इनकाउंटर न करवा दिया जाए या किसी हवाई दुर्घटना का शिकार न करवा दिया जाए, यह कृत्य आम जनमानस या नागरिकों के लिए दंडनीय अपराध हैं लेकिन सत्ता में सुरक्षित बने रहने के लिए यह औजार (Tools) हैं।

सरकार कुछ भी करें जब उस कुकृत्य की जांच भी उसी सरकार ने करनी है तो उस की रिपोर्ट क्या होगी … यह हम सभी जानते हैं। उक्त घटनाओं और उसके अच्छे बुरे परिणामों हम सब को संज्ञान भी है लेकिन हम सत्य पर नहीं चलना चाहते , हम दूसरों की कठपुतली हैं और हम उन्हीं के नियम और आज्ञा का अक्षरश पालन कर रहे हैं। वह स्वयं को निर्लेप कहते रहें जब कि जितना वह लिप्त हैं शायद और कोई उतना ही नहीं सकता। यदि वह राजनीति से अलिप्त होते तो उन्हें चुनाव परिणामों के बाद उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री से मिलने की क्या जरूरत थी ?

हम अपने अतीत से शिक्षा लेने का प्रयास ही नहीं करते हैं कि प्रकृति को राजा परम देवतम् का सिद्धांत कतिपय पसन्द नहीं है। चर्चा को श्री गीता जी से प्रारंभ किया था उसी से विश्राम दें कि हम भगवान की वाणी और गारंटी को समझें कि यदा यदा हि धर्मस्य… हम धर्म की रक्षा के लिए नाहक परेशान न हों, विश्वास रखें कि ईश्वर स्वयं प्रकट होकर धर्म के संतुलन को स्थापित कर देंगे। परम पिता परमात्मा ईश्वर जगदीश्वर ने अभी तक किसी संस्था या व्यक्ति विशेष को धर्म की पुनः स्थापना के लिए किसी प्रकार का लाइसेंस देकर अधिकृत नहीं किया है कि जाओ तुम्हें अधिकार है कि धर्म की स्थापना करो, हिरण्याक्ष रावण दुर्योधन कंस जरासंध नहीं बचे, वर्तमान में हिटलर मुसोलिनी इन्दिरा गांधी ईदी अमीन सद्दाम हुसैन जनरल ज़िया भी इतिहास में समा गए तो फिर हम क्या चीज़ हैं हम भी उसी इतिहास की कहानी में कोई छोटा मोटा पात्र मात्र से अधिक कुछ नहीं हो सकते।

अब फिर से मिलीजुली सरकारों का दौर शुरू हो चुका है, सरकार को निरंकुशता का चाबुक चलाने में कठिनाई होगी। सोशल मीडिया अब जागृत हो चुका है, सत्य को तो बोलना कहना सुनना ही पड़ेगा अन्यथा इन समाचार माध्यमों के हाथ में भी कटोरा आ जायेगा, जब इन्हें कोई सुनने वाला ही नहीं बचेगा। वैशाखियों पर चलने वाली सरकारें तभी सुरक्षित रह सकती हैं जब उनका संचालन और नेतृत्व पंडित नरसिंह राव पंडित अटल बिहारी वाजपाई या फिर श्री मनमोहन सिंह जैसे परिपक्व, शीतल स्वभाव, दूरदर्शी, दूसरों को सम्मान देने वाले और पारखी हों लेकिन देश का दुर्भाग्य यह है वर्तमान के राजनैतिक क्षितिज में ऐसा कोई व्यक्तित्व उपलब्ध नहीं है। सारांश तो यह है कि 1975 और 2014 से 2024 के काल खंड एक दूसरे के पूरक और एक समान हैं

…आज उक्त और वर्तमान प्रकरण के लिए हम न तो कोई उत्सव मना सकते हैं और न ही कोई मातम … हालात यह हैं कि …
हम तेरे राज में खुश भी हैं और महफूज भी
यह सच नहीं है पर एतबार करना है

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